- कृष्णबिहारी मिश्र
अतीतजीवी होना और अतीत-अभिज्ञता से रिक्त होना दो स्वतंत्र स्थितियं हैं और दोनों स्वतंत्र रूप से गलत हैं। गलत है वर्तमान सवालों से आँख मूंदकर अतीत की माला जपते रहना और सरासर गलत है यह आशंका कि अतीत सम्पदा की ओर प्रवृत्त होते ही हम अंधविश्वासों के जंगल में भटक जायेंगे, रूढ़ियों की वाहिनी हमें घेर लेगी और आधुनिक रोशनी से हम वंचित हो जायेंगे। एक वर्ग है, जो अपने अतिरिक्त जातीय स्वाभिमान के चलते ज्ञान के आधुनिक गवाक्षो को स्पर्श करने से बचता, कूपमंडूकता की साधना में डूबता निरंतर छोटा होता जा रहा है और संकीर्ण होते अपने दायरे से ही संतोष-सुख का अनुभव कर रहा है। एक दूसरा वर्ग है, जो आधुनिकता के आत्यंतिक आग्रह के कारण उस आलोक-पंथा को बलात छोड़ रहा है, जिसका उत्स अतीत में है और जो वर्तमान को गत्वर भविष्य की ओर उन्मुख करने की रोशनी से दीप्त है।
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प्रगतिशीलता का सेहरा बाँधने के लिये अपने घर-आँगन की शोभा-शक्ति से आँख मूंद लेना और दूर के ढोल की मोहक ध्वनि पर थिरकने लगना श्रेयस्कर नहीँ है। यह मनीषा का चरम अवमानना है या यह कहें कि अपनी दीनता-हीनता की धृष्ट विज्ञप्ति है कि अपनी पूरा-परम्परा की उपलब्धि को बिना समझे-बूझे ही हम उसे कोसना शुरू कर दें और रोशनी की तलाश में दुनिया के दरवाजे-दरवाजे दौड़ते फिरें।
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आधुनिकता के अंधड़ ने आज के आदमी को उसके इतिहास से एक हद तक तोड़ दिया है। आधुनिकता बाह्य रूपायन की एक प्रक्रिया के रूप में ही हमारे निकट आयी है,चेतना-सम्वेदना के स्तर पर अभी सहज नहीँ बन सकी है। इसलिए इसका संस्पर्श हमें या तो आत्मकेंद्रित कर रहा है या परोपजीवी बनने को विवश कर रहा है। व्यक्ति-लोक में सिमट कर हम समाधान-सुख का नया भ्रम जी रहे हैं या फिर अपने उद्धार के लिये दूसरे से नुस्खा माँग रहे हैं।
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आज की यह एक दीन दशा है, मगर शोर है कि हम समृद्ध हो रहे हैं, आगे बढ़ रहे हैं क्योंकि मनुष्य की तमाम भौतिक भूख को उसकी यथार्थता में देख-परख रहे हैं, शीर्ष प्राथमिकता के साथ उनका समाधान ढूँढ़ रहे हैं। यानी वैज्ञानिक शक्ति के बल पर मनुष्य की शारीरिक वुभुक्षा के समाधान की राह रची जा रही है, नई रोशनी का उदय हो रहा है। विडम्बना यह है कि आधुनिकता तकनीकी साधनों द्वारा दुनिया के जिन समृद्ध देशों ने भूख को बुझानेवाले साधन जुटा लिये हैं, भौतिक भोग-उपकरणों और समृद्धि को हमेशा-हमेशा के लिये अपने घर में बँद कर लिया है। उस घर का आँगन-सन्त्राष के विषैले धुएँ से भरता जा रहा है और उसके दरवाजे पर चित्त-विश्रांति और मन:शांति के सवाल अस्पृश्य बने खड़े हैं।
(वरिष्ठ निबंधकार कृष्णबिहारी मिश्र के निबंध का एक टुकड़ा)