- वीर विनोद छाबड़ा
फिल्मी परदे की माँ का जब-जब जिक्र हुआ तो निरूपा राय हमेशा टॉप फाइव में रहीं। उनका मां की भूमिका में तीन बार फिल्मफेयर अवार्ड (मुनीम जी 1956, छाया 1962 और शहनाई 1965) अवार्ड मिलना भी इस तथ्य का सबूत है। जब तक वे मैदान में रहीं सर्वश्रेष्ठ माता का ख़िताब उनसे कोई नहीं छीन सका। लेकिन हैरानी की बात ये है जिस फिल्म की माँ ने उन्हें विश्व स्तर की प्रसिद्धि दी, उसके लिए उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ।
‘मेरे पास मां है’ (दीवार 1975) का ये डायलॉग जब शशि कपूर के मुंह से निकला था तो पर्दे पर सुमित्रा यानी निरूपा राय के मौजूद न होने के बावजूद उनकी मौजूदगी का अहसास हो रहा था। न सिर्फ शशि, बल्कि निरूपा राय भी अमर हो गयीं। फिल्म के सारे किरदार उनके इर्द-गिर्द ही घूमते रहे। उस फिल्म की ‘मदर इंडिया’ थीं वो, जो अपने मुजरिम बेटे को कुर्बान कर देती है, ताकि कानून की सर्वोचत्ता कायम रहे। इस किरदार का ऑफर पहले वैजयंती माला को दिया गया था, यह कह कर कि इससे आपका ज़ोरदार कमबैक होगा। मगर वैजयंती ने इंकार कर दिया और निरूपा राय की चांदी हो गयी। और उन्होंने कतई निराश नहीं किया। दीवार की धुआंधार क़ामयाबी ने उन्हें बतौर मां स्थापित कर दिया। अमर अकबर अंथोनी, सुहाग, इंकलाब, गिरफ्तार, मर्द, गंगा जमुना सरस्वती, लाल बादशाह यानी जहाँ अमिताभ वहां निरूपा राय।
4 जनवरी 1931 को गुजरात के वलसाड़ में जन्मी कोकिला किशोरचंद्रा बलसारा की शादी 15 साल की उम्र में कमल राय के साथ हो गयी थी। दोनों ही थिएटर के शौक़ीन थे। अख़बार में विज्ञापन छपा, गुजराती फिल्म के लिए नए चेहरे चाहिए। इसे देख किस्मत आज़माने कोकिला-कमल बम्बई पहुँच गए। टेस्ट दिया। कमल फेल, लेकिन कोकिला पास हो गयी और ये कोकिला ही निरूपा राय बनीं। कई गुजराती फिल्मों में हीरोइन रहीं। फिर हिंदी फ़िल्मों की तरफ रुख किया। दो दर्जन से अधिक पौराणिक फ़िल्में कीं। कभी सीता, तो कभी सावित्री और कभी पार्वती। उनके शिव रहे त्रिलोक कपूर, पृथ्वीराज कपूर के छोटे भाई। उन्हें कई लोग वास्तव में देवी समझने लगे। दर्शनाभिलाषी घर के बाहर जमा हो जाते थे, आशीर्वाद दो देवी।
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भारतभूषण के साथ उनकी ट्राइलॉजी खूब चर्चित हुईं- कवि कालिदास, सम्राट चंद्रगुप्त और रानी रूपमती। लेकिन ऐसा नहीं कि सोशल फिल्मों से उन्होंने वास्ता नहीं रखा। बिमल रॉय की क्लासिक ‘दो बीघा ज़मीन’ के पार्वती महतो के किरदार को कोई भुला नहीं सकता। इसमें पार्वती अंत में मर जाती है। लेकिन बिमल दा की पत्नी निरूपाराय की दमदार परफॉरमेंस से इतनी अधिक प्रभावित हुईं कि उन्हें पार्वती का मरना बहुत क्रूर लगा। अंत दोबारा शूट हुआ। शंभू महतो (बलराज साहनी) के हाथ ज़मीन हाथ नहीं आयी, लेकिन उसे तसल्ली रही कि पार्वती ज़िंदा रही। बलराज के साथ निरूपाराय की जोड़ी आगे भी खूब जमी। आसरा, घर घर की कहानी, दो रोटी, गरमकोट, प्यार का रिश्ता आदि। इसके अलावा निरूपा राय को कारीगर, तांगेवाली, बेदर्द ज़माना क्या जाने, बेनज़ीर, धर्मपुत्र, हीरा-मोती, गृहस्थी, फूलों की सेज, मुझे जीने दो, राजा और रंक, राम और श्याम, अभिनेत्री, प्यार का मौसम आदि में उम्दा परफॉरमेंस के लिए भी याद किया जाता है।
निरूपा राय के साथ ट्रेजडी ये रही कि भरी जवानी में उन्हें मां बना दिया गया। ‘मुनीम जी’ में उनका बेटा यानी हीरो देवानंद उनसे आठ साल बड़ा था। इससे उनके बतौर हीरोइन कैरियर पर बहुत असर पड़ा। मां या बड़ी बहन या फिर बड़ी भाभी की भूमिकाओं की बाढ़ आ गयी। लेकिन उन्होंने इसे दिल से स्वीकार भी कर लिया। वो धर्मेंद्र की माँ बनीं और उनके बेटे सनी देओल की भी, दो पीढ़ियों की मां। सबसे महँगी माँ होने का गौरव भी मिला।
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अस्सी के सालों में निरूपा राय लगभग गायब सी हो गयीं। कई साल बाद 1999 में वो ‘लाल बादशाह’ में अमिताभ की दत्तक माँ बनीं दिखीं। फिर वो तब दिखीं जब 2003 में फिल्मफेयर ने उन्हें लाइफ़टाईम अचीवमेंट का अवार्ड दिया। मां के किरदार में उन्होंने बहुत दुःख झेले। ‘वीपिंग मदर’ कहलाती थीं वो। असल ज़िंदगी में भी कुछ ऐसा ही हुआ। विदेश में पली-बढ़ी बड़ी बहू उना रॉय ने उन पर दहेज़ और शारीरिक-मानसिक उत्पीड़न की रिपोर्ट पुलिस में दर्ज कराई। दिल का दौरा पड़ने से उनकी 13 अक्टूबर 2004 को मृत्यु हो गयी। निरूपा राय की कई करोड़ की प्रॉपर्टी उनके पति कमल राय को मिली। कमल राय की भी 2015 में मृत्यु हो गयी। बेटों योगेश और किरण में प्रॉपर्टी पर कब्ज़े को ले कर मार-पीट इस हद तक पहुँच गयी कि पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा। अखबारों में ख़बरें छपीं, फ़िल्मी पर्दे पर जिस मां पर गर्व किया जाता था, उसके बच्चे प्रॉपर्टी के लिए आपस में मार-पीट कर रहे हैं।
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