जब लोगों का शासन और कानून से भरोसा खत्म हो जाये तभी लोग कानून हाथ में लेने लगते हैं। खासकर बेगूसराय में सामूहिक पिचाई से हुई 3 अपराधकर्मियों की मौत इसी बात की गवाही देती है। तीनों का उस इलाके में इतना आतंक था कि उनकी मौत के बाद भी लोग सहमे हुए हैं। जिस लड़की का अपहरण करना अपराधी चाहते थे, उस परिवार में खौफ का आलम यह है कि घर-बार छोड़ वे अज्ञात स्थान पर चले गये हैं। इस घटना के मद्देनजर सोशल मीडिया पर आईं दो लोगों की टिप्पणियांः
प्रवीण बागीः जब शासन पर से लोगों का भरोसा खत्म हो जाता तो बेगूसराय जैसी घटनाएं होने लगती हैं। लोग खुद फैसला करने लगते हैं। बेगूसराय के छौड़ाही गाँव में 7 सितंबर को एक बच्ची का अपहरण करने आये 3 अपराधियों को ग्रामीणों ने पुलिस के सामने पीट-पीट कर मार डाला। पुलिस हेडक्वाटर ने तीनों मृतकों को इलाके का कुख्यात अपराधी बता कर इस घटना में अपनी नाकामी छिपाने की कोशिश की है।
इसके कुछ ही दिन पहले सीतामढ़ी में कुख्यात गैंगेस्टर संतोष झा की कोर्ट परिसर में हत्या कर दी गई थी। लोगों द्वारा कानून हाथ में लेने और खुद फैसला करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। कानून मजाक बनकर रह गया है।
पुलिस और प्रशासन के बड़े अधिकारियों के घर धड़ल्ले से चोरी हो रही है। न्यायिक अधिकारियों के घर भी चोरों की पहुंच से अब दूर नहीं रहे। दिनदहाड़े बैंक लूटे जा रहे हैं। रात में ATM उखाड़े जा रहे हैं। बात-बात पर लोग एक दूसरे की हत्या कर रहे हैं। किशोर उम्रवाले पिस्टल लेकर घूम रहे हैं। लड़कियों के साथ छेड़खानी और अभद्र व्यवहार करनेवाले अपना वीडियो बनाकर सार्वजनिक करते हैं और सीना ठोक कर घूमते हैं। रिमांड होम वेश्यागृह बन गए हैं।
इन तमाम घटनाओं को सामान्य आपराधिक घटना समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। दरअसल ये घटनाएं सरकार का इकबाल खत्म होने और शासन व्यवस्था पर से लोगों का भरोसा उठ जाने की परिचायक हैं। दोटूक शब्दों में कहें तो राज्य सरकार के शासन करने की इच्छाशक्ति खत्म हो चुकी है। उसकी प्रतिष्ठा खत्म हो रही है। जो काम शासन को खुद करना चाहिए था, जो उसकी ड्यूटी थी, उसे भी वह नहीं कर रहा। नागरिकों को अपनी समस्या लेकर न्यायालय की शरण में जाना पड़ रहा है। गली-नली की सफाई और अतिक्रमण हटाने जैसे रूटीन कार्यों के लिए भी कोर्ट को आदेश देने पड़ रहा है।
मुख्यमंत्री कोई एक हफ्ते से बीमार बताये जा रहे थे, लेकिन आश्चर्य यह कि उनका कोई सहयोगी या पार्टी पदाधिकारी कुशलक्षेम जानने उनके पास नहीं गया। यह कितनी हैरानी की बात है। यह तो सामान्य शिष्टाचार है। उसका भी निर्वहन नहीं हो रहा!
उधर विपक्ष ने मुख्यमंत्री का स्वास्थ्य बुलेटिन जारी करने की मांग कर उनकी बीमारी पर राजनीतिक रंग चढ़ा दिया है। लक्षण अच्छे नही लगते। बिहार एक घुप्प अंधेरे की ओर बढ़ता दिख रहा है। जिस जंगलराज से बमुश्किल यह प्रदेश निकला था, फिर उसी में समाता नजर आ रहा है। क्या आपको नहीं लगता कि हम एक अनिश्चित भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं? अब सिर्फ ऊपरवाले का ही सहारा है।
विनय कुमारः बेगूसराय में सात सितंबर को दिन के उजाले में तीन लोगों की लाठी-डंडे से पीट कर हत्या कर दी गई। भीड़ की इस हिंसा के लिए आजकल एक शब्द माब लिंचिंग प्रचलन में है। सुप्रीम कोर्ट इसको लेकर रोज गाइड लाइन जारी कर रहा है और इसे रोकने के लिए राज्य सरकारों पर दबाव भी है।
इस तालीबानी क्रूरता को सभ्य समाज में सही नहीं ठहराया जा सकता, पर सवाल है कि लोग इतना हिंसक क्यों हो रहे हैं। यहां यह भी नहीं कहा जा सकता है कि लोग कानून को हाथ में ले रहे हैं, क्योंकि किसी की पीट कर हत्या करने की इजाजत कानून को भी नहीं है।
मेरा मानना है कि न्याय व्यवस्था से उठते भरोसे के कारण लोगों में फैसला आन द स्पाट की प्रवृत्ति बढ़ी है। न्यायालय से आदतन अपराधियों को भी जमानत मिल जाने और फैसला आने में सालों की देरी से लोग ऊब चुके हैं।
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बेगूसराय के मामले में ही देखें तो जिन तीन लोगों की हत्या की गई, वे हत्या, रंगदारी और लूट समेत कई मामलों में पूर्व से आरोपित थे। इनमें से एक तो हाल ही में जमानत पर रिहा हुआ था। जब भीड़ को किसी घटना को अंजाम देने के लिए इनके गांव में आ धमकने की सूचना मिली तो उसने यह समझने में वक्त जाया करने की जरूरत नहीं समझी कि तीनों छात्रा का अपहरण करने गांव में घुसे हैं या रंगदारी मांगने। भीड़ ने क्षण भर में फैसला कर लिया कि तीनों समाज के लिए बोझ हैं और इनसे मुक्ति पा लेने में ही भलाई है। तीनों को दम भर कूटने के बाद पुलिस बुलाई गई और तब तक उन्हें उठाकर अस्पताल नहीं ले जाने दिया गया, जब तक उन्होंने दम नहीं तोड़ दिया।
देश की सर्वोच्च अदालत अगर सचमुच इस तालीबानी प्रवृत्ति को रोकना चाहती है तो उसे समाज में छुट्टा घूम रहे आदतन अपराधियों को सलाखों के पीछे कैद करके रखना होगा। देश में सभी को स्वतंत्र रूप से जीने का अधिकार है पर यह अधिकार केवल उन्हीं लोगों को दिया जाना चाहिए जो इसके अधिकारी हैं। वरना कोई भी गाइड लाइन भीड़ को रोक नहीं सकती यह जानते हुए भी कि भीड़ का निर्णय अक्सर गलत ही होता है।
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