पटना। केंद्रीय मंत्री और राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के नेता उपेंद्र कुशवाहा अपने ही बुने जाल में इस कदर उलझ गये हैं कि उन्हें निकलने का रास्ता ही नहीं सूझ रहा है। अपनी क्षमता से अधिक बात करना उन्हें महंगा पड़ गया है। उन्होंने अपने सम्मान के लिए भाजपा को 30 नवंबर तक का समय दिया है। भाजपा उनकी बात फिलहाल सुनने को तैयार नहीं है। कुशवाहा की नाराजगी या खुशमिजाजी की परवाह भी भाजपा को नहीं है। इसलिए कि उनसे दमदार सहयोगी के रूप में नीतीश कुमार का जदयू उसके साथ है।
उपेंद्र कुशवाहा ने पिछले कुछ दिनों से भाजपा के सामने अपनी पीड़ा-परेशानी रखने के बजाय सार्वजनिक मंचों पर इसका खुलासा करना शुरू कर दिया था। भाजपा के अंदरखाने की मानें तो उनकी पिछली बार की लोकसभा में जीती तीन सीटें इस बार भी सुरक्षित थीं, लेकिन उन्होंने नीतीश कुमार को कमतर आंकने की कोशिश में ऊलजुलूल बयान देने शुरू कर दिये। उनका आचारण भी ऊटपटांग रहा। कभी वह खीर पालिटिक्स पर बात करने लगे तो कभी आरजेडी नेता तेजस्वी से गुफ्तगू करते नजर आये। गिरोहबंदी के चक्कर में वह रामविलास पासवान के पास भी मंडराते रहे।
उनकी सबसे बड़ी पीड़ा यह थी कि जिस नीतीश कुमार ने 2014 में भाजपा की मुखालफत की, उनके साथ भाजपा ने अच्छे रिश्ते बना लिये। जबकि कुशवाहा भाजपा के उन दिनों के साथी थे तो उन्हें कोई तरजीह नहीं दी गयी। नीतीश ने भाजपा के साथ जब सरकार बनायी तो मात्र दो विधायकों वाली रालोसपा को मंत्रिमंडल में कोई जगह नहीं मिली, जबकि रामविलास पासवान ने अपने भाई को मंत्री बनवा लिया। यह पीड़ा उपेंद्र कुशवाहा मन में पकाते रहे और उचित फोरम में इसे उठाने के बजाय, उन्होंने प्रेस कांफ्रेंस में अपनी बात रखनी शुरू कर दी। नीतीश कुमार के खिलाफ एक तरह से उन्होंने मोरचा खोल दिया था।
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इसके बावजूद बहुत कुछ नहीं बिगड़ा था। भाजपा उन्हें न्यूनतम दो और अधिकतम तीन सीटें देने के मूड में थी। इनकी छटपटाहट इतनी बढ़ी कि मध्यप्रदेश में एनडीए का घटक दल होने के नाते उन्हें विधानसभा चुनाव में जहां भाजपा को मदद करनी थी तो उन्होंने अपने प्रत्याशी मैदान में उतार दिये। इसके बाद खटास इतनी बढ़ी कि कुशवाहा दिल्ली में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने का वक्त मांगते रह गये, पर किसी ने उनको घास तक नहीं डाली है।
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अब कुशवाहा की हालत सांप-छछुंदर वाली हो गयी है। उन्हें न उगलते बन रहा है और निगलते। राजद के साथ जाने में भी उनको कोई फायदा नहीं दिख रहा है। भाजपा पूछ नहीं रही है। नीतीश कुमार से उनके तल्ख रिश्ते अब जगजाहिर हो चुके हैं। उनके पास एक ही चारा सुरक्षित बचा है कि वे मन मार कर भाजपा के साथ सटे रहें। भलाई इसी में है। या फिर जोखिम उठा कर राजद के महागठबंधन में जायें, जिसमें दूर-दूर तक उनका कोई स्वार्थ सिद्ध होता फिलहाल तो नहीं दिख रहा।
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