- ध्रुव गुप्त
हिन्दी सिनेमा के पहले महानायक दिलीप कुमार का 98 साल की उम्र में आज अंततः इंतकाल हो गया। पिछले कुछ सालों से वे अस्वस्थ चल रहे थे। उनकी याददाश्त भी बहुत हद तक चली गई थी। उनके जाने के साथ हिंदी सिनेमा के सुनहरे दौर की आखिरी कड़ी भी टूट गई।
पिछली सदी के चौथे दशक में दिलीप कुमार का उदय भारतीय सिनेमा की एक ऐसी घटना है, जिसने हिन्दी सिनेमा की दशा-दिशा ही बदल दी थी। वे पहले अभिनेता थे, जिन्होंने साबित किया कि बगैर शारीरिक हावभाव और संवादों के सिर्फ चेहरे की भंगिमाओं, आंखों और यहां तक कि ख़ामोशी से भी अभिनय किया जा सकता है।
अपनी छह दशक लम्बी अभिनय-यात्रा में उन्होंने अभिनय की जिन ऊंचाईयों और गहराईयों को छुआ वह भारतीय सिनेमा के लिए असाधारण बात थी। उन्हें सत्यजीत राय ने ‘द अल्टीमेट मेथड एक्टर’ की संज्ञा दी थी। हिंदी सिनेमा के तीन महानायकों में जहां राज कपूर को प्रेम के भोलेपन के लिए और देव आनंद को प्रेम की शरारतों के लिए जाना जाता है, दिलीप कुमार के हिस्से में प्रेम की व्यथा आई थी। प्रेम की व्यथा की अभिव्यक्ति का उनका अंदाज़ कुछ ऐसा था कि दर्शकों को उस व्यथा में भी ग्लैमर नज़र आने लगा था। इस अर्थ में दिलीप कुमार पहले ऐसे अभिनेता थे जिन्होंने प्रेम की असफलता की पीड़ा को भी स्वीकार्यता दी। ‘देवदास’ उस पीड़ा का शिखर था।
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भारतीय सिनेमा के इस सबसे बड़े अभिनेता के जाने के बाद सिनेमा ही नहीं, उनकी फिल्मों और उनके अभिनय के विभिन्न आयामों को देखने और महसूस करने वाली पीढ़ी के लोग भी भावनात्मक तौर पर दरिद्र हुए हैं। आपको हम अलविदा नहीं कहेंगे, दिलीप साहब। आपकी फिल्मों में आपकी उपस्थिति हम हमेशा महसूस करते रहेंगे ! खिराज़-ए-अक़ीदत।
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