महिलाएं कुम्हड़ा क्‍यों नहीं काटतीं, क्या आप यह जानते हैं? 

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कुम्हड़ा आमतौौर पर पुरुष ही काटते हैं। साबूत कुम्हड़ा औरतें नहीं कभी नहीं काटतीं। आइए, जानते हैं ऐसा क्यों होता है।
कुम्हड़ा आमतौौर पर पुरुष ही काटते हैं। साबूत कुम्हड़ा औरतें नहीं कभी नहीं काटतीं। आइए, जानते हैं ऐसा क्यों होता है।

कुम्हड़ा आमतौौर पर पुरुष ही काटते हैं। साबूत कुम्हड़ा औरतें नहीं कभी नहीं काटतीं। आइए, जानते हैं ऐसा क्यों होता है।

  • रामधनी द्विवेदी 

इस बार बाजार से सब्जी के साथ हरा कद्दू (कुम्हड़ा) भी आ गया था। लगभग दो किलो का साबूत। इसमें दो दिन सब्‍जी बन जाती। शाम को उसे काटने के पहले दिव्‍या ने कहा- पापा काट देते तो सब्‍जी बना देती। मैंने चाकू से उसे आधा काट दिया। उसने इसी के साथ ही सवाल भी किया कि महिलाएं कद्दू क्‍यों नहीं काटती़।

ऐसा हमेशा से होता आ रहा था कि जब भी पूरा कुम्हड़ा आता, कोई पुरुष ही उसे पहला चाकू मारता और बाद में महिलाएं उसे काटतीं। मेरी मां भी ऐसा ही करती थीं और ऐसा ही अभी तक चल रहा है। मैंने भी एक बार मां से पूछा था कि तुम इसे क्यों नहीं काटती तो उसने जवाब दिया कि कुम्हड़ा बेटा होता है तो उसे कैसे काटा जाए। मैंने पूछा कि तो क्या अन्य सब्जियां बेटी होती हैं, जिन्‍हें कोई भी काट सकता है। वह कोई जवाब नहीं दे सकी। उसका यह जवाब मुझे संतुष्ट नहीं कर सका। कुछ अन्य लोगों से भी पूछा, लेकिन कोई भी उसका सही जवाब नहीं दे पाया। आज यही प्रश्न मेरे सामने था और मेरे पास कोई तार्किक जवाब नहीं था।

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दरअसल भारतीय शाक्त परंपरा में पहले देवी देवताओं को पशुबलि देने की प्रथा थी। यह परंपरा बहुत ही प्राचीन है। ऐसा नहीं कि ऐसा भारत में ही है। कई अन्य देशों में भी पशु बलि की परंपरा है। आज भी अनेक जगहों पर भेड़, बकरा,मुर्गा,और कहीं कहीं भैंसे की बलि देने जी जाती है। इन बलि पशुओं का मांस प्रसाद के रूप में लोग सेवन करते हैं,लेकिन जब जीवों के प्रति करुणा का भाव मानव में पैदा हुआ तो बलि प्रथा बंद करने पर विचार हुआ और विकल्प की तलाश की जाने लगी।

ऐसे में मनुष्य की तरह दिखने वाले पदार्थों की तलाश हुई तो सबसे पहले नारियल सामने आया। नारियल के फल में दो आंखों और नाक जैसी रचना होती है। वास्तव में इन रचनाओं के साथ उसके बीज का जुड़ाव होता है। और यहीं से नारियल उगता है। लेकिन इस तरह की मानवाकृति देख कर उसे बलि फल के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। आज हर मंदिर में खासतौर से शाक्त (देवी) मंदिरों में पूजा के बाद नारियल जरूर तोड़ा जाता है। यह बलि का प्रतीक है। नारियल का पानी और गरी प्रसाद हो जाता है।

इसी तरह सफेद कद्दू (पेठा वाला) को भी देखा गया। इसकी रचना तो किसी जीव की तरह नहीं होती, लेकिन न जाने कब से इसे बलि के रूप में प्रयोग किया जाने लगा। देवी मंदिरों में इसकी बलि देने के पहले इसे सजा कर पूजा की जाती है। मैने एक बार महाकुंभ में इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के संगम क्षेत्र में बंगाल से आए एक मठ के पंडाल में निशा पूजा के दौरान आधी रात को सफेद कद्दू को कपड़े पहनाकर सिंदूर आदि लगा कर पूजा करने के बाद खड्ग से बलि देने की घटना देखी थी। मेरे साथ बेटा भी था, जिसकी उम्र उस समय कम थी और वह यह सब देख कर डर गया।

सब्जी वाले हरे कद्दू को भी सफेद कद्दू का भाई मान लिया गया। इसकी बलि तो नहीं दी जाती, लेकिन यह मान लिया गया कि इसे काटना भी बलि देना ही है। चूंकि बलि आदि देने का काम पुरुष ही करते हैं और महिलाओं को इस क्रूर कर्म को करने की अनुमति नहीं होती, इसलिए सब्जी के लिए कद्दू काटने का काम भी पुरुष ही करते हैं। मुझे लगता है कि पूरे भारत में यह परंपरा है। दक्षिण को तो नहीं कह सकता, लेकिन हिंदी भाषी उत्तर भारत में तो ऐसा ही है। मैंने कई राज्यों में इस परंपरा की बात सुनी है। पहले कोई पुरुष कुम्हड़ा को काटेगा फिर महिलाएं उसे छोटे टुकड़े कर सब्‍जी आदि बनाती हैं। मैं एक बार शनि बाजार में कद्दू खरीद रहा था और वह बड़ा था, जिसे काट कर ही लिया जाता। सब्जी बेचने वाली महिला थी। उसने पहले मुझसे उस पर चाकू चलवाया फिर काट कर दिया। छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में तो इसे बड़ा बेटा ही माना जाता है और आदिवासी महिलाएं इसे काटने की सोच नहीं सकतीं।

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