पटना। बिहार सीएम नीतीश कुमार को योगी आदित्यनाथ से सीखना चाहिए। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मुहिम रंग लाने लगी है। प्रवास से लौटे मजदूरों के लिए रोजगार की जो मुहिम उन्होंने छेड़ी है, उसका असर अब साफ दिख रहा है। बिहार में अभी तक स्किल पैमिपंग हो रही है, जबकि योगी ने यह काम प्रवासी मजदूरों के आगमन के साथ ही पूरा कर लिया। अब तो कंपनियां उनसे मजदूरों की मांग करने लगी हैं।
जिस वक्त प्रवासियों को लाने का काम शुरू हुआ, उसी वक्त से योगी ने स्किल मैपिंग का अभियान चलाना आरंभ कर दिया। योगी को यह उम्मीद थी कि उत्तर प्रदेश में जितनी औद्योगिक इकाइयां हैं, अगर उनमें ही 10-10 आदमी की गुंजाइश बन जाए तो बड़े पैमाने पर लोगों को रोजगार मिल सकता है। एक सोची समझी रणनीति के तहत उन्होंने ऐसा किया। दरअसल योगी ने हर काम कोविड-19 के दौरान बहुत ही सोच-समझकर किया है।
सबसे पहले तो उन्होंने 11 सदस्यों की एक टीम बनाई, जो कोविड-19 से उत्पन्न स्थितियों का मुकाबला करने के लिए सरकार को सुझाव देती रही है। टीम 11 का ही सुझाव था कि प्रदेश की औद्योगिक इकाइयों में मजदूरों को खपाने की संभावनाएं तलाशी जाएं। दूसरी तरफ प्रवास से लौटे मजदूरों की स्किल मैपिंग का डाटा तैयार करने का काम भी शुरू कर दिया गया। कौन कहां से आया और वहां क्या करता था, इसका पूरो ब्योरा उत्तर प्रदेश सरकार के पास है। ऐसा प्रयास बिहार में नहीं दिखा।
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ताजा सूचना यह है कि अभी तक कई इकाइयों ने 5000 मजदूरों की मांग योगी से की है। यानी अपनी कोशिश में आदित्यनाथ योगी सफल नजर आ रहे हैं। इतना ही नहीं, योगी सरकार की योजना है कि वैसे लोगों की भर्ती अप्रैंटिसशिप में करा दी जाये, जो काम सीखने को इच्छुक हैं। यह सबको पता है कि उत्तर प्रदेश में औद्योगिक इकाइयों की भरमार है। शायद यही वजह है कि योगी ने साफ कहा है कि उत्तर प्रदेश के लोग अब मजदूरी के लिए दूसरे राज्यों में नहीं जाएंगा।
दूसरी ओर बिहार के सीएम अभी तक स्किल मैपिंग की योजना ही बना रही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने अधिकारियों को लगातार निर्देश दे रहे हैं कि प्रवासी मजदूरों की स्किल मैपिंग कराएं और उन्हें उस हिसाब से काम दें। सच यह है कि मनरेगा के अलावा या बिहार के सीएम नीतीश कुमार की महत्वाकांक्षी सात निश्चय योजनाओं में ही लोगों के काम मिलने की गुंजाइश दिख रही है। ऐसा इसलिए कि बिहार में ज्यादातर औद्योगिक इकाइयां बंद पड़ा हैं। तकरीबन दो दर्जन चीनी मिलों में ताले लटके हैं। लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के 15 साल के राज को भले ही नीतीश कुमार और उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी जंगल राज कह कर पलायन के लिए उनके शासन को जिम्मेवार ठहराते रहें, लेकिन सट यह भी है कि तकरीबन उतने ही साल के शासन में नीतीश-सुशील ने कुछ नहीं किया।
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बिहार सरकार इस समस्या से आसानी से उबर सकती थी, लेकिन इच्छाशक्ति का अभाव शुरू से ही रहा। बिहार की बंद पड़ी लगभग दो दर्जन चीनी मिलों को ही चालू करवा देती तो बड़े पैमाने पर श्रमिकों का पुनर्वास हो जाता। साथ ही नगदी फसल के रूप में गन्ने की खेती भी होने लगती। इससे जहां श्रमिकों को रोजगार मिलता, वहीं किसानों की आमदनी का एक स्रोत भी खुलता। कई शराब की फैक्ट्रियां भी बिहार में थीं, जो चीनी मिलों से निकले मोलासिस से अल्कोलहल बनाती थीं। कुछ तो चीनी मिलों की बंदी के साथ स्वतः बंद हो गईं और कुछ नशाबंदी कानून के कारण दम तोड़ गईं।
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सच यह है कि बिहार के सीएम नीतीश कुमार ने ढांचागत क्षेत्र में जितना काम किया, उतना ध्यान उन्होंने राज्य के औद्योगिक विकास पर नहीं दिया। नतीजा यह हुआ कि बिहार से मजदूरों का पलायन जारी रहा और आज वही मजदूर जब लौट रहे हैं, जिनकी संख्या लाखों में बताई जाती है, सरकारी दावा 3000000 का है, तो उनको काम की समस्या पैदा हो रही है। बिहार की जो स्थिति है, उसमें दो-तीन संभावनाएं वैसी दिख रही हैं, जिन पर अगर ठीक ढंग से काम हुआ तो पलायन की स्थिति पैदा नहीं होगी। सबसे पहले पर्यटन के रूप में बिहार को विकसित करना होगा। आंकड़ों के हवाले से नीतीश कुमार भले ही या दावा करते रहें कि शराबबंदी के बावजूद बिहार में पर्यटकों की संख्या बढ़ी है, लेकिन सच यह है कि कोई भी पर्यटक खाने-पीने और मौज मस्ती के लिए ही बाहर निकलता है। यानी अपनी दारूबंदी की नीति पर उन्हें पुनर्विचार करने की जरूरत है।
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सच्चा।ई यह कि बिहार में शराबबंदी का कानून तो जरूर लागू हुआ, लेकिन शराब की सप्लाई यथावत जारी रही। अलबत्ता लोगों की जेब से दोगुना पैसा बाहर और बिचौलियों की जेब में चला गया। दूसरे प्रदेशों ने जिस तरह शराब पर 70-75% अतिरिक्त कर लगाकर बेचने की व्यवस्था की है, अगर बिहार सरकार भी ऐसा करती तो उसे राजस्व का नुकसान नहीं होता। अतिरिक्त राजस्व भी आता। अभी हालत यह है कि बिहार का पैसा हरियाणा, उत्तर प्रदेश और नेपाल चला जाता है और वहां से दारू की सप्लाई जारी है। लोग दोगुने-तिगुने दाम पर खरीद रहे। पीने वाले आज भी पीते हैं।
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पर्यटन के अलावा दूसरा क्षेत्र खाद्य प्रसंस्करण उद्योग है। आम, लीची, केला, मखाना जैसे उत्पाद बिहार में प्ररचुर मात्रा में पैदा होते हैं। उनमें कई तो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हैं। अगर उनके भंडारण-प्रसंस्करण और विपणन (मार्केटिंग) का उपाय कर दिया जाये तो इससे न सिर्फ बिहार का राजस्व बढ़ेगा, बल्कि रोजगार के नए अवसर भी सृजित होंगे। सिल्क नगरी के रूप में विख्यात भागलपुर पर भी ध्यान सरकार ने अब तक नहीं दिया था। अब जाकर बिहार के सीएम नीतीश कुमार कह रहे हैं कि उद्योग को बढ़ावा दिया जाएगा, लेकिन यह ठीक उसी तरह की बात हुई, जैसी आग लगने पर कुआं खोदना। एक और क्षेत्र में काम करने की जरूरत है। पशुपालन, मछली पालन जैसे उपाय हैं, जिनमें ईमानदारी से अगर जुड़े लोगों की मदद की जाए तो रोजगार के लाले नहीं पड़ेंगे, लेकिन इनके उत्पादों के भंडारण-मार्केटिंग की व्यवस्था सरकार को करनी होगी।
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बिहार में रोजगार का बड़ा क्षेत्र चीनी मिलों का है। एक वक्त था कि बिहार में तीन दर्जन से अधिक चीनी मिलें थीं। लोगों को रोजगार तो मिलता ही था, किसानों को नगदी आय भी हो जाती थी। लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता ज्यादातर चीनी मिलें बंद गो गयीं। उन्हें चालू करने की कोशिश न तो लालू प्रसाद के राज में हुई और ठीक उतने ही वर्षों तक राज करने वाले बिहार के सीएम नीतीश कुमार भी उन्हें चालू कराने में असफल रहे। अब जाकर दर्जन भर चीनी मिलों की जमीन सरकार ने अधिग्रहित की है। लेकिन इसका उस रूप में इस्तेमाल नहीं हुआ तो यह कसरत भी बेतार हो जाएगी।
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