BJP नहीं छोड़ेगी बिहार में जीती सीटें, एकला भी चल सकती है

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पटना। बिहार NDA की राजनीति में पिछले कुछ दिनों से चल रहा शीत युद्ध भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की यात्रा के बाद प्रथमदृष्टया भले ही थम गया लगता है, लेकिन सच्चाई कुछ अलग है। भाजपा की इच्छा है कि वह वह कम से कम 450 से 500 सीटों पर अकेले लड़े। जिन राज्यों में भाजपा के साथी दल थोड़ा दमदार हैं, वहां भाजपा थोड़ा समझौता कर सकती है। खासकर बिहार में। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि जदयू द्वारा नीतीश को बिहार में बड़े भाई का जिस अंदाज में दर्जा देने की मांग की जाती रही है, उसका कोई असर भाजपा पर पड़ेगा।

भाजपा बिहार में गठबंधन धर्म का पालन करते हुए सिर्फ इतना ही कर सकती है कि अपनी सीटिंग सीटों में कोई कमी न करते हुए बाकी 18-20 सीटें साथियों के लिए छोड़े। इसमें लोक जनशक्ति पार्ची के नेता राम विलास पासवान को भले पिछली बार जीती गयीं सीटों के बराबर का हिस्सा मिल जाये, लेकिन उपेंद्र कुशवाहा के रालोसपा को तीन-चार सीटों से ज्यादा देने के मूड में भाजपा नहीं दिखती।

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अलबत्ता नीतीश कुमार को भाजपा के साथी दलों में सर्वाधिक सीटें 12 से 14 सीटें देकर भाजपा यह जताने की कोशिश जरूर करेगी कि जदयू को उसने खासा तरजीह दी है। इसलिए कि पिछले चुनाव में जदयू की मात्र दो सीटें ही जीत में बदली थीं। अगर उसकी सीटों की संख्या दो से बढ़ा कर 12-14 हो जाती हैं तो भाजपा यह जरूर साबित करने की कोशिश करेगी कि उसने जदयू की उपेक्षा नहीं की, बल्कि सशक्त सहयोगी के तौर पर उसे औरों से अधिक तरजीह दी है।

भाजपा के बिहार में सहयोगी दल भी ऐसा नहीं कि इस बात को नहीं समझते हैं। यही वजह है कि उपेंद्र कुशवाहा और चिराग पासवान समय-समय पर कुछ ऐसा बोल जाते हैं, जिससे संकेत मिलता है कि बिहार एनडीए में सब कुछ ठीकठाक नहीं है। उनके इन्हीं बयानों और जदयू की ओर से नीतीश को बड़े भाई की मांग उठाना भी इस बात की ओर इशारा करता है कि लोकसभा चुनाव की घोषणा होते-होते बिहार में फिलवक्त दो ध्रुवीय चुनाव की बनी संभावना बिखर सकती है। भाजपा के रणनीतिकार भी बिहार में तीन ध्रुवीय चुनाव की तैयारियों को ध्यान में रख कर चल रहे हैं। हर संसदीय क्षेत्र में भाजपा ने अपनी तैयारी शुरू कर दी है। बूथ स्तर तक पहुंचने की उसकी कोशिश इसी का संकेत है।

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