और जब हरिनारायण सिंह के प्रभात खबर छोड़ने पर मची उथलपुथल

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वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क की प्रस्तावित पुस्तक की धारावाहिक कड़ी

योजनाएं बनाना आसान है, पर अमल करना-कराना बड़ा मुश्किल। धनबाद में रहते एक बार अपने पर्सनल मैनेजर आरके दत्ता जी को गेस्ट हाउस में मैंने बताया था कि क्यों न कोलकाता का संस्करण भी शुरू किया जाये। इसकी रूपरेखा मैंने उनसे शेयर की थी। मेरा मानना था कि पुस्तकों के प्रकाशन करने वाले न खुद लेखक होते हैं, न उनके पास छपाई की मशीन होती है, न वे खुद बाइंडर होते हैं, कवर भी वे खुद नहीं बनाते, लेकिन किताबें बेच कर मुनाफा कमाते हैं। क्यों न हम लोग भी वाउचर पेमेंट पर थोड़े लोग जुटा लें, किराये का दफ्तर लें और भाड़े की मशीन पर प्रिंट करा कर अखबार से विज्ञापन की कमाई करें। कोलकाता के विज्ञापन बाजार का मुझे अच्छा ज्ञान था। बात आयी-गयी औक खत्म हो गयी, इसलिए कि पहला लक्ष्य धनबाद से अखबार का प्रकाशन था। बाद में दत्ता जी ने हरिवंश जी को शायद बताया और कोलकाता के लिए मेरी खोज शुरू हुई थी। इस तरह कोलकाता जाने की मेरी योजना बनी।

बाद में कोलकाता जाने पर ठीक इसी तर्ज पर अखबार की मैंने योजना बनायी। स्टाफ के नाम पर सिर्फ देवाशीष ठाकुर, मैं और सुशील थे। बाकी साथी वाउचर पेमेंट वाले थे, जिनकी तनख्वाह हजार से साढ़े छह हजार के बीच थी। मसलन कम खर्च में अखबार निकालने की योजना। इस बीच सर्कुलेशन एजेंट बनाने, टीम तैयार करने और दफ्तर के इंटेरियर का काम चलता रहा।

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मेरा परिवार भी इस बीच मई में आ गया था। गर्मी की छुट्टी के बाद बच्चों का एडमिशन कराना था। दमदम कैंटोनमेंट के दो लड़के पिउन के काम के लिए मैंने रखे। नियुक्तियों में किसी भी स्तर पर कोई दखलंदाजी नहीं। मई की वह तारीख याद नहीं, जिस दिन शाम चार बजे हरिवंश जी का फोन आया, यह कहते हुए कि अश्क तुम रांची आ सकते हो। मैंने सोचा अखबारे के बारे में कोई मशविरा करने के लिए बुला रहे हैं। मैंने कहा कि कल निकल जाऊंगा। इस पर उन्होंने कहा कि आज ही निकल सको तो अच्छा रहेगा। फिर उन्होंने बताया कि हरिनारायण जी ने इस्तीफा दे दिया है। वे हिन्दुस्तान जा रहे हैं। पहले ही प्रभात खबर से कई लोग हिन्दुस्तान जा चुके हैं। इस बार पूरे संपादकीय को हिन्दुस्तान ले जाने की उनकी योजना है। मैंने उसी दिन रांची निकलने की हामी भर दी।

रात में खाने के लिए रोटी-सब्जी ली और 9.30 बजे की ट्रेन पकड़ने के लिए स्टेशन निकल पड़ा बिना रिजर्वेशन के। ट्रेन में काफी भीड़ थी। टीटीई ने बाताय कि किसी बोगी में बर्थ खाली नहीं है। झख मार कर जनरल बोगी में समा गया। बैठने की कोई गुंजाइश थी नहीं, इसलिए खड़े-खड़े रांची की मेरी यात्रा प्रारंभ हुई, जो उसी मुद्रा में जमशेदपुर पहुंचने पर समाप्त हुई। वहां कुछ लोग उतरे तो मैं बैठ गया। पत्नी का दिया टिफिन अब तक खोल नहीं पाया था। फिर टिफिन खोला और रोटियां खायीं।

अगले दिन 10 बजे दफ्तर पहुंच गया। हरिवंश जी आये और उन्होंने पूरी कहानी बतायी कि कैसे वह प्रभाष जोशी को रिसीव करने शाम को एयरपोर्ट गये और लौटे तो टेबल पर हरिनारायण जी का इस्तीफा पाया। रात से लेकर कहानी सुनने के बाद मैंने थ्री टायर स्ट्रेटजी तैयार की। पहले तो हरिनारायण जी को टटोलना कि वे वापस आ सकते हैं क्या। दूसरा, जाने वाले साथियों को रोकना और तीसरा नयी फसल तैयार करने के लिए तकरीबन 20 लड़कों की नियुक्ति। हरिवंश जी ने यह भी बताया कि रांची एक्सप्रेस में तब न्यूज एडिटर की भूमिका निभा रहे बैजनाथ मिश्र जी को उन्होंने संपादक के रूप में ज्वाइन कराने के लिए बात कर ली है।

मैंने अपनी योजना हरिवंश जी को बता दी और उनसे हरी झंडी लेकर मुहिम में जुट गया। तब प्रभात खबर के लोग रांची एक्सप्रेस को दुश्मन की तरह समझते थे। वहां से बैजनाथ जी के आने की बात कोई पचा नहीं पा रहा था। मेरे लिए यह भी चुनौती थी कि उन्हें साथियों में स्वीकार्य बनाया जाये।

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मैंने संपादकीय के की पर्सन की पहचान की। विजय पाठक तब न्यूज एडिटर थे।  उनके बड़े भाई शशिकांत पाठक जी (अब दिवंगत) खेल डेस्क के इनचार्ज थे। विजय भास्कर जी फीचर डेस्क पर थे, लेकिन मूल काम घन्श्याम श्रीवास्तव देखते थे। प्रोविंशियल डेस्क पर सेकेंड मैन जीवेश रंजन सिंह (अभी प्रभात खबर भागलपुर के संपादक), सिटी डेस्क के इनचार्ज संजय सिंह थे। संजय सिंह को बिरादरी के नाम पर पटा लिया और न्यूज एडिटर बनाने का आश्वासन दिया। विजय पाठक और शशिकांत पाठक को उनके पिता जी ने समझा दिया कि जो संपादक विजय की शादी में उनके गांव तक गया, उसका साथ छोड़ना ठीक नहीं होगा। शायद हरिवंश जी विजय की शादी में शामिल हुए थे। जीवेश रंजन को न्यूज एडिटर की हैसियत से प्रांतीय डेस्क का प्रभारी बनाने की बात हुई। घनश्याम श्रीवास्तव को प्रस्तावित भागलपुर संस्करण का संपादक बनाने का प्रलोभन दिया, लेकिन उन्होंने रुकने से मना कर दिया। आखिरकार इनमें से कोई नहीं गया।

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ट्रेनी की जो टीम तैयार हुई, उसमें कोलकाता के लिए जिन लड़कों का चयन किया था, उनको बुला लिया। अनुराग अन्वेशी, रंजन श्रीवास्तव, जेब अख्तर जैसे रांची के लड़के थे। इनकी ट्रेनिंग भी शुरू हुई। इनको शुरू में किसी छोटे होटल में दो-तीन दिन ठहराया गया। बाद में मेरी सलाह पर चारा घोटाले के सजायाफ्ता और तब के आईएएस सजल चक्रवर्ती के खाली पड़े मकान को किराये पर महीने भर के लिए लिया गया। उसमें चार-पांच फोल्डिंग काट, दरी और एक-एक तौलिया सबको देकर रख दिया गया। खाने के नाम पर रोज के 40 रुपये का बजट था। इस मकान में रहने वाले सभी साथी कोलकाता के थे। उनको बुरा न लगे, इसलिए मैं भी उनके साथ रहने लगा।

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सुबह 10 बजे से ट्रेनिंग शुरू होती थी। सेंट्रल डेस्क के लिए एक कंप्यूटर सेक्शन बना था। उसमें अभी काम शुरू नहीं हुआ था। उसी में कंप्यूटर की ट्रेनिंग शुरू हुई। 10 बजे सभी आ जाते और सुबह चार बजे घर लौटते। यानी युद्धस्तर पर ट्रेनिंग शुरू हो गयी। इस्तीफे के बाद हरिनारायण जी तीन-चार दिन आये। हरिवंश जी से मिले। रोना-दोना हुआ। लगा गिले-शिकवे समाप्त हो गये, लेकिन हरिनारायण जी आखिरकार हिन्दुस्तान का हिस्सा हो गये।

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