डॉ आरके नीरद वरिष्ठ पत्रकार अौर जनजातीय जीवन-संस्कृति के गहरे जानकार हैं। झारखंड की कला-संस्कृति पर प्रायः ढाई दशकों से काम कर रहे हैं। पत्रकार के साथ-साथ आर्ट क्रिटिक भी हैं। ढाई दशक पहले झारखंड के संताल परगना की प्रायः लुप्त हो चुकी जनजातीय चित्रकला शैली जादोपटिया को बचाने, उस पर शोध कर उसे प्रकाश में लाने का महती कार्य किया है। अब झारखंड की नयी चित्रकला शैली बैद्यनाथ पेंटिंग को सामने लाया है। देवघर के उपायुक्त ने इस पहल के महत्व को समझा है अौर वहां के मंदिर परिसर एवं गलियों को बैद्यनाथ पेंटिंग से सजाने का फैसला किया है।
झारखंड में एक नयी चित्रकला शैली तेजी से विकसित हो रही है, बैद्यनाथ पेंटिंग। यह पेंटिंग पहली बार यहां प्रकाश में लायी जा रही है, विश्लेषित की जा रही है। इसका विश्लेषण करते हुए मुझे इसमें एक समृद्ध चित्रकला शैली के समस्त अवयव दृष्टिगत हो रहे हैं और विश्वास है कि झारखंड की एक नई रैखिक थाती के रूप में इसे शीघ्र ही वैश्विक पहचान मिलेगी।
1990-94 में जदोपटिया चित्रकला शैली पर पहला व्यवस्थित सर्वेक्षण-अध्ययन कर उसे प्रकाश में लाने-बचाने के प्राय: ढाई दशक बाद संताल परगना की एक और चित्रकला शैली को देश-समाज के सामने लाना मेरे लिए निश्चय ही रोमांचकारी है। बैद्यनाथ पेंटिंग का केंद्र झारखंड की सांस्कृतिक राजधानी देवघर है, जहां बाबा बैद्यनाथ का विश्व प्रसिद्ध और ऐतिहासिक मंदिर है।
इस चित्रकला शैली का नामकरण ‘बैद्यनाथ पेंटिंग’ करने का मेरा आधार इसका सृजन स्थल, संदर्भ, विषय और इसके प्रतीकों का सांस्कृतिक-शास्त्रीय मूल्य है। बैद्यनाथ पेंटिंग को ठीक वैसा ही विकसित किया जा रहा है, जैसा 19वीं सदी में कोलकाता के कालीघाट मंदिर में कालीघाट चित्रकला का विकास हुआ और 20वीं सदी में देश के प्रसिद्ध चित्रकार पद्मभूषण यामिनी राय ने उसका प्रभाव ग्रहण कर अपनी कला-साधना को व्यापक आयाम दिया।
बैद्यनाथ पेंटिंग और कालीघाट पेंटिंग में समानता बस इतनी ही है कि दोनों का उद्भव प्राचीन देव मंदिरों को केंद्र में रख कर हुआ अन्यथा दोनों की चित्रांकन शैली, मूल विषय, रंग-संयोजन और प्रतीक भिन्न हैं। बैद्यनाथ पेंटिंग पटचित्र (स्क्रॉल पेंटिंग) नहीं है और इसका स्वरूप मौलिक है।
विदित है कि दुनियाभर से लाखों लोग सालों भर देवघर पहुंचते हैं। यहां का अपना ऐतिहासिक, शास्त्रीय, सांस्कृतिक, धार्मिक, तांत्रिक और अध्यात्मिक महत्व है। यह भी उल्लेखनीय है कि यहां बाबा मंदिर से जुड़े झूमर और लोक-साहित्य अत्यंत प्रसिद्ध हैं। यहां पुरातात्विक महत्व की इमारतें और मंदिर भी हैं।
देवघर जिस संताल परगना (प्रमंडल) का प्रमुख क्षेत्र हैं, वहां के जनजातीय समाज में रेखांकन-चित्रांकन की सुदीर्घ परंपरा है। इसके दो प्रचलित फॉर्म हैं। एक, कागज या कपड़े के पट (स्क्रॉल) पर चित्रित की जाने वाली जादोपटिया पेंटिंग और दूसरा भित्तिचित्र, किंतु देवघर या मंदिर से जुड़ी कोई अपनी, मौलिक रैखिक थाती नहीं है। अत: बैद्यनाथ पेंटिंग का विकास एक बड़ी और महत्वपूर्ण सांस्कृतिक सर्जना है।
बैद्यनाथ पेंटिंग के विषय द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक बाबा बैद्यनाथ मंदिर, वहां की पूजा पद्धति, शास्त्रीय एवं लोकथाओं व मान्यताओं, मंदिर से जुड़े धार्मिक-तांत्रिक कर्मकांडों एवं गतिविधियों तथा वहां संपन्न होने वाले संस्कारों पर केंद्रित हैं।
इन विषयों को अलग-अलग कागज और कैनवास पर विशिष्ट शैली में उकेरा जा रहा है। इस पेंटिंग की पूरी श्रृंखला 108 चित्रों की होगी। इसमें बाबा मंदिर, बड़ा घंट (घंटा), शिव बरात, ढोल-बजना, कांवर यात्रा, बाबा-शृंगार (पूजन), रुद्राभिषेक, जलार्पण, गठबंधन (शिव और पार्वती के मंदिरों के शीर्ष के बीच), बिल्लव-पत्र प्रदर्शनी, चूड़ाकरण, उपनयन, विवाह, पंजी-प्रथा आदि चित्रित किये गये हैं।
मैंने इस शैली को विषय के आधार पर दो श्रेणियों में बांटा है- एक, देवघर-मंदिर और वहां के प्रतीकात्मक अवयव पर केंद्रित पेंटिंग तथा दूसरा इनसे जुड़ी अन्य प्रक्रियात्मक गतिविधियों की विशिष्ट रैखिक अभिव्यक्ति। दूसरी श्रेणी की पेंटिंग में वहां के सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभावों को देखा जा सकता है। इनमें देवघर सहित देश के विभिन्न प्रदेशों-क्षेत्रों से यहां आने वाले अलग-अलग जनसमूहों के स्थानीय सांस्कृतिक व्यवहारों के भी दर्शन होते हैं। इनमें मिथिलांचल की लोक संस्कृति प्रमुख है।
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इस पेंटिंग में प्रयुक्त प्रतीकों का तथ्यात्मक और वर्णनात्मक, दोनों महत्व है। इन प्रतीकों का मंदिर से जुड़ी सुदीर्घ परंपराओं और पौराणिक मान्यताओं से गहरा संबंध है। इस दृष्टि से इस शैली का लोकपक्ष अत्यंत समृद्ध है।
इसमें बिल्वपत्र और सप्तदल पुष्प को प्रतीक-रूप में प्रमुखता दी गयी है। इन दोनों का देवघर-मंदिर के संदर्भ में विशेष महत्व है। ये तात्विक रूप से भगवान शिव के पूजन के प्रमुख अवयव हैं। बिल्वाष्टक और शिवपुराण के अनुसार बिल्वपत्र भगवान शिव को अत्यंत प्रिय हैं और शिव को प्रसन्न करने के लिए उन्हें बिल्व-पत्र अर्पित करने का विशेष महत्व है।
त्रिदलं त्रिगुणाकारं त्रिनेत्रं च त्रिधायुतम्। त्रिजन्मपापसंहारं बिल्वपत्रं शिवार्पणम्॥
यह भी मान्यता है कि बेल-पत्र के तीन दल भगवान शिव के तीन नेत्रों के प्रतीक हैं। बिल्वपत्र और सप्तदल पुष्प के अतिरिक्त रूद्राक्ष, पंचशूल (बाबा मंदिर के शिखर पर शोभित) और अर्द्धचंद्र भी इसमें प्रमुखता से उकेरे गये हैं।
इस शैली में चित्रकला के उन सभी छह अंगों- रूपभेद, प्रमाण, भाव, लावण्य योजना, सादृश्य विधान और वर्णिकाभंग की अनुशासनात्मक उपस्थिति है, जिनका उल्लेख कामसूत्र के प्रथम अधिकरण के तीसरे अध्याय की टीका करते हुए यशोधर पंडित ने किया : रूपभेदः प्रमाणानि भावलावण्ययोजनम। सादृश्यं वर्णिकाभंग इति चित्रं षडंगकम्।।
इस पेंटिंग में हालांकि रैखिक और विषयगत मौलिकता है, किंतु मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि चक्षु-चित्रण पर यामिनी राय के चित्रांकन शैली का आंशिक प्रभाव है, तथापि इनमें रैखिक जटिलता नहीं है, अपितु सरलता का समावेशन है। अत: सीखने की दृष्टि से इसमें पर्याप्त सहजता है। इसमें पृष्ठभूमि एकदम स्पष्ट है तथा इसमें चटख रंगों का प्रयोग नहीं है।
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इसमें एक-चश्म और द्वि-चश्म, दोनों प्रकार के चित्र हैं। रंगों और रेखाओं के बीच संतुलन को बनाये रखने के प्रयत्न में दोनों ने ही प्रभावी रूप से उभार लिया है। इस शैली के चित्रों में बेसिक कलर का प्रयोग है और यह प्रयास किया गया है कि रंगों के मूल स्वभाव से पात्रों के स्वभाव एवं परिवेश के महत्व को अभिव्यंजित किया जाये। ऐसा करने के पीछे कलाकार की इस बात को लेकर सतर्कता है कि बैद्यनाथधाम तीर्थस्थल है और इसका धार्मिक-पौराणिक महत्व है। देवघर नाथ संप्रदाय का सिद्ध केंद्र भी रहा है और यहां शक्तिपीठ भी है। इस दृष्टि से बैद्यनाथधाम सात्विक स्थल है। कलाकार ने इस तथ्य को ध्यान में रख कर रंगों के स्वभाव को इसके अनुकूल रखने के प्रति पूरी सतर्कता बरती है।
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इसमें रेखाओं की गतिशीलता और रेखाओं की गतिशील वक्रता का विशेष महत्व है। बॉडर (कोर) में दोहरी रेखाओं का प्रयोग है। कोर और पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड) में वानस्पतिक अवयवों को विशेष रूप से उकेरा गया है। ऐसा करने का उद्देश्य यही समझ में आता है कि कलाकार ने धर्म और प्रकृति के बीच सामंजन को अभिव्यक्त करने का प्रयत्न किया है।
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