हरिवंश जी ने जब खुशी-खुशी विदा किया प्रभात खबर से

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हरिवंश, राज्यसभा के उपसभापति
हरिवंश, राज्यसभा के उपसभापति
हरिबंश नारायण सिंह उर्फ पत्रकार से राज्यसभा के उपसभापति कर तक सफर करने वाले हरिवंश जी के बारे में इतना कुछ मित्रों ने लिखा कि कभी सबसे करीब का रिश्ता रहने के बावजूद ओमप्रकाश अश्क ने खुद को जज्ब किये रखा। इसकी वजह पूछने पर अश्क ने बताया कि भीड़ से अलग चेहरे की हिमायत हरिवंश जी करते रहे हैं। खासकर अखबार के संदर्भ में वह अक्सर ऐसा कहते। इसलिए बधाइयों, शुभकामनाओं के जरिये खुद को उनके करीबी होने का दावा करने वालों की भीड़ में उन्होंने अपने को शामिल नहीं किया। नवरात्र की महाअष्टमी के दिन अश्क से हरिवंश जी के बारे में जब पूछा गया तो उन्होंने अपनी प्रस्तावित पुस्तक का एक अंश दे दिया। हालांकि पहले भी इसका विस्तारित अंश दिया जा चुका है, लेकिन हरिवंश पर लिखने-सुनने और उनको जानने की प्रासंगिकता अब भी बनी हुई है। इसलिए पेश है- मुन्ना मास्टर, बने एडिटर का एक अंशः
  • ओमप्रकाश अश्क 

जनवरी 1990 की शायद बात है। मैंने एक अंतरदेशीय खरीदा। उसमें हरिवंश जी को पत्र लिखा। किन-किन पेजों पर काम कर चुका हूं। मैं आपसे अपरिचित हूं, पर आपका नाम काफी सुना है। मेरा बायोडाटा इस प्रकार है।

बायोडाटा में एक मानवीय भूल मुझसे हो गयी थी, जिसका खामियाजा मुझे बाद में किस रूप में भोगना पड़ा, यह आगे आप जान जायेंगे। जून में गांव गया था। गांव से जून के आखिर में वापसी हुई थी। पता नहीं क्यों, उस बार घर से  लौटते वक्त मैं खूब रोया। बड़की माई (चाची) और मां की याद सबसे ज्यादा आ रही थी। पत्नी और बच्चों को छोड़ कर आना तो स्वाभाविक तौर पर कष्टदायक था ही। हफ्ता-दस दिन बीते होंगे। रांची से प्रभात खबर का एक टेलीग्राम मिला।
वह तारीख 3 जुलाई 1990 थी। 4 तारीख को हरिवंश जी ने रांची बुलाया था। मैं बड़ा परेशान था। तब रांची के लिए कोई सीधी ट्रेन नहीं थी। एक साथी की मदद से मैं टेलीफोन बूथ गया और वहां से पहली बार एसटीडी काल हरिवंश जी को
किया। उन्हें अपनी परेशानी बतायी और पहुंचने के लिए वक्त मांगा। यह भी उन्हें बताया कि हाल ही में छुट्टी से लौटा हूं। अब और छुट्टी नहीं मिलेगी। आप आश्वस्त करें तो मैं नौकरी छोड़ कर आ सकता हूं। उन्होंने तनख्वाह पूछी तो बता दिया कि 2375 रुपये मिलते हैं और मुझे 2500 रुपये चाहिए। उन्होंने हामी भर दी और कहा कि हफ्ते भर में आ जाइए। खुशी का कोई ठिकाना नहीं। अपने सूबे में ही लौट रहा था वेतन से बिना कोई समझौता किये।

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सैलरी का चेक मिल गया था। मैंने बुद्धि भिड़ायी और एकाउंटेंट से कहा कि गांव में पैसे की सख्त जरूरत है और चेक कैश होने में तीन-चार दिन लग जायेंगे। इसलिए चेक वापस लेकर मुझे कैश पेमेंट कर दें। वह भला आदमी निकला। कैश मिल गया। फिर पंखे, चौकी, बिछावन मैंने साथियों को सौंपे और रांची के बजाय सीवान के लिए रवाना हो गया। योजना थी कि घर पर यह खुशखबरी देकर रांची निकल जाऊंगा। विदाई भोजन शैलेंद्र जी (पूर्व संपादक, जनसत्ता, कोलकाता
के संपादक) के यहां हुआ।

जीवन में जटिलताएं न आयें तो आनंद की अनुभूति अलभ्य है। मुंह जले को ही तो मट्ठे की ठंडाई का एहसास हो सकता है। जो ठंड में ही रहने का आदी हो, उसके लिए ठंड का का क्या मायने? और अगर ठंड के बाद जलन की पीड़ा झेलनी पड़े तो उसकी हालत का आप अनुमान लगा सकते हैं। हरिवंशजी ने प्रथमदृषटया भले ही मुझे घमंडी समझ लिया था, लेकिन बाद के दिनों में उनकी यह धारणा बदली और वह मेरी शालीनता के कायल हो गये। मैं दफ्तर में शायद ही किसी से घुल-मिल कर बातें करता था। तब अपने काम में मगन रहना ही मुझे ज्यादा श्रेयस्कर लगा। बीच-बीच में हरिवंशजी मुझे अंगरेजी-हिन्दी अखबारों की कतरनें देते और उनसे एक नयी स्टोरी डेवलप करने को कहते। मैं वैसा करने लगा। हरिनारायण जी की कृपा से वैसे पीस बाईलाइन छप जाते। ऐसी बाईलाइन स्टोरी की संख्या जितनी होती, उतने 40 रुपये की कमाई हो जाती। इसका भुगतान वेतन वितरण के पखवाड़े-बीस दिन बाद होता।

मेरे प्रति तबके तीन सीनियर हरिवंशजी, संजीव क्षितिज और हरिनारायणजी का नजरिया काफी बदल गया था। भरोसा इतना कि मुझे संपादकीय लिखनेवालों की टीम में शामिल कर लिया गया। उस टीम में थे- तबके हमारे चीफ सब एडिटर अविनाश ठाकुर थे। सीनियरिटी में य शोनाथ झा (हिन्दुस्तान से अवकाशप्राप्त) अनुज कुमार सिन्हा (संप्रति झारखंड संपादक, प्रभात खबर) मुझसे ऊपर थे। तब अनुज जी सिटी डेस्क के इनचार्ज थे। तब उनका स्वभाव काफी गरम और तुनकमिजाज था। मेरी नियुक्ति भले सब एडिटर के रूप में हुई थी, लेकिन वेतन ट्रेनी सब एडिटर वाला ही मिल रहा था। ट्रेनिंग के लिए जिन लोगों का चयन हुआ था, उनमें संदीप कमल (फिलहाल जागरण, रांची में हैं), विजय पाठक (संप्रति प्रभात खबर, रांची संस्करण के संपादक), जयनंदन शर्मा (अभी प्रभात खबर, जमशेदपुर), दो लड़कियां- एक का नाम शादां नियाजी और एक का नाम नीहारिका और ललित मुर्मू शामिल थे। मैं उन्हीं लोगों के स्केल में था।

रोज सुबह संपादकीय लिखनेवाला व्यक्ति विषय के साथ संजीव क्षितिज से मिलता। विश्लेषण के प्वाइंट्स बताता। कुछ संजीव जी खुद सुझाते और संपादकीय का पीस तैयार होने पर खुद चेक कर ओके करते। शाम को चीफ सब खबरों की प्लानिंग लेकर जाते और संजीव जी के साथ ही पहले पेज की लीड, बाटम और दूसरी खबरें तय होतीं। संजीव जी अक्सर लीड की हेडिंग पूछते। फिर तर्क-वितर्क के बाद शीर्षक तय होता। चीफ सब की गैरहाजिरी में पहले पेज की खबरों के चयन के लिए एक-दो बार मेरा भी उनके पास जाना हुआ। वह पुराने अंक के प्वांइंट साइज के आधार पर हेडिंग सुझाते। चूंकि अक्षर गिन कर हेडिंग लगाने की कला में मैं पारंगत था, इसलिए एकाध बार मैंने टोक दिया कि हेडिंग लटक जायेगी या तीन लाइन की हो जायेगी। इसका वह बुरा नहीं मानते।

वे कहते- जाइए, सोच कर बताता हूं। फिर एक पर्ची लेकर पिउन आता। उसमें लिखा होता- ऐसा करना ठीक रहेगा क्या? जाहिर है कि अब उनकी बात काटने की गुंजाइश भी नहीं होती या सच कहें तो साहस नहीं जुटता। अलबत्ता उनसे एक चीज सीखने को जरूर मिली कि कभी अपना निर्णय किसी साथी पर मत थोपो। सीनियर भी अपनी बात सलाह के तौर पर रखे।

उस वक्त का एक दिलचस्प किस्सा है। हरिनारायण जी छुट्टी पर थे। ईरान-इराक युद्ध की खबर देर रात आयी तो सबकी सहमति से शाम में संजीव जी द्वारा तय लीड हम लोगों ने बदल ली। अति उत्साह में एडिट लिखने वाली टीम के सदस्य अनुज ने अविनाश ठाकुर पर दबाव डाला कि एडिट भी बदल देना चाहिए। तब दो संस्करण छपते थे। डाक में पहला एडिट छप चुका था। अविनाश जी अनिर्णय की स्थिति में थे। उन्होंने मुझे देखा तो मैने कहा कि अखबार में एक ही एडिट होना चाहिए। जो डाक में छप गया है, उसे ही जाने दें। अनुजजी नाक-भौं सिकोड़ने लगे। अविनाश जी ने उनकी बात मान ली। आनन-फानन में उन्होंने एडिट लिखा और सिटी संस्करण में परिवर्तित एडिट छप गया।

दूसरे दिन संजीव जी आये तो लीड बदल लेने के लिए बधाई दी। तब तक उनका ध्यान बदले एडिट पर नहीं गया था। चूंकि कैंटीन में ही चाय-नाश्ता होता था, इसलिए सुबह में 11 बजे तक मैं भी पहुंच चुका था। बधाई मुझे ही पहले मिली। इसी बीच एडिट पेज देखने वाली शादां नियाजी ने सिटी में बदला एडिट देख लिया। वह संजीव जी के पास पहुंची। उन्हें बताया। इस पर वह भड़क गये। मुझे बुला कर पूछा तो मैंने बड़ी ही बेचारगी के साथ सफाई दे डाली। यह कहते हुए कि आप लोगों की नजर में मैं भले ही औरों से ऊपर या अलग हूं, पर मेरा पद इतना छोटा है कि किसी को रोक पाना मेरे वश की बात नहीं। मैंने सलाह दी थी अविनाश जी को, लेकिन अनुज जी की जिद को वह रोक नहीं पाये। मैं तो बच गया, पर अविनाशजी  को क्या-क्या सुनना पड़ा होगा, यह उन्हें मिले शोकाज से मालूम हो गया। अनुज को सजा के तौर पर एडिट लिखने वाली टीम से हटा दिया गया।

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मैं अपनी बदहाली को लेकर हमेशा उदास रहता था। चुपचाप खबरें एडिट करता और खामोशी से पेज बनवाता। संजीव जी के कमरे में जब कभी जाता, वह मेरे और परिवार के बारे में जानकारी हासिल करते। मेरी तनख्वाह वाली गड़बड़ी को लेकर दुखी भी होते। मेरी मनोदशा को शायद सबसे ज्यादा उन्होंने पढ़ा था। मेरे बारे में उनकी चिंता का एक ही उदाहरण काफी है। कलकत्ता से जनसत्ता का संस्करण शुरू हो रहा था। कई अखबारों में विज्ञापन निकला था। मित्रों ने दफ्तर में आने वाले अखबारों से विज्ञापन कुतर लिये थे। उन दिनों जनसत्ता के मुंबई संस्करण में काम करने वाले पंकज जी (उनकी उपाधि मुझे नहीं मालूम, पर इतना जानता हूं कि वह भी प्रभात खबर के शुरुआती दिनों में साथ थे) से देर रात बात हो रही थी। मैंने वैसे ही पूछ लिया कि पंकज जी, क्या जनसत्ता में हम लोगों की नौकरी नहीं लग सकती। उन दिनों जनसत्ता पत्रकारिता की बाइबिल के समान था। उन्होंने कहा, क्यों नहीं? विज्ञापन निकला है, अप्लाई कीजिए। अखबार टटोले तो पता चला कि जिन अखबारों के बीच से कुछ काटा गया है, वह जनसत्ता का ही विज्ञापन था।

बड़ी पसोपेश में पड़ा। किसी से मैं खुला तो था नहीं, इसलिए इस बारे में पूछूं किससे। दूसरे दिन एडिट के सिलसिले में संजीव जी के कमरे में गया। विषय पर बात खत्म हुई तो आम दिनों की तरह संजीव जी ने मेरे बारे में बातचीत शुरू कर दी। मैंने अपनी पीड़ा उनसे साझा की तो उन्होंने कहा कि कहीं और क्यों नहीं कोशिश करते हैं। मैंने कहा कि जनसत्ता में वेकेंसी निकली है, पर उसकी कटिंग नहीं मिल रही। दफ्तर के अखबारों से लोगों ने काट लिया है। इस पर उन्होंने तपाक से कहा कि मेरे घर आता है, मैं ला दूंगा। दूसरे दिन उन्होंने कटिंग ला दी। मैंने आवेदन कर दिया। टेस्ट होना था, पर मुझे समय की सही जानकारी नहीं थी। मैं गांव चला गया था। इसी बीच टेस्ट का टेलीग्राम धुर्वा वाले मेरे चाचा के घर के पते- डीटी 2472- पर पहुंच गया।

संजीव जी को टेस्ट की तिथि मालूम हुई तो वह काफी परेशान हुए। तब मोबाइल का जमाना था नहीं, इसलिए वह मुझे सूचित भी नहीं कर सकते थे। गांव में टेलीफोन तब सोचा भी नहीं जा सकता था। उन्होंने जनसत्ता में तब काम कर रहे और प्रभाष जोशी के करीबी आलोक तोमर से बात की। आलोक जी ने उनको बताया कि पहले टेस्ट में अच्छे लोग नहीं मिले हैं, इसलिए फिर टेस्ट हो सकता है। उनको कहिए कि फिर से आवेदन भेजें और बतायें कि पारिवारिक कारणों से पहले टेस्ट में शामिल नहीं हो पाये थे। मैंने वैसा ही किया। तब प्रभाष जी के पीए रामबाबू होते थे। हफ्ते भर में रामबाबू का टेलीग्राम मिला, जिसमें कलकत्ता में टेस्ट के लिए बुलाया गया था। टेस्ट के लिए छुट्टी कैसे लूं, यह बड़ी समस्या थी। इसलिए कि मैं झूठ बोल कर जाना नहीं चाहता था।

काफी सोच-विचार के बाद मैंने तय किया कि हरिवंश जी को बताऊं। मैं सीधे उनके पास गया और आवेदन करने से लेकर टेस्ट के लिए काल लेटर आने तक की बात बता दी। उस हरिवंश जी को टेस्ट की बात मैंने बतायी, जिनसे एक बार मैं कह चुका था कि टेस्ट देकर नौकरी की मेरी अब उम्र नहीं रही। बहरहाल, उन्होंने खुशी से कहा- जाओ, भगवान करे तुम कामयाब हो जाओ। यह भी पूछा कि कैसे जाओगे। मैंने कहा कि बस से। तब उन्होंने कहा कि बस से थकान होगी, तुम ट्रेन से जाओ। कहो तो मैं टिकट कनफर्म कराने के लिए किसी से कह दूं। मैंने कहा कि नहीं, मैं कर लूंगा। वैसे मैं कलकत्ता बस से ही गया। बस ने सुबह 8 बजे तक कलकत्ता ग्रेट ईस्टर्न होटल के सामने उतार दिया। उसी होटल में टेस्ट होना था।

जिस वक्त मेरी बस कलकत्ता पहुंची थी, उस समय आसापस एक-दो फुटपाथी चाय-नाश्ते की दुकानों के अलवा सब बंद था। होटल के बाहर इस छोर से उस छोर तक चहलकदमी के अलावा कोई काम न था। इसी दौरान मैंने एक आदमी को अपनी ही तरह उतने ही दायरे में टहलते देखा। उस आदमी की उम्र मुझसे थोड़ी ज्यादा थी, पर दाढ़ी मेरी ही तरह थी। मन ही मन मैंने उसमें और अपने में काफी समानता देखी। बाद में जब हम लोगों का इंटरव्यू के बाद सेलेक्शन हुआ तो पता चला कि टेस्ट के दिन मिला आदमी कोई और नहीं, प्रभातरंजन दीन थे। वह पटना से आये थे। तब आज अखबार में काम करते थे। जब साथ काम करने लगे तो अपनी उस अपरिचय की स्थिति में भी आंतरिक परिचय की चर्चा अक्सर हम करते। उनसे नजदीकी दो ही मुलाकातों में इतनी बढ़ गयी कि सेलेक्शन के बाद उसी शाम वह पटना लौट रहे थे तो मैंने अपने सेलेक्शन की सूचना का एक पत्र देवेंद्र मिश्र जी के नाम उनके ही हाथों पठाया था।

टेस्ट देकर उसी शाम मैं रांची के लिए निकल गया था। अगले दिन हरिवंश जी ने पूछा कि टेस्ट कैसा गया। मैंने ठीक कहा और साथ में संशय भी जोड़ा कि पता नहीं, होगा भी या नहीं। तब उन्होंने कहा था कि विश्वास रखो, हो जायेगा। महीने भर बाद ही इंटरव्यू के लिए बुलावा आ गया। इस बीच दिल्ली में प्रभात खबर के विशेष संवाददाता के रूप में नियुक्त कृपाशंकर चौबे जी से फोन पर अक्सर बात होती रहती थी। इंटरव्यू लेटर आने के पहले उन्होंने ही बताया था कि आपका सेलेक्शन हो गया है। तब मुझे यह मालूम नहीं था कि इतनी आंतरिक जानकारी कृपाजी मेरे लिए क्यों जुटा रहे हैं। दरअसल एक टेस्ट दिल्ली में हुआ था, जिसमें वह भी शामिल हुए थे।

जनसत्ता का इंटरव्यू 30 सितंबर 1991 को था। मैंने फिर बस का टिकट कटाया। तब तक मुझे मालूम नहीं था कि प्रभात खबर से इंटरव्यू के लिए किन-किन लोगों को बुलाया गया है। मुझे दो दिनों की छुट्टी लेनी थी। 2 अक्तूबर को अवकाश था। मैं इंटरव्यू का टेलीग्राम लेकर हरिवंश जी के पास पहुंचा। उन्हें इंटरव्यू के बारे में बताया। वह खुश थे। मुझे शुभकामनाएं दीं और कहा कि जाओ, देखो- क्या होता है। वैसे तुम्हारा हो जाना चाहिए। मैंने तो छुट्टी ले ली। इंटरव्यू कलकत्ता के होटल ताज बंगाल में होना था। दूसरे दिन पूछ-पता कर वहां पहुंच गया। वहां जाने पर देखा कि रांची प्रभात खबर से विनय विहारी सिंह, जो उस वक्त चीफ सब एडिटर थे और संडे सप्लीमेंट- रविवार का काम देखते थे, वह भी पहुंचे थे।  रविवार के लिए फ्रीलांस के तौर पर विनय जी के सथ काम करने वाले युवक रंजीव भी थे। परिचितों में फजल इमाम मल्लिक भी थे। मेरा उनसे परिचय गुवाहाटी से था।

सेलेक्शन का लेटर लेकर मुझे बस से रांची लौटना था। बस बाबूघाट से खुलने वाली थी। मुझे वह लोकेशन पता नहीं था। विनय जी और रंजीव शायद ट्रेन से लौटने वाले थे। मैंने विनय जी से आग्रह किया कि मुझे बस स्टैंड तक छोड़ दें। शाम में तीनों एक साथ बस अड्डे के लिए निकले। बाबूघाट जाने के लिए रोड क्रास करना था। दोनों तरफ से वाहनों की भाग-दौड़ मेरे लिए नई बात थी। इसलिए कि महानगर में मैं पहली बार गया था। मुझे लगा कि सड़क पार नहीं कर पाउंगा। फिर सोचा कि सड़क पार करने में इतनी झल्लाहट मुझे इस शहर में हो रही है तो नौकरी कैसे यहां कर पाऊंगा। विनय जी आगे, बीच में मैं और पीछे रंजीव हुए। किसी तरह सड़क पार की। रास्ते में विनयजी और रंजीव की झल्लाहट की बातें भी सुनीं। विनय जी की झल्लाहट इस बात को लेकर थी कि वह प्रभात खबर में चीफ सब एडिटर थे और जनसत्ता में उपसंपादक का पद मिला। पैसे का भी उन्हें ज्यादा लाभ नहीं हुआ था। रंजीव को इस बात की तकलीफ थी  कि उनका सेलेक्शन ट्रेनी के रूप में हुआ था और वह भी खेल रिपोर्टर के तौर पर। उनकी रुचि पालिटिकल बीट में थी। दोनों ने कहा कि वे ज्वाइन नहीं करेंगे। इससे मुझे भी थोड़ी तसल्ली हुई कि इस भीड़भाड़ वाले शहर से तो अपनी रांची भली। भले ही कम पैसे मिल रहे हैं।

2 अक्तूबर को हम रांची लौटे। उस दिन छुट्टी थी। अखबार बंद था या मेरा साप्ताहिक अवकाश था, याद नहीं। यहां यह बताना आवश्यक है कि प्रभाष जी ने जो आफर लेटर दिया था, उसमें सात अक्तूबर तक ज्वाइन कर लेने को कहा गया था। ज्यादा सोच-विचार का वक्त भी नहीं बचा था। तीन अक्तूबर को आफर लेटर लेकर मैं हरिवंश जी से मिला। उन्होंने पूछा कि क्या हुआ तो मैंने आफर लेटर उनको दे दिया। आश्चर्यजनक ढंग से वह दुखी होने के बजाय खुश थे। उन्होंने पूछा कि अब क्या सोचा है? मैंने जवाब दिया- आप से ही पूछ कर टेस्ट और इंटरव्यू में गया था। अब आप ही बताइए कि क्या करना चाहिए।

उन्होंने कहा- पत्रकारिता की मुख्य धारा में शामिल होने का यह मौका है। तुम्हें जाना चाहिए। इसके साथ ही उन्होंने एक टिप्पणीं मेरे बारे में की, जिसे मैं अब तक गांठ बांध कर लिये फिरता हूं। उन्होंने कहा- तुम्हारे आचरण, तुम्हारी वाणी और तुम्हारे लेखन में जो संयम है, वह तुम्हें काफी आगे ले जायेगा। फिर उन्होंने अपने पत्रकारिता जीवन की शुरुआती परेशानियों का जिक्र किया कि मुंबई में मेरी ही तरह उन्हें भी कई परेशानियां झेलनी पड़ी थीं। उन्होंने कहा- तुम्हारे पास समय नहीं है। तुम्हारा प्लान क्या है? जब मैंने बताया कि दो-तीन दिन के लिए गांव जाऊंगा, फिर रांची लौटूंगा और यहीं से कोलकाता के लिए निकलूंगा। इस पर उनका जवाब था- तब तो आज ही तुम इस्तीफा दे दो। मैं हिसाब करवा देता हूं।

इस्तीफा लिखने के लिए मैं बाहर निकला तो पता चला कि विनय जी और रंजीव भी चलने को तैयार हो गये हैं। बहुत खुश हुआ कि अपनों की कंपनी मिल गई। संपादकीय विभाग में हरिनारायण जी बैठे थे। उन्होंने कहा कि आप मत जाइए। हरिवंश जी से कह कर आपकी तनख्वाह तीन हजार करवा देता हूं। वहां भी करीब इतने ही पैसे मिलेंगे। मैंने कहा कि अगर हरिवंश जी चाहें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं। वह हरिवंश जी के पास चले गए और मैं इस्तीफा लिखने बैठ गया। जब निकल कर आये तो मेरा इस्तीफा तैयार था। उन्होंने कहा कि आपको नहीं जाना है। मैंने सोचा कि शायद हरिवंश जी के कहने पर हरिनारायण जी ऐसा कह रहे हैं। मैं इस्तीफा लिये हरिवंश जी के पास चला गया। उन्हें देते हुए यह भी कहा कि आप चाहते हैं तो मैं नहीं जाऊंगा। लेकिन हरिवंश जी का जवाब हरि जी की बातों से से मेल नहीं खाया।

उन्होंने कहा- अभी तुम जाओ, मैं नहीं रोकूंगा, पर इतना वादा करो कि जिस दिन मैं तुम्हें पैसे देने लायक हो जाऊं, उस दिन आने से तुम मना नहीं करोगे। मैंने कहा, आप कहें तो अभी रुक जाता हूं। उन्होंने मुझे जाने दिया। शाम तक मुझे पैसे मिल गये और रात की बस पकड़ कर मैं गांव के लिए निकल गया। हिसाब लेने के वक्त तक मैं हरिनारायण जी से कन्नी काटता रहा। मुझे बस तक छोड़ने संजय सिंह आये थे। ये वही संजय सिंह हैं, जो अभी भास्कर के साथ हैं।

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