डॉ. भीमराव अम्बेडकर का ‘बहिष्कृत भारत’ और उनकी पत्रकारिता

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डॉ. अम्बेडकर ने 3 अप्रैल 1927 को मराठी पाक्षिक ‘बहिष्कृत भारत’ निकाला। वह पाक्षिक वर्ष 1929 तक यानी दो साल तक लगातार निकलता रहा।
डॉ. अम्बेडकर ने 3 अप्रैल 1927 को मराठी पाक्षिक ‘बहिष्कृत भारत’ निकाला। वह पाक्षिक वर्ष 1929 तक यानी दो साल तक लगातार निकलता रहा।
  • कृपाशंकर चौबे
बाबा साहब डा. भीमराव अंबेडकर
बाबा साहब डा. भीमराव अंबेडकर

डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने 3 अप्रैल 1927 को मराठी पाक्षिक ‘बहिष्कृत भारत’ निकाला। वह पाक्षिक वर्ष 1929 तक यानी दो साल तक लगातार निकलता रहा। ‘बहिष्कृत भारत’ के  3 अप्रैल,1927 के अंक के अग्रलेख में डॉ. अम्बेडकर ने हिंदू धर्म में ऊंच-नीच के भेदभाव के सवाल को शिद्दत से उठाया था। उन्होंने लिखा था, “छह साल पहले इस लेखक ने ‘मूकनायक’ अखबार शुरू किया था। उस समय राजनीतिक सुधार का कानून अमल में नहीं आया था। उस बात को ध्यान में रखते हुए अखबारों की आवश्यकता के बारे में इस लेखक ने कहा था, “यदि इस देश की मिट्टी में पैदा होनेवाली चीजों की ओर तथा मानव जाति के इतिहासक्रम की ओर दर्शक के रूप में देखा जाए तो यह देश केवल विषमता का उद्गम-स्थल है, यह स्पष्ट रूप से दिखाई देगा। हिन्दू धर्म के लोगों में यह विषमता जितनी बेमिसाल है, उतनी ही वह नफरत करने योग्य भी है क्योंकि विषमता के आधार पर एक-दूसरे से होनेवाले व्यवहार का स्वरूप हिन्दू धर्म के शील को कतई शोभा देने योग्य नहीं है, हिन्दू धर्म में व्याप्त जाति व्यवस्था ऊँच-नीच की भावना से प्रेरित है, यह बात सभी लोग अनुभव करते हैं। हिन्दू समाज एक मीनार है। उसकी एक-एक जाति उसकी मंजिलें हैं। लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि इस मीनार की सीढ़ि‍याँ नहीं हैं। इसलिए एक मंजिल से दूसरी मंजिल पर जाने के लिए यहाँ रास्ता नहीं है। जो जिस मंजिल पर पैदा होता है, वह उसी मंजिल पर मरता है। नीचे की मंजिल का आदमी कितना भी योग्य हो उसे ऊपर की मंजिल पर चढ़ने की इजाजत नहीं है। उसी प्रकार ऊपर की मंजिलवाला आदमी कितना ही अयोग्य हो, उसे नीचे की मंजित पर धकेलने की किसी में हिम्मत नहीं है। अगर साफ शब्दों में कहा जाए तो जाति-जाति में यह जो ऊँच-नीच की भावना है, वह अच्छ बुरे कर्मों पर निर्भर नहीं है। ऊँची जाति में पैदा हुआ आदमी कितना भी कुकर्मी हो, वह ऊँचा ही कहा जाता है। उसी प्रकार नीच जाति में पैदा हुआ आदमी कितना भी ईमानदार हो लेकिन यह नीच ही रहेगा।”

उसी संपादकीय में डॉ. अम्बेडकर ने यह भी कहा था, “दूसरी बात यह कि आपस में रोटी-बेटी का व्यवहार न होने की वजह से हर एक जाति आत्मीयता के सम्बन्धों से रहित है यदि हम नजदीकी सम्बन्धों की बात को दूर रखें तब भी आपस का बाहरी व्यवहार प्रतिबंधरहित हो, ऐसी भी बात नहीं है। मतलब एक जाति के आदमी के स्पर्श से अन्य जाति के लोग अपवित्र हो जाते हैं। इस छुआछूत की वजह से अछूत जाति से अन्य जाति के लोग शायद ही कभी अच्छा व्यवहार करें। रोटी-बेटी व्यवहार के अभाव में यह जो परायापन पैदा हुआ है, उसमें छुआछूत की भावना ने इतनी दूरी पैदा कर दी है कि तमाम अछूत जातियाँ हिन्दू समाज की होने के बावजूद हिन्दू समाज से बाहर लगती हैं, यह कहना गलत नहीं होगा।”

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अछूतों के साथ होनेवाले अन्याय के एक नहीं, अनेक रूप रहे हैं। जैसे सवर्णों द्वारा अछूतों को तालाब-कुएं आदि से पानी न भरने देना। उन्हें मंदिर में प्रवेश न करने देना। डॉ. अम्बेडकर ने तालाब से अछूतों को पानी नहीं भरने देने के संग्राम को धर्म युद्ध की संज्ञा दी थी। उन्होंने ‘बहिष्कृत भारत’ के 22 अप्रैल, 1927 के अंक में ‘महाड का धर्म-संग्राम और ऊँची जाति के हिन्दुओं की जिम्मेदारी’, 6 मई, 1927 के अंक में ‘महाड का धर्म-संग्राम और अंग्रेज सरकार की जिम्मेदारी’ और 20 मई, 1927 के अंक के ‘महाड का धर्म-संग्राम और अछूत वर्ग की जिम्मेदारी’ शीर्षक अग्रलेख लिखे। जहां भी अछूतपन है, उसका डॉ. अम्बेडकर ने डटकर प्रतिरोध किया। डॉ. अम्बेडकर ने उद्देश्यपूर्ण ढंग से अछूतपन की बहस को आगे बढ़ाया। डॉ. अम्बेडकर मानते थे कि ऊंची जातियों का वर्चस्व सांघातिक है, इसीलिए वे चातुर्वर्ण का विरोध करते थे। उन्होंने ‘बहिष्कृत भारत’ के 1 फरवरी 1929 के अंक के ‘समानता के लिए असमानता’ शीर्षक संपादकीय में लिखा था, “एक वर्ग का दूसरे वर्ग पर वर्चस्व रहना यही इस चातुर्वर्ण का रहस्य है।”

हिंदू समाज में जो व्यक्ति जातिभेद और अछूतपन का प्रतिरोध करते थे, उनके प्रति अम्बेडकर आदर रखते थे। जब हिंदू महासभा में रामानंद चटर्जी ने अछूतपन का प्रतिरोध किया तो उस पर बाबा साहेब ने ‘बहिष्कृत भारत’ के 12 अप्रैल 1929 के अंक में हिन्दू महासभा और अछूतपन शीर्षक से टिप्पणी लिखकर उनकी प्रशंसा की। (जारी)

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