नयी दिल्ली। पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव का परिणाम भाजपा के प्रतिकूल आने के बाद कांग्रेस समेत विपक्ष का इतराना स्वाभाविक है। अनुमान लगाया जाता है कि अगर यही ट्रेंड रहा तो भाजपा को लोकसभा चुनाव में भारी नुकसान हो सकता है। भाजपा के पास संभलने का वक्त भी अब नहीं बचा है। यकीनन भाजपा इस मंथन में लगी है कि ऐसे क्या और कौन-से कारण रहे कि उसका अश्वमेध का घोड़ा ठोकर खाकर गिर गया। बताने वाले यह भी कहते हैं कि नोटा के वोटों ने भाजपा को नुकसान पहुंचाया। भाजपा खेमे का तर्क है कि नोटा के वोट उसे मिल गये होते तो उसकी जीत का सिलसिला बरकरार रहता। अगले साल लोकसभा चुनाव के कुछ ही महीने के भीतर झारखंड विधानसभा का चुनाव होना है। इसलिए मौजूदा हालात में लोकसभा के साथ झारखंड विधानसभा का चुनाव भाजपा के लिए चिंतन का विषय हो सकता है।
झारखंड की बात करें तो ऊपर-ऊपर सब्जबाज तो खूब राज्य सरकार दिखा रही, लेकिन अंदर-अंदर लोगों में भारी नाराजगी है। झारखंड में मौजूदा सरकार के खिलाफ नाराजगी तीन स्तर पर है। पहला यह कि रघुवर दास का चेहरा गैर आदिवासी है। दूसरा यह कि भूमि अधग्रहण कानून में संशोधन को विपक्ष बड़ा मुद्दा बनाये हुए है और राज्य के आदिवासियों-मूलवासियों को इसी बहाने साधने की मुहिम में लगा है। तीसरा सबसे बड़ा और खतरनाक कारण भाजपा के भीतर ही सरकार का विरोध है।
भाजपा के आदिवासी नेता भी रघुवर सरकार की नीतियों का विरोध कर रहे हैं। कोई खुल कर तो नहीं बोलता, लेकिन भूमि अधिग्रहण, नौकरियों में बाहरी लोगों की बड़े पैमाने पर नियुक्ति जैसे मुद्दे इनकी नाराजगी का सबसे बड़ा कारण हैं। भाजपा के एक मंत्री सरयू राय अपनी बेबाकी के कारण शुरू से ही सरकार के खिलाफ बोलते रहे हैं। रघुवर दास जिस दिन मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे, उस दिन से लेकर बाद में कई अवसरों पर सरयू राय ने सरकार से अपनी नाराजगी का इजहार किया है। वह पारा शिक्षकों के मुद्दे पर सरकार के खिलाफ अभी मुखर होकर बोल रहे हैं तो इससे पहले माइनिंग के एक प्रस्ताव पर उन्होंने कैबिनेट की बैठक का बायकाट भी कर दिया था।
अब सवाल उठता है कि रघुवर सरकार की इस नाराजगी का लाभ क्या विपक्ष उठा पायेगा। विपक्ष में शिबू सोरेन की पार्टी झारखंड मुक्ति मोरचा, बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोरचा और कांग्रेस के अलावा कुछ और छोटी झारखंड नामधारी पार्टियां हैं। कांग्रेस ने तो हेमंत सोरेन को मुख्यमंत्री बनाये जाने की घोषणा कर दी है। बाबूलाल मरांडी को मलाल है कि जब विपक्षी मोरचा बनना है तो अकेले कांग्रेस कौन होती है किसी को मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करने वाली। हालांकि वह यह भी मानते हैं कि सीएम पद की रेस में वह शामिल नहीं हैं। यानी विपक्षी एका अभी तक परिपक्व नहीं हो पायी है झारखंड में। हालांकि उसके पास भाजपा को किनारे करने का जबरदस्त हथियार है।
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संभव है कि भाजपा नेतृत्व पांच राज्यों की पराजय से अपनी नीतियों-चेहरों में परिवर्तन का कोई रास्ता खोजे। यही वजह है कि सोशल मीडिया पर तरह-तरह की अटकलें चल रही हैं। कोई कह रहा है कि अर्जुन मुंडा को भाजपा मौका दे सकती है। इसलिए कि वह आदिवासी हैं और फिलहाल आदिवासियों में उपजी नाराजगी को उन्हें आगे कर कम किया जा सकता है। कुछ का यह भी मानना है कि सर्वाधिक समझ वाला नेता झारखंड भाजपा में अभी सरयू राय हैं। देखना है कि भाजपा पराजय से सीख लेकर किस तरह के कदम उठाती है।
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