- मिथिलेश कुमार सिंह
नई दिल्ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आखिर कह ही दिया कि मंदिर के लिए अध्यादेश नहीं आयेगा। कानू के दायरे में ही मंदिर बनाने की कोशिश होगी। वैसे वक्त में प्रधानमंत्री का बयान आया है, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अद्यादेश लाने की बात की और भाजपा के भीतर ही अध्यादेश लाने की जबरदस्त मांग थी। आखिर ऐसा क्या हो गया कि प्रधानमंत्री को इस मुद्दे पर सरकार का दृष्टिकोण स्पषेट करना पड़ा। दरअसल एनडीए के घटक दल लोजपा और हाल तक की साथी रही रालोसपा के नेता पहले से ही कह रहे थे कि मंदिर और मसजिद बनाना सरकार का काम नहीं है। यह मुद्दा एनडीए के एजेंडे में भी नहीं है। हां, यह भाजपा का एजेंडा हो सकता है। नीतीश ने तो अध्यादेश लाने के सवाल पर पर कड़ी आपत्ति ही जता दी थी। भाजपा के भीतर भी दो खेमे बन गये थे। एक खेमा अध्यादेश चाहता था तो दूसरा खामोशी ओढ़े रहा। सारे जोड़-घटाव के बाद भाजपा नेतृत्व का निष्कर्ष यही निकला कि इस मुद्दे पर खमोश रहना उचित है।
सच कहें तो भाजपा को इस बात का एहसास हो गया है कि वह अपने बूते अपनी नैया पार नहीं लगा सकती। उसे हर हाल में साथी दलों के सहयोग की जरूरत है। यही वजह है कि उसने साथी दलों की भावनाओं को तरजीह दी है। प्रधानमंत्री ने साफ कर दिया है कि राम मंदिर पर कानून के मुताबिक ही काम होगा, अध्यादेश लाकर नहीं।
भाजपा अल्पसंख्यक वोटों में सेंध लगाना चाहती है। उसके लिए भी यह हथियार बन सकता है। अल्पसंख्यक वोटों के लिए ही सरकार ने तीन तलाक बिल पेश किया और लोकसभा से पास भी करा लिया। यह अलग बात है कि राज्यसभा में इसका फंसना तय है। वैसे तीन तलाक बिल लोकसभा से पारित होने पर एक भी सकारात्मक प्रतिक्रिया इस समुदाय से देखने-सुनने या पढ़ने को कहीं मिली।
नरेंद्र मोदी या यह कहें कि कि भाजपा की नीति में बदलाव के तीन कारण प्रत्यक्ष कारण दिखते या समझ में आते हैं। पहला- घटक दलों का दबाव और अपने भीतर के लोगों की खेमेबंदी, ये दो कारण हुए। तीसरा बड़ा कारण यह कि भाजपा की सुप्रीम लीडरशिप को यह भनक लग गयी है कि उसकी नैया अपने दम पर पार नहीं हो सकती। साथी ही बेड़ा पार लगाएंगे। साथियों की हनक ऐसी कि नीतीश ने एक बार हड़काया तो सीटें भाजपा के बराबर ले लीं। पासवान घुड़के तो उनकी सारी शर्तें साथ न छोड़ने की शर्त पर भाजपा ने स्वीकार लीं। यानी राष्ट्रीय छवि की भाजपा को अब क्षेत्रीय क्षत्रपों के साथ की जरूरत आ पड़ी है।
भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का नारा शायद सार्थक सिद्ध हो जाये, पर क्षेत्रीय क्षत्रपों की ताकत के वास्तविक आकलन के बाद उनके क्षमता को खारिज करने की स्थिति में भाजपा फिलहाल नहीं दिखती।
भाजपा को अपनी इस स्थिति में आने के कारण तलाशने होंगे। देखें तो इसकी मूल वजह अपने अस्तित्व के बुनियादी मुद्दे- हिंदुत्व से भाजपा का भटकाव है। एससी-एसटी मसले पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने का काम भाजपा कर सकती है, पर आम हिंदू की आस्था से जुड़े राम का मंदिर बनवाने के लिए अध्यादेश तक नहीं ला सकती। इसीलिए कि भाजपा के लिए साथी अब अपरिहार्य हो गये हैं। जदयू की एक घुड़की पर भाजपा ने अपनी जीतीं पांच सीटें छोड़ दीं। नीतीश के हड़काने पर अध्यादेश से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुकर गये।
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राम मंदिर पर प्रधानमंत्री का ताजा बयान भाजपा की सोझी-समझी रणनीति का हिस्सा है। बहुत हद तक संभव है कि संघ भी इससे सहमत हो। इसलिए प्रधानमंत्री के बयान के बाद संघ ने उनका बचाव किया है। संघ के सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले ने कहा है कि हमें प्रधानमंत्री जी का वक्तव्य मंदिर निर्माण की दिशा में सकारात्मक कदम लगता है। प्रधानमंत्री ने अयोध्या में श्रीराम के भव्य मंदिर बनाने के संकल्प का अपने साक्षात्कार में पुनः स्मरण करना यह भाजपा के पालमपुर अधिवेशन(1989) में पारित प्रस्ताव के अनुरूप ही है। इस प्रस्ताव में भाजपा ने कहा था की अयोध्या में राम जन्मभूमि पर भव्य राममंदिर बनाने के लिए परस्पर संवाद से अथवा सुयोग्य क़ानून बनाने (enabling legislation) का प्रयास करेंगे।
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