- ओमप्रकाश अश्क
पटना। बिहार कोरोना के कारण इन दिनों भारी गुस्से में हैं। लोगों के गुस्से का आलम यह है कि कुछ ही महीने बाद होने वाले चुनाव में नीतीश की खटिया खड़ी हो जाये तो आश्चर्य नहीं। गुस्से की वजह बिहार के मजदूरों और छात्रों का दूसरे राज्यों में फंसा होना बताया जाता है। नीतीश को दोतरफा गुस्से का शिकार होना पड़ रहा है। प्रवासी बिहारिरी और उनके परिजन तो नाराज ही हैं, तालिबी जमात के नाम पर जिस तरह मुसलमानों को लोग अछूत की नजर से देखने लगे हैं, वह भी एक बड़ा कारण है। विपक्ष को कोरोना की महामारी के इस दौर में भी नीतीश के खिलाफ हमलावर होने का अवसर मिल गया है।
लॉक डाउन की परेशानी से आम आदमी ऐसे ही परेशान है। उपर से अपने लोगों के बारे राज्य सरकार की अनदेखी और सत्ता पक्ष के नेताओं के बेढंगे बोल ने लोगों के गुस्से की आग में घी का काम किया है। नीतीश कुमार प्रवासियों को अपने घर लौटने के बजाय जो जहां है, वहीं बने रहे का संदेश दे रहे हैं। उनके उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी कोरोना के बेकाबू होने का ठीकरा विदेशों से लौटे लोगों पर फोड़ रहे हैं। ऐसा कहते समय मोदी यह भूल गये बिहार से बड़े पैमाने पर लोग खाड़ी देशों में रोजगार के लिए गये हैं। बिहार में सबसे ज्यादा पैसा उन्हीं के माद्यम से आता है।
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने अपनी रोडवेज बसें भेज कर राजस्थान में फंसे छात्रों को वापस बुला लिया, लेकिन नीतीश ने ऐसा नहीं किया। ऊपर से उपदेश देते रहे कि सोशल डिसैटंसिंग के लिए जो जहां है, वहीं रहे। बिहार सरकार उनके खाते में हजार रुपये डालेगी। उनकी सहयोगी मंशा पर किसी को शक नहीं हो सकता है, लेकिन यह कितना प्रभावी होगा, इस पर न उन्होंने गौर किया और उनके सलाहकारों ने इस बारे में उन्हें समझाया। सामान्य सी बात है कि कोई मजदूर, जो बेरोजगार हो गया हो, वह इस मनोदशा में होगा ही नहीं कि वह टीवी देखे और बिहार सरकार की सूचनाएं सब तक पहुंच पाये। हां, कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं, जिन्हें देर-सबेर यह सूचना मिली हो और तकनीकी रूप से वे इतने सक्षम हों कि सरकार की वेबसाइट पर जाकर अपने बारे में और एकाउंट के बारे में जानकारी दे सकें। मजदूर का काम करने वालों से तो ऐसी अपेक्षा ही बेमानी है।
यह सबको पता है कि बिहार से रोजगार की तलाश में बड़ी संख्या में लोग दूसरे प्रदेशों में जाते हैं। बिहार से बाहर लाखों लोग इसलिए जाते हैं कि बिहार में रोजगार के अवसर ही उपलब्ध नहीं हैं। बिहार के लोग खाड़ी देशों में भी बड़ी तादात में हैं। वहां से वे खासा रकम बिहार भेजते हैं। लेकिन जब आज संकट के बादल उन प्रवासियों पर छाये हैं तो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार या उनकी सरकार के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने हाथ खड़े कर लिए। यह कहते हुए कि कि अभी हड़बड़ी में बिहार आने की कोई जरूरत नहीं। जो जहां है, वहीं रहे। मदद के नाप भरोसा यह दिया गया कि प्रवासी मजदूरों की मदद के लिए उनके खाते में ₹1000 की सहायता राशि भेजी जाएगी।
अब इस बात की क्या गारंटी है कि इतनी बड़ी आबादी, जो बिहार से बाहर गई है, उन तक बिहार सरकार का यह संदेश पहुंचे। क्या लाक डाउन के दौर में वे अखबार पढ़ने की स्थिति में होंगे। क्या टीवी देखने की मनोदशा में वे होंगे। अगर इतने सक्षम होते तो उनको भाग कर बिहार आने की जरूरत ही नहीं पड़ती। एक तरफ लाक डाउन में दूसरे राज्यों में फंसे लोग परेशान हैं तो दूसरी ओर गांवों में रहने वाले उनके परिजन परेशान हैं।
बाहर कमाने वालों की दोहरी परेशानी है। अव्वल तो रोजगार के लिहाज से बाहर गए लोग ज्यादातर असंगठित क्षेत्र के मजदूर होते हैं। लाक डाउन में काम ठप है तो उनका रोजगार भी बंद। लाक डाउन के कारण बाहर निकलना बंद। खाने-पीने के होटल बंद। इस बात की कल्पना कर ही किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के रोंगटे खड़े हो जाएंगे। ऐसे में नीतीश कुमार की बेरुखी ने सबको गुस्से से भर दिया है। दूसरे राज्य अपने लोगों को वापस बुलाने की व्यवस्था कर रहे हैं। उनके खाने की व्यवस्था कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश इसका ताजा उदाहरण है, जहां मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने 200 एसी बसें भेजकर कोटा (राजस्थान) में पढ़ रहे छात्रों को बुलवा लिया। गुजरात में भी ऐसा हुआ। झारखंड सरकार लगातार अपने लोगों की तलाश कर उनके काने-पीने की हरसंभव व्यवस्था कर रही है। लेकिन बिहार सरकार हजार रुपये के लालीपाप की घोषणा कर खामोश बैठी हुई है।
बिहार सरकार के प्रति आम बिहारियों का गुस्सा इसलिए भी बढ़ा है कि रसूखदारों के लिए उसने ऐसी व्यवस्था की। ताजा उदाहरण नवादा के भाजपा विधायक की बैटी का है। उसे कोटा से वापस लाने के लिए सरकार ने विशेष परमिट जारी किया और विधायक जी उसे लेकर घर आ गये। ऐसे और भी मामले हों तो कोई आश्चर्य नहीं। इसलिए कि यह एक मामला किसी तरह मीडिया के संज्ञान में आ गया और भांडा फूट गया। ऐसे में उन घरों के लोगों के गुस्से की कल्पना की जा सकती है, जिनके बच्चे ऐसे रसूखदार घरों के नहीं हैं। सामान्य घरों के हजारों बच्चे अब ऊ वहां फंसे हुए हैं।
इन वजहों से आम आदमी का गुस्सा तो नीतीश कुमार को झेलना ही पड़ेगा, उन्होंने अपनी ही करनी से विपक्ष को बैठे-बिठाये एक बड़ा मुद्दा दे दिया। कुछ ही महीनों बाद बिहार विधानसभा के चुनाव होने हैं। आरजेडी नेता और पूर्व जिप्टी सीएम तेजस्वी यादव ने जिस तरह ऐसे मुद्दों का उल्लेख करते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को पत्र लिखा है, उसकी मजमून बताते हैं कि नीतीश के अनुभव के आगे उम्र और अनुभव में तकरीबन तिहाई उम्र के उस युवक में नीतीश जैसे लोगों को राह दिखाने की कूबत है। जन अधिकार पार्टी (जाप) के नेता पप्पू यादव ने तो व्यंग्य वाण चला कर नीतीश को यहां तक कह दिया है कि आप इंतजाम करने में अक्षम हैं तो बच्चों को लाने के लिए 50 बसों का इंतजाम हम करेंगे। कांग्रेस भी नीतीश को कोस रही है। वह भी किसी तरह बाहर फंसे बच्चों और मजदूरों को वापस लाने की बात कर रही है।
बिहार में विपक्ष ने चारों तरफ से नीतीश सरकार को घेर ही लिया है, साथ में उन घरों के लोग भी भारी गुस्से में हैं, जिनके लोग बाहर फंसे हैं। आग में घी की तरह उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी का वह बयान काम कर रहा है, जिसमें उन्होंने आरोप लगाया कि बाहर से कमा कर जहाजों से आए बिहार के लोग ही कोरोना बीमारी के फैलने का कारण बने। उनका इशारा खाड़ी देशों में कमाने गए वैसे लोगों की ओर था, जो घर लौटे तो उनमें कई कोरोना संक्रमित पाये गये। यह सबको पता है कि कोरोना की इस बीमारी की केंद्र अपने देश में नहीं, बल्कि चीन और दूसरे मुल्कों में है। हवाई उड़ानों से ट्रैवेल कर यह भारत पहुंची है। चैहे तबलीगी जमात के लोगों विदेशों से आये धर्मगुरु हों या भारत के सामान्य नागरिक। एक साथ सफर अनजाने में साथ ट्रैवेल करने से ही यह संक्रमण हो सकता है। इसलिए सीधे बिहार के विदेश कमाने गये लोगों को इसके लिए जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता।
इस बात की जवाबदेही केंद्र या राज्य की सरकारें अपने ऊपर लेने से बच रही हैं कि बीमारी की शुरुआत दिसंबर में ही चीन में हो चुकी थी तो अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के यात्रियों पर उसकी निगरानी में खोट रही। अगर सरकार इतनी सचेत होती तो एयरपोर्ट पर ही स्क्रीनिंग होती। भारत आये लोगों के रिकार्ड रखे जाते। वैसे भी पास्पोर्ट में सारे ब्यौरे दर्ज रहते हैं और एयरपोर्ट पर उसकी जांच होती है। सही जांच हुई होती तो उसी वक्त ऐसे लोगों की पहचान कर उन्हें क्वारंटाइन किया जा सकता था। केंद्र सरकार ने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। राज्य सरकारें भी सचेत नहीं हुईं।
बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था वैसे भी देश में सब से खराब है। मुकम्मल जांच की व्यवस्था जब तक होती, तब तक कोरोना संक्रमण का फैलाव हो चुका था। मरकज से लौटे लोग भी इसका बड़ा कारण बने। आब जाकर बिहार सरकार ने घर-घर जाकर स्क्रीनिंग कराने की पहल की है। स्क्रीनिंग की कामयाबी भी लोगों की ईमानदारी पर निर्भर करती है। पूछताछ कर लेने मात्र से संक्रमण का पता नहीं चलेगा। बिहार में या बीमारी किस कदर पांव पसार चुकी है, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि अब तक अछूता रहा शाहाबाद अंचल में मरीज मिलने लगे हैं। उत्तर बिहार तो उसका केंद्र ही बन गया है।
इस बीच तबलीगी जमात के बहाने जिस तरह आम मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है, उससे भी जनता की एक बड़ी जमात का गुस्सा राज्य और केंद्र सरकार के प्रति है। बहरहाल बिहार के लोगों का कोरोना के बहाने यह गुस्सा क्या गुल खिलाएगा, अभी तो इस बारे में स्पष्ट कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन विधानसभा चुनाव में इसका इजहार हो जाये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं।
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