बिहार में चुनाव से पहले ही हार गयी भाजपा, 5 सीटों का नुकसान

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यह दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगेः अमित शाह का स्वागत करते नीतीश कुमार (फाइल फोटो)
यह दोस्ती हम नहीं तोड़ेंगेः अमित शाह का स्वागत करते नीतीश कुमार (फाइल फोटो)
  • मिथिलेश कुमार सिंह

नयी दिल्ली। लोकसभा का चुनाव देशभर में होना है, लेकिन सर्वाधिक घमासान बिहार में मचा है। एनडीए का नयी तालमेल जदयू, भाजपा और लोजपा के साथ हो गया। इनके बीच सीटों की संख्या बंट गयी। सीटें बंटनी अभी बाकी हैं। माना जा रहा है कि सीटों के बंटवारे के बाद एडीए में एक फिर घमासान मचेगा। इसलिए कि भाजपा ने चुनाव से पहले ही अपनी पराजय स्वीकार कर ली है। पिछले 2014 के चुनाव जिस भाजपा ने 22 सीटों पर जीत दर्ज की थी, वह अब सिर्फ 17 सीटों पर ही तालमेल के मुताबिक चुनाव लड़ेगी। इससे एक बात तो साफ है कि भाजपा खुद न  अपनी कोई लहर देख रही है और न उसे अपनी उपलब्धियों के आधार पर नये जनाधार की उम्मीद ही दिखाई देती है। 2014 लोकसभा चुनाव के पुराने साथियों में लोजपा विजयी भाव में दिख रही है तो नये साथी बन कर जदयू ने भाजपा के आभा मंडल को ढंक दिया है। ऐसी स्थिति में राजद की अगुवाई वाले महागठबंधन की स्थिति सुधरी हुई दिखती है।

एनडीए में सीटों को आकार देने में पिछले छह महीने से कवायद चल रही थी। तब बिहार एनडीए में चार घटक दल- भाजपा के अलावा जदयू, लोजपा और रालोसपा थे। रालोसपा ने अपनी उपेक्षा-अपमान की बात कह कर किनारा कर लिया और महागठबंधन का हिस्सा बन गयी। लोजपा ने मौके-बेमौके आंखें तरेर कर अपनी दो मांगें भाजपा से मनवा लीं। पहले तो एससी-एसटी ऐक्ट पर मुंह बिचका कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को केंद्र की भाजपानीत एनडी सरकार से मनवा लिया। अंत में सीटों के मोल-भाव में नोटबंदी के फायदे पूछ कर अपने हिस्से की छह सीटें तो ले ही लीं, अपने नेता राम विलास पासवान के लिए राज्यसभा की एक सीट भी भाजपा से झटक ली। नीतीश को बड़ा भाई बनाने का राग अलापते जदयू ने भी भाजपा के बराबर सीटें हथिया लीं। भाजपा ने दाता की भूमिका निभाते-निभाते अपनी पांच सीटें गंवा दी। यानी सीधे और सपाट लहजे में कहें तो भाजपा ने चुनाव से पहले ही अपनी हार कबूल कर ली।

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विपक्ष यानी राजदनीत महागठबंधन की बैत करें तो जनाधार के हिसाब से पहली नजर में उसकी मजबूती साफ झलकती है। उसके साथ कांग्रेस है। रालोसपा के सुप्रीमो उपेंद्र कुशवाहा हैं। मल्लाहों के नेता मुकेश सहनी है। दलित नेता के रूप में जीतन राम मांझी और रमई राम हैं। इन सब पर भारी अकेले राजद है, इसलिए कि उसका एमवाई समीकरण फिलहाल उसके साथ दिखता है।

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मुसलिम और यादव वोट तो एनडीए को मिलने से रहे। मुसलिम वोट के हिस्सेदार नीतीश कुमार होते, क्योंकि कई मौकों पर उन्होंने मुसलमानों के मन की बात कही और की है। लेकिन भाजपा की जो मौजूदा छवि बनी है, उसमें नीतीश का मुसलमानों में बना जनाधार बरकरार रह पायेगा, इसमें संदेह है। मुसलमान जानते हैं कि जदयू को लोकसभा चुनाव में समर्थन देना भाजपा को मजबूत करना होगा। इधर कांग्रेस मुसलिम वोटों का पारंपरिक ठेकेदार रही है। यादवों के वोट का राजद छोड़ कहीं और खिसकना कत्तई संभव नहीं दिखता।

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बिहार का जैसा मिजाज है, उसके हिसाब से यह मान कर चलना होगा कि जाति के सहारे ही 2019 की जंग लड़ी जायेगी। अगर ऐसा है तो महागठबंधन के पाले में यादवों के 14 प्रतिशत, मुसलिम के 16 प्रतिशत यानी तकरीबन 30 प्रतिशत वोट तो उसके पक्के हैं। भाजपा सवर्णों के वोटों पर अपना एकाधिकार मानती रही है, लेकिन एससी-एसटी ऐक्ट के कारण इनके 15 प्रतिशत मध्यप्रदेश की तरह नोटा में बदल सकते हैं या गुस्से में कहीं और जा सकते हैं। कोईरी, कुर्मी और अत्यंत पिछड़ा वर्ग के करीब 32 प्रतिशत वोट उपेंद्र कुशवाहा और सत्ता विरोध के कारण बंट सकते हैं। दलित और महादलित के 16 फीसद वोटों में भी बंटवारे की संभावना बन सकती है जीतनराम मांझी व रमई राम के कारण। इसलिए 2009 के भाजपा-जदयू वाले एनडीए की तरह चुनाव परिणाम का गणित संदेह के घेरे में है।

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