फटी जीन्स पर उत्तराखंड के मुख्यमंत्री तीरथ का बयान क्या आया, देश में प्रगतिशील बौद्धिक समाज फट पड़ा है। महिलाएं भी पीछे नहीं हैं। सीधे शब्दों में कहें तो फटी जीन्स से वैचारिक समृद्धि क्या सचुमच झलक रही है?
- अनिल भास्कर
क्या वाकई फटी जीन्स आधुनिकता के साथ-साथ प्रगतिशीलता का भी प्रतीक है? क्या यह फ़टी जीन्स आत्मविश्वास और वैचारिक परिष्करण का बोधक है? और क्या इस फ़टी जीन्स पर असहमति या नकारात्मक टिप्पणी बौध्दिक क्षुद्रता, वैचारिक दरिद्रता या दकियानूसी, रूढ़िवादी, कुत्सित मानसिकता का परिचायक है? उत्तराखंड के नए मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत की एक सहज टिप्पणी पर तमाम कथित महिला बुद्धिजीवियों की प्रतिक्रिया से तो यही लगता है। मुमकिन है इन बुद्धिजीवियों को साड़ी जैसे पारंपरिक परिधान, जो हमारी सांस्कृतिक समृद्धि के विशिष्ट अवयव हैं, में पिछड़ेपन या फिर बौद्धिक दासता के अक्स नज़र आते हों।
हमें इससे इनकार नहीं कि परिधान का चयन हम सबका मौलिक अधिकार है। हम क्या पहनें, कैसे पहनें- यह हमारा निजी मामला है, जिसमें दखल उचित नहीं। जब छोटा था तब बड़ों को कई बार यह दोहराते सुना था- “आप रूप भोजन, पर रूप श्रृंगार”। यानी भोजन जो आपको रुचे और श्रृंगार जो औरों को। फ़टी जीन्स की आलोचना पर फट पड़ने वाली महिलाएं शायद इसे गुजरे जमाने का ख़याल, पुरातनपंथी सोच कहकर खारिज़ कर दें। पर, क्या वे इस बात से इनकार कर सकती हैं कि हम आज भी जब कोई परिधान चुनते हैं, पहनते हैं तो मन में बस यही ख़याल रहता है कि सामने वाले को कैसा लगेगा। लेकिन अब अगर सामने वाला नकारात्मक प्रतिक्रिया दे तो उसे स्वीकार करने का न साहस है न संयम।
फटी जीन्स को लेकर तीरथ पर तीर चलाने वालों-वालियों से कहना चाहूंगा कि वे अपने ही घर के बड़े-बूढ़ों से एक बार प्रतिक्रिया ले लें। यह भी पूछना चाहूंगा कि वे अपनी मम्मी, चाची, काकी, मामी, मौसी, ताई में से किसे फ़टी जीन्स में देखना चाहेंगे? अब बात उनकी प्रगतिशीलता की। तो इनमें से कौन हैं, जिन्होंने फटी जीन्स के फैशन का आगाज किया? कोई नहीं। फिर वे इसके पोषक या हिमायती क्यों? सिर्फ इसलिए न कि आजू-बाजू हजारों महिलाएं पहन रही हैं? अब जरा सोचकर बताइए कि क्या इस तरह किसी भेड़चाल में शामिल होना बौद्धिक उन्नयन या प्रगतिशीलता का प्रतीक हो सकता है? पर, अफसोस कि कुछ लोग उस पश्चिमी फैशन में उन्नयन का मार्ग ढूंढ रहे हैं जो खुद भारतीयता पर, भारतीय संस्कृति पर फिदा हुआ जा रहा है।
भला हम यह कैसे भूल सकते हैं कि हमारे परिधान सिर्फ शरीर नहीं ढकते, सिर्फ फैशन का जरिया नहीं होते, बल्कि हमारे व्यक्तित्व का आईना भी होते हैं। हमारे परिधान का प्राथमिक और प्रत्यक्ष प्रभाव सामने वाले पर स्वाभाविक रूप से पड़ता है। इसलिए परिधान चुनने की आज़ादी के बावजूद हम आत्मानुशासन, सामाजिक संज्ञान और उसके प्रभावों की अनदेखी नहीं कर पाते। फिर भी तंग कपड़ों पर पुरुषों की तंग नज़र की दलीलें पेश करने वाली उन तमाम विदुषियों से कहना चाहूंगा कि यदि उनकी असहमति बरक़रार है तो किसी एजेंसी से एक राष्ट्रीय सर्वे ही करा लें कि फ़टी जीन्स से झांकते नंगे बदन को देख कितने प्रतिशत लोगों के मन में श्रद्धा का भाव जागृत होता है? तीरथ सिंह ने पूरी ईमानदारी से स्वीकार किया कि वे ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े, जहां सांस्कृतिक मान्यताओं के पहाड़ ऊंचे हैं, शुचिता और शालीनता के जंगल घने हैं। हो सकता है पश्चिमी सभ्यता उन जंगलों को चीरकर उनके गांव तक न पहुंची हो और उनका अपेक्षित मानसिक अवरोहण न हो सका हो (जैसा कि ये प्रगतिशील महिलाएं मान रही हैं)। पर इतना तो वह भी जानते हैं कि जो फटी जीन्स कभी आर्थिक विपन्नता का परिचायक हुआ करती थी, इस नए दौर में शायद नग्नता की वैचारिक दरिद्रता का प्रतीक बनकर रह गई है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और हिन्दुस्तान, राष्ट्रीय सहारा के संपादक रह चुके हैं)