BIHAR : सियासी खीर बन रही या पक रही है खिचड़ी

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  • ओमप्रकाश अश्क

रालोसपा प्रमुख और फिलवक्त केंद्रीय मंत्री उपेंद्र कुशवाहा के खीर वाले बयान के बाद बिहार की राजनीति में घमासान का बीजारोपण हो गया है। खासकर बिहार एनडीए में। उपेंद्र कुशवाहा ने बयान दिया कि यदुवंशियों का दूध, कुशवंशियों का चावल, दलित-पिछड़ों का पंचमेवा और सवर्णों का तुलसी दल मिल जाये तो बड़ी अच्छी और स्वादिष्ट खीर बन सकती है। इस बयान को अपने ट्वीट से आगे बढ़ाया बिहार विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने। उन्होंने कहा कि इस खीर में पौष्टिकता भी होगी। बिहार में दो ध्रुवीय चुनाव की दिशा में इसे शुरुआती कदम के रूप में देखा जा रहा है।

उपेंद्र कुशवाहा के बयान और तेजस्वी के ट्वीट को नयी तरह की खीर पकाने की राजनीति बतौर देखा जा रहा है। इसका सीधा मतलब राजद, रालोसपा और हम का एक मंच पर जुटान की कवायद है। राम विलास पासवान और उनके बेटे भी समय-समय पर कई बार तल्ख तेवर का एहसास कराते रहे हैं। कांग्रेस तो पहले से ही महागठबंधन के साथ है। उपेंद्र कुशवाहा एनडीए में रहते हुए भी समय-समय पर अपनी ही सरकार को कठघरे में खड़ा करते रहे हैं। कभी शिक्षा के सवाल पर तो कभी दूसरी नीतियों को लेकर। नीतीश कुमार से उनकी अदावत तो जगजाहिर है। हालांकि उपेंद्र कुशवाहा ने अगले दिन सफाई दी कि हमने किसी दल विशेष के बारे में कोई बात नहीं कहीं। उनके बयान का आशय सामाजिक समरसता से था, जिसमें यादव, कुशवाहा, दलित-पिछड़े और अगड़ों को साथ लाने की बात थी। और उनकी पार्टी रालोसपा की यह पूरी कवायद एनडीए को मजबूती प्रदान करने के लिए है। एनडीए मजबूत होगा, तभी नरेंद्र मोदी फिर प्रधानमंत्री बनेंगे। लेकिन उनके बयान पर राजद ने जितनी आत्मीयता दिखाई, उससे इतना संकेत तो जरूर मिलता है कि खीर बनाने से पहले सियासत की खिचड़ी पक रही है।

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यह अलग बात है कि कुशवाहा ने एनडीए में बने रहने के लिए सफाई दी, लेकिन राजद के वरिष्ठ नेता रघुवंश प्रसाद सिंह का साफ कहना है कि भाजपा की डूबती नाव पर कोई साथी अब सवारी करना नहीं चाहता। तेलुगु देशम के चंद्रबाबू नायडू ने पहले ही पल्ला झाड़ लिया। शिवसेना ने भी कन्नी काट लिया। राम विलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा भी घुटन महसूस कर रहे हैं। जल्दी ही वे भी किनारे हो जायेंगे। ऐसे में महागठबंधन मजबूत होता। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अल्पेश ठाकौर ने भी कहा है कि कांग्रेस बिहार में गुजरात को दोहराना चाहती है। यानी 2019 के लिए विपक्षी मुहिम रंग दिखाने लगी है।

अब बिहार की राजनीति की सियासी गोलबंदी से इतर इस पूरे प्रकरण को समझने की कोशिश करते हैं। अभी और वर्षों से बिहार में सरकार चला रहे नीतीश कुमार का एजेंडा भले विकास का है, लेकिन जातीय राजनीति के वह भी माहिर खिलाड़ी हैं। अगर माहिर नहीं होते तो अपनी पार्टी की कम सीटों के बावजूद वह मुख्यमंत्री नहीं बन पाते। फिलहाल राजनीति की बदल रही हवा का एहसास उन्हें भी है। देश के मौजूदा माहौल में भाजपा या सीधे कहें तो नरेंद्र मोदी से खफा चल रहे मुसलिमों का वोट नीतीश अब तक इसलिए पाते रहे हैं कि उन्होंने नरेंद्र मोदी का हमेशा विरोध किया। तब भी, जब वह भाजपा के सहारे अपनी सरकार चला रहे थे। बाढ़ राहत के लिए मोदी द्वारा बिहार को भेजे गये पैसे लौटा कर या उन्हें प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित किये जाने पर भाजपा से रिश्ता तोड़ कर। इसका सीधा फायदा उन्हें यह हुआ कि लालू प्रसाद यादव के राजद के पारंपरिक वोट बैंक- एम-वाई में एम को अपने पाले में लाने में वह कामयाब रहे। अब वह नरेंद्र मोदी से गलबहियां डाले हुए हैं। जाहिर है कि मुसलिम वोटर उनसे किनारा करना चाहते हैं। अररिया उपचुनाव में मुसलिम वोटरों ने इसका संकेत भी दे दिया था।

दलित वोट झटकने के लिए उनके टोटके में मुसलिमों के पसमांदा और सवर्ण की तरह दलित और महादलित कार्ड पिछले चुनावों तक कारगर रहे हैं। इस बार भी नीतीश उन्हें साधने में लगे हैं। इसके लिए एसस-एसटी के बच्चों के लिए उन्होंने सरकारी सहायता की झोली खोल दी है। अब सवाल उठता है कि नीतीश कुमार क्या इस बार भी दलित और मुसलिम वोट बटोरने में कामयाब हो पायेंगे।

यह सवाल उठना इसलिए वाजिब है कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह से खार खाये मुसलमान क्या उनके साथ (नरेंद्र मोदी-अमित शाह) गलबहियां डाले नीतीश पर भरोसा करेंगे। खासकर तब, जब पिछले विधानसभा चुनाव में लालू से गठबंधन के बाद नीतीश ने भर पेट इन दोनों को कोस कर मुसलमानों का वोट थोक में हासिल किया था और अब वह उन्हीं के कशीदे पढ़ कर किस मुंह से उनके बीच वोट के लिए जाएंगे। वैसे समय-समय पर अपने बयान और आचरण से नीतीश ने मुसलमानों में अपने प्रति भरोसा जगाने की कोशिश में कोई कोताही नहीं की है। हाल ही में उन्होंने कहा कि क्राइम, कम्युनलिज्म से वह किसी तरह का समझौता नहीं करेंगे। नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी योजना योग दिवस पर कार्यक्रमों में नीतीश न अपने शामिल हुए और न उनके दल का कोई नेता। वह इफ्तार पार्टियों में जरूर जाते रहे और नमाजियों की तरह टोपी भी धारण की, जिसे पहनने से कभी नरेंद्र मोदी ने सीधे मना कर दिया था।

जहां तक दलित वोटों का सवाल है तो यह सभी जानते हैं कि नीतीश अब इनके लिए जितना भी करें, पर इनके वोटों के दो दिग्गज ठेकेदार लोक जनशक्ति पार्टी के रामविलास पासवान और हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा सेक्युलर के जीतन राम मांझी भी अब खुल कर इनके हकदार हैं। मांझी तो अभी राजद से सट कर उपेंद्र कुशवाहा के अंदाजे बयां में पंचमेवा बने हुए हैं। राम विलास के बारे में रघुवंश प्रसाद सिंह ने दावा कर दिया है कि वह भी साथ आयेंगे। हालांकि मांझी ने भी साफ किया है कि कुशवाहा मुख्यमंत्री बनने के लिए लालायित हैं, जबकि महागठबंधन में फिलहाल सीएम पद की कोई वेकेंसी नहीं है। अलबत्ता उन्होंने यह जरूर कहा कि उपेंद्र कुशवाहा महागठबंधन में आते हैं तो उनका स्वागत है, पर उन्हें जल्दी आना होगा। दो नावों की सवारी करना उनके लिए ही घातक होगा।

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गाहे-बगाहे राम विलास पासवान की पार्टी और राजग की घटक लोजपा भी अपने तेवर दिखाती रही है। हाल तक एससी-एसटी ऐक्ट के बहाने लोजपा एनडीए के बड़े घटक दल भाजपा से सीटों के बंटवारे के मुद्दे पर इसी बहाने बारगेन के मूड में थी, लेकिन केंद्र ने उनके मंसूबे पर पानी फेर दिया। उन्हें दलितों से जुड़े इस मुद्दे पर 9 अगस्त को प्रस्तावित भारत बंद के बहाने दलितों में पैठ बनाने की मुहिम में मुंह की खानी पड़ी है। एससी-एसटी ऐक्ट के बहाने वह दो निशाने एक साथ साधना चाहती थी। पहला यह कि उसे उसकी ताकत के आधार पर लोकसभा में अधिक सीटें मिल जायें या पिछली बार से कम तो कत्तई नहीं। लोक जनशक्ति पार्टी से संबद्ध दलित सेना को लोजपा ने अपना टूल बनाया था। लोजपा का एक मकसद इसी बहाने एसटी-एससी वोटरों को गोलबंद करना भी था। लोजपा से जुड़ी दलित सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष और लोजपा सांसद रामचन्द्र पासवान ने केंद्र सरकार से एससी-एसटी ऐक्ट अध्यादेश लाने की मांग की थी। सरकार ने उनकी मांग मान ली।

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लोकसभा का चुनाव देशभर में होना है, लेकिन सर्वाधिक घमासान बिहार में मचा है। कहीं गठबंधन बनाने के लिए पाक-नापाक और मेल-बेमेल कोशिशें हो रही हैं तो कहीं एकला चलो की तैयारी भी दिख रही है। फिलवक्त बिहार में लोकसभा चुनाव के दो ही प्रत्यक्ष ध्रुव- जदयू, भाजपा, लोजपा व रालोसपा को मिला कर राजग और राजद, कांग्रेस, वाम समेत अन्य विपक्षी दलों का महागठबंधन। लेकिन चुनाव तक कौन किस खेमे में रहेगा या जायेगा, इसके संकेत साफ समझे जा सकते हैं।

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विपक्ष यानी महागठबंधन की कोशिश है कि राम विलास पासवान और जीतन राम मांझी को किसी तरह साथ लेकर दलित वोटों का ध्रुवीकरण किया जाये। मुसलिम और यादव वोट तो एनडीए को मिलने से रहे। अगर दलित, मुसलिम, पिछड़ी जातियों के वोट एकजुट हो गये तो भाजपा को 2015 के विधानसभा चुनाव की तरह 2019 में पछाड़ना मुश्किल नहीं होगा। क्योंकि इनकी कुल आबादी लगभग 83 प्रतिशत है। अकेले मुसलिम और यादवों की संख्या ही 30 प्रतिशत है। बिहार का जैसा मिजाज है, उसके हिसाब से यह मान कर चलना होगा कि जाति के सहारे ही 2019 की जंग लड़ी जायेगी।  (साभारः राष्ट्रीय सहारा)

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