वासंतिक मौसम के मद्देनजर खास- निराला : एक याद या विषाद!

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सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला
  • के. विक्रम राव

वसन्त पंचमी मतलब वाणी पुत्र कवि निराला की सालगाँठ। कौन सी थी?  बहस अभी जारी रहेगी। निराला किस सदी के थे? वे तो एक युग के हैं। किन्तु युग के मायने भी एक सीमित काल खण्ड से ही होगा। निराला तो कालजयी हैं। ऐसी हस्ती को एक सदी या एक युग के दायरे में बाँधने की मजाल कौन करें? फिर भी चन्द फितरतियों ने वृथा चर्चा चलवा दी थी। उनकी जन्म तिथि के विवाद पर तो पिछले दशकों में किताबें लिखी गयीं, खोज की गयी, विवरण दिये गये, प्रमाण पेश हुए। क्योंकि वही पण्डिताई दर्शाने की ललक, छपास की छलक? कुल मिलाकर बस कागजी बहस।

असली मुद्दा यह नहीं है कि महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की जन्मतिथि क्या है। इसका जवाब तो अबोध बालिका सरोज ने इठला कर, अपने पिता की जन्मकुण्डली के टुकड़े कर,  दशकों पूर्व दे दिया था। अवधारणा यही रहेगी कि उनकी स्मृति का ही जब कोई अन्त नहीं है, तो फिर उसका आदि कैसा? निराला की जन्मकुण्डली मिल भी जाती तो क्या राजयोग खोजा जाता कि अन्य साहित्यिक सौदागरों की भाँति राज्यसभा की मैम्बरी मिलनी है। या धनयोग तलाशते कि कब कूचा दारागंज से निकलकर समुद्र तट पर उनका एक बंगला बनता न्यारा? यदि ऐसा नहीं तो फिर काहे का यह टण्टा सारा। निराला के जीवन से ही कई सवाल उठते है। जो हमें घेरते है। जवाब माँगते है।

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वर्तमान संदर्भ में वास्तविक तकाजा है निराला के प्रतिमानों पर चर्चा करने का। मसलन मण्डलवादियों के आविर्भाव के कई वर्ष पूर्व ही बैसवाड़ा के इस कनौजिया ब्राह्मण ने लिखा थाः “तोड़कर फेंक दो जनेऊ को, जिसकी आज कोई उपयोगिता नहीं है।” क्रान्तिदृष्टा निराला की परिभाषा में पराधीन राष्ट्र में कोई द्विज या शूद्र नहीं होता। एक ही जात है सबकी, गुलामी वाली। परिवर्तित मंजर में इसके तात्पर्य हुए कि स्वतंत्र राष्ट्र के सभी नागरिक समान हैं, तो जातिगत विभाजन किसलिए? लेकिन कृपया छायावाद में ’मयावाद’ का पुट मत खोजें। याद कीजिए तब कैसे भारत उपनिवेश में ब्रितानी शासन ने साम्राज्यवादी शराब में सरमायेदारी का शबाब घोलकर देसी साहबों का नया वर्ग तैयार किया था। तब निराला ने लिखा था : “खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट, डाल पर इतरा रहा है कैपिटलिस्ट।”

तो जोड़िये इसको वर्तमान संदर्भ में जब नीम, तुलसी, बिकानेरी भुजिया भी बहुराष्ट्रीय मिल्कियत हो गई है। शायद निराला को पूर्वाभास हो गया था कि समाजवादी भी आगे चलकर नव पूँजीवाद के प्रणेता बन जाएँगे : “गुलाम जहाँ थे, उगा कुकुरमुत्ता, माफ करें कुकुरमुत्ता उगाया नहीं जाता।”

गौर करें तो पाएँगे कि नयी उदार अर्थनीति उपजी है। कुछ कुकुरमुत्ते की भाँति। वे प्रासंगिक हैं आज कहीं ज्यादा। बस इसी अभिघा, लक्षणा और व्यंजना द्वारा इन्हें पकड़ना और समझना है। छायावाद की पहली किरमिजी किरण थे निराला। हिन्दी साहित्य के नया सबेरा में नयी काव्यवस्तु के साथ निराला नयी भाषा और नया मुहावरा लेकर आये थे। गत शताब्दी में निराला द्वारा सृजित इन मुहावरों को पुनर्परिभाषित, करने का सन्देश मिला था। यह सन्देश भी नयी कविता में मिला था जो शब्द, न कि भाषा से बनती है। खुद अज्ञेय ने बताया था कि काव्य सर्जना और काव्यात्मक उक्ति का आधार शब्द ही होते हैं। निराला के बारे में अज्ञेय ने लिखा भी था कि अपनी रचना (बेला के नये पत्ते) में नयी काव्यवस्तु के साथ निराला नयी भाषा और नया मुहावरा लेकर आये हैं। सदी के बाद निराला द्वारा सृजित इन मुहावरों को पुनर्परिभाषित, बल्कि नवीनकृत रूप में पेश करना ही एक बेहतर श्रद्धांजलि होगी। ऐसी दिमागी मशक्कत करनी चाहिए, तब ताजगी भी आयेगी भावाभिव्यक्ति में।

अगर ऐसा नहीं होता तो कपास ओटने में सब पड़ जाएँगे, हरि भजन भूलकर। जैसे यह विवाद भी पण्डिताई दर्शाने के लिए उठाया जा सकता है कि निराला का नाम असल में था क्या? तीन नामों से वे जाने जाते थे। सूर्यप्रसाद, फिर सूर्य कुमार और बाद में सूर्यकान्त। कोलकता में बंगभाषी उन्हें सूरजोकुमार कहते थे। खोजबीनों ने कहीं लिख डाला था कि पहली पत्नी के निधन के बाद निराला ने फिर ब्याह रचाया था। यह बिल्कुल बेबुनियाद है। मन्नो (मनोहरा देवी) उनकी एकमात्र पत्नी थीं जिसका निराला जी ने ‘गीतिका’ की भूमिका में उल्लेख किया। महिषादल रियासत के लम्बरदार पण्डित राम सहाय तिवारी की दूसरी पत्नी निराला की माँ थीं। निराला ने लिखा भी कि पिताजी बड़े तन्मय होकर पीटते थे यह भूलकर कि दो पत्नियों से वह इकलौता बेटा मिला है।

बड़ी चर्चा रही कि निराला अत्यन्त विक्षिप्त रहा करते थे। क्या किसी ने कारण खोजे? साइक्रेट्री का तब विकास नहीं हुआ था। ढाई वर्ष की आयु में निराला के सिर पर से माँ का साया उठ गया था। पिता द्वारा पुलिसिया अन्दाज में परवरिश हुई। जीवन संगिनी मन्नो किशोरावस्था में ही बिछुड़ गयीं। उनकी पढ़ाई सिर्फ नवीं तक हुई। समकालीन सम्पादकों के वैमनस्य का शिकार वे रहे। इतने ढेर सारे सबब पर्याप्त नहीं है क्या स्वस्थ से स्वस्थ व्यक्ति को भी व्याकुल तथा अस्थिर बनाने में? नतीजा यह हुआ कि निराला बहुधा स्वगत भाषण के आदी हो गये। आसमान से बातें करते। भले ही भौतिकवादी न मानें, मगर स्वामी शारदानन्द में निराला जी साक्षात हनुमान देखते थे। विभोर हो जाते थे। अनन्त की चाह में लीन हो जाते थे।

उनकी यह मस्तीभरी मानसिकता उनके पत्रकारी दौर में ज्यादा झलकी थी। वे सच्चे मसिजीवी थे। जैसे ’मतवाला’, ’रंगीला’ और ’मौजी’ आदि में दिखता है। स्वामी विवेकानन्द द्वारा स्थापित ‘समन्वय’ से वे ज्यादा दिन तक जुड़े नहीं रह पाये और जब तक रहे तो हुगली तट पर भाँग और संगीत को संगिनी बना कर। दुहरी जिन्दगी कभी नहीं जिये। रचना के शुरू में उनकी प्रवृत्ति जैसी रही वैसी ही आगे भी रही। रचनाकर्म की ईमानदारी ने अवसरवादिता को फटकने नहीं दिया। चूंकि सच्चाई का अनुभव किया था इसीलिए समीकरण कभी नहीं बनाये। समझौता नहीं किया। इसके प्रमाण मिलते हैं उनके पात्रों में। ‘लकुवा’ और ‘महंगू’ के चरित्र में। निराला जी के व्यक्तित्व का अस्तित्व बस इसी पर आधारित था कि आदर्शों के लिए मरना है, और यदि जीना है तो विश्वास के लिए। आश्रय किसी का नहीं खोजा। जरूरत पड़ी तो सहारा बस हथेलियों का लिया।

दो किस्से इस बारे में हुए। तारीख थी 27 जनवरी 1947, बनारस में उनका अभिनन्दन समारोह आयोजित हुआ। हिन्दी साहित्य गगन के कई चमकदार सितारे भी आये थे। निरालाजी को दस हजार रूपये की थैली भेंट की गयी। बाद में खोला तो सिर्फ कोरे कागजों का पुलिन्दा ही  निकला। संयोजकों ने बताया कि एकत्रित सारी राशि समारोह के आयोजन में खर्च हो गयी। अभिनन्दन ग्रन्थ तक नहीं भेंट किया जा सका। ऐसा आलम था हिन्दी जगत का तब। लेकिन वाह रे मस्तमौला निराला ! एक बुढ़िया को देखकर पूरे सौ रूपये दे डाले, इसलिए कि महाकवि निराला की माँ भीख क्यों माँगे? उनके इस फक्कड़ जीवन के कुछ निन्दक भी रहे। मगर वह आलोचना उतनी ही तिरस्कृत रही उनके लिए, जितनी कि बन्द बैठक में सजे गुलदस्ते के फूल द्वारा बाहर बगीचे में झंझावात से जूझते गुलमोहर के लिए।

कुछ खास पहलू हैं महाप्राण निराल जी के जिनका क्रियान्वयन होना चाहिए। पहला, यही कि निराला जी की इच्छा थी कि हिन्दी की कृतियाँ अंग्रेजी में अनूदित हों ताकि लोग जान सकें कि हिन्दी भाषा का भण्डार कितना अकूत है। उन्होंने कहाः “अनुदित साहित्य पढ़कर मजा आ जाएगा। लोगों की आँखे खुल जाएँगी|” लेकिन इस कार्य के लिए हिन्दी भाषियों को उत्कृष्ट अंग्रेजी जाननी होगी। कितने आज इतने सक्षम और निपुण द्विभाषी है? निराला के नाम पर सही, आज इस अभाव की पूर्ति करने होगी।

दूसरा बिन्दु मिलता है निराला के प्रण का कि गुलाम भारत के मुमुर्ष जीन्स में तेज, ओज और निष्ठा भरनी होगी। तब विदेशी राज के खिलाफ ऐसा प्रण लिया गया था। आज नंगे घोटालेबाजों से लबालब हम्माम में कम से कम कोई कोपीन वाला ही मिले तो सही। कोई भलमानस तो आये सामने।

तीसरा पहलू जुड़ा है निराला के निजी जीवन में घटे एक प्रसंग से। बर्तानी हुकूमत ने निराला को एक लाख रूपये (आज के करीब दस करोड़) देने की पेशकश की, ताकि रेडक्रास के लिए वे जिलों में घूमकर कवि सम्मेलन करें और हिन्दुस्तानियों को वारफ्रन्ट वालिन्टियर की तरह तैयार करें। निराला जी ने इस ब्रिटिश प्रस्ताव को ठोकर मार दी। भूसा मण्डी की कोठरी में बसर करना उन्हें ज्यादा पसन्द लगा।

निराला के कुछ समकालीनों के लिए शायद कविकर्म बाद में एक मनीप्लान्ट बन गया क्योंकि वे सभी धारा के साथ बहते चले गये। निराला ने चुनौती पहचानी थी, सामना किया था। वर्ना कांग्रेस प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के वन्दनवारों में निराला का नाम चमकता। डा. नागेन्द्र ने होड़ शब्द का प्रयोग कर, लिखा थाः नेहरू के जीवनकाल में ही मृत्यु के बाद तो और भी अधिक, विभिन्न वर्गों के हिन्दी कवियों ने उनके प्रति अत्यन्त भाव-समृद्ध श्रद्धांजलि अर्पित की|” वरिष्ठ कवियों में सुमित्रानन्दन पंत ने सबसे पहले नेहरू का अभिनन्दन किया। पंतजी की पंक्ति थीः “इस विशालमत जनसमुद्र के भाग्य विधायक” इत्यादि। हाँ निराला ने राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के नायक और गांधीजी के इस अनुयायी के लिए लिखा था, वह था उनका किशोर काल, मैं था सत्रह का, चौबीस के जवाहरलाल|” कुछ यही कारण था कि छायावादी कविद्वय को तो पद्मश्री की उपाधि से कांग्रेस शासन ने अलंकृत किया था। मगर निराला को नहीं। पर फर्क क्या पड़ा? नोबेल पुरस्कार और बर्तानी सरकार द्वारा ’सर’ का खिताब रवीन्द्र नाथ ठाकुर को मिला, शरत बाबू को नहीं। तब भी निराला और शरत बाबू का स्थान इतिहास में अमिट है। हाँ इतना अखरता था कि इलाहाबाद के सांसद (जवाहरलाल नेहरू) ने दारागंजवासी निराला की सुध कम ही ली। क्रान्ति की व्यस्तता के बावजूद लेनिन हमेशा गोर्की को खुद भोजन, कपड़ा पहुँचाते थे। अब नेहरू तो लेनिन बन नहीं सकते थे। रूस में क्रांति से जार को हराकर परिवर्तन आया था। भारत में तो अंग्रेजों ने सत्ता का हस्तान्तरण किया था। बड़ा फर्क पड़ता  है उससे नये शासकों के नजरिये में। उत्तर प्रदेश शासन ने लखनऊ में गोमती पार एक आवास नगर बनाया था निराला के नाम पर, जहाँ पहले कलाकारों को बसाने की योजना थी। अब व्यापारी काबिज हो गये। ज्यादा बदतर रहा कि निराला की मूर्ति जहां लगायी गयी थी वहाँ अतिक्रमण द्वारा पुलिस चौकी बन गयी थी। निराला कैदी हो गये। उधर इलाहाबाद नगर महापालिका ने दारांगज को निरालानगर नाम देने के प्रस्ताव से बखेड़ा खड़ा कर दिया था। भला कवि निराला का उदार मुगल शाहजादा दारा से क्या टकराव? वेद और गीता का अध्येता दारा शिकोह तो अपने अनुज औरंगजेब की इस्लामी कट्टरता का शिकार था। यदि इलाहाबाद नगर अपने इस निराले नागरिक की स्मृति संजोना चाहता है तो असहाय वृद्ध साहित्य सेवियों के लिए रैन बसेरा बनवाये जिसे ’निराला सदन’ नाम दे।

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दिल में बस खौफ़ इसीलिए होता है कि कहीं हमारी याद बस इस कवि का विषाद बनकर न रह जाये। फिर भी हसरत संजोये रहेंगे कि अगर कोई पूछे कि तुम्हारा जीवन कैसा हो, तो हम जवाब दें पाये : ‘निराला’। (फेसबुक वाल से साभार)

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