बिहार की पॉलिटिक्स पर प्रेमकुमार मणि की बेबाक टिप्पणी

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लोकसभा चुनावों के अब कुछ ही महीने शेष हैं। स्वाभाविक है राजनीतिक चर्चाएं तेज होंगी। हो भी रही हैं। चौक-चौराहों, दफ्तरों से लेकर घरेलू बैठकखानों तक में राजनीति बतियाई जा रही है। बिहार अपनी अतिरिक्त राजनीतिक चेतना के लिए देश भर में बदनाम भी है।  कहते है, यहाँ  की राजनीतिक चेतना पूरे उत्तर भारत को प्रभावित करती है। मुंबई का दलाल स्ट्रीट यदि शेयर मार्किट के उतार- चढ़ाव को दर्शाता है, तो बिहार की  राजनीतिक हलचल और  शिगूफे मुल्क की राजनीति को प्रभावित करते हैं।

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बिहार में पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा गठबंधन को उल्लेखनीय सफलता मिली थी। यहां लोकसभा की 40 सीटें हैं। पिछले चुनाव में भाजपा गठबंधन यानि एनडीए को 31 सीटें मिली थीं। इसमें  भाजपा को अकेले 22, रामविलास के एलजेपी को 6 और उपेंद्र के आरएलएसपी को 3 सीटें थीं। लालू के आरजेडी को 4, कांग्रेस और जेडीयू को दो-दो और एनसीपी को एक सीट मिली थी। नतीजे से दुखी नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से आनन-फानन इस्तीफा दे दिया था। इस इस्तीफे ने दशकों बाद एक दलित को मुख्यमंत्री बनने का अवसर दिया। जीतनराम मांझी बिहार के मख्यमंत्री बने थे।

बिहार की राजनीति अत्यंत संवेदनशील है। नतीजा घोषित होते ही ध्रुवीकरण शुरू हो गया। कुछ ही महीने बाद विधानसभा की रिक्त दस सीटों पर उपचुनाव हुए। इन उपचुनावों में एक दूसरे की राजनीति  के कट्टर विरोधी लालू और नीतीश ने एक दूसरे से  हाथ मिलाया और नतीजतन  भाजपा को एक पटकनी झेलनी पड़ी। दस में से छह सीटें अब भाजपा विरोध में थीं। यह चार महीने के भीतर का परिवर्तन था। 2015 के नवंबर में विधानसभा के चुनाव हुए। भाजपा गठबंधन के खिलाफ राजद, जदयू और कांग्रेस ने एक मोर्चा बनाया, जिसे महागठबंधन कहा गया। इस गठबंधन ने भाजपा गठबंधन को धूल चटा दी। 243 सीटों वाली विधानसभा में गठबंधन 178 और एनडीए 58 पर थी। दोनों के बीच 120 सीटों और 7 .6 फीसद वोटों का अंतर था। महागठबंधन को 41 .7 फीसद वोट मिले थे।

महागठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी आरजेडी थी, जिसे 80 सीटें मिली थी। जेडीयू को 71 और  कांग्रेस को 27 सीटें मिली थीं। आरजेडी, जेडीयू ने 101 -101 और कांग्रेस ने 41 पर चुनाव लड़े थे। भाजपा 160 सीटों पर लड़कर 53 सीटें, रामविलास 40 पर लड़कर केवल 02 , उपेंद्र 23 पर लड़कर 02 और मांझी 20 पर लड़कर 01  सीट ला सके थे।

बड़ी पार्टी होते हुए भी आरजेडी ने जेडीयू नेता नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार किया। आरजेडी और कांग्रेस सरकार में शामिल हुई। बीस महीने तक यह सरकार  चली। 26 जुलाई 2017 को एक नाटकीय राजनीतिक परिवर्तन हुआ। नीतीश कुमार ने अपने सहयोगी दल आरजेडी विधायक दल के नेता और उपमुख्यमंत्री  तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के आरोपों के मद्देनज़र मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया, लेकिन अगले ही घंटे वह अपने विरोधी, जिसके खिलाफ जनादेश लेकर वह विधानसभा में आये थे, से हाथ मिला लिया। भाजपा की राजनीतिक छत्रछाया में नीतीश फिर मुख्यमंत्री हो गए।

राजनीति में कुछ भी संभव है। लेकिन नीतीश कुमार की इस राजनीतिक अस्थिरता को नागरिकों ने अच्छा नहीं माना। उनकी छवि अबतक साफ़-सुथरी थी। एक  झटके में इस घटना ने उस पर एक बड़ा प्रश्नचिन्ह लगा दिया। यदि उनने भाजपा से हाथ न मिलाया होता और इस्तीफा देकर बैठ गए होते तो उनकी नैतिकता  के समक्ष संभवतः आरजेडी को भी झुकना पड़ता। नीतीश का नैतिक कद बहुत ऊँचा हो जाता। लेकिन भाजपा की राजनीतिक गोद में जाते ही उनकी किरकिरी हो गयी। नैतिकता का अभाव तो अब उनके पास था। उन्होंने अपने मतदाताओं को धोखा दिया था। यदि वोट को वह जाति-परस्त कबायली न मानकर राजनीतिक रुझान का मानते हैं, तब उनकी पार्टी, जो महागठबंधन की भागीदार थी, को  प्राप्त वोट भाजपा विरोधी था और सरकार बनाने के लिए था। ऐसे में  उनकी पार्टी के विधायकों को तटस्थ रहने की भी नैतिक छूट नहीं थी। भाजपा के साथ जाना तो एक अलग ही सवाल है।

राजनीति का मतलब सत्ता हथियाना  ही नहीं होता। नैतिकता और आदर्शों के लिए अनेक लोगों ने सत्ता का त्याग किया है; और वे जनता के आदर्श बने  हैं। नीतीश कुमार इस आदर्श के करीब पहुँच कर भाग आये, यह उनके व्यक्तित्व के लिए ही  दुखद हुआ। इसके उलट उन्होंने जो किया, वह प्रथमदृष्टया  ही राजनीतिक भ्रष्टाचरण था। दुर्भाग्य से भारत का कुलीन प्रेस अपनी सुविधा केलिए केवल आर्थिक भ्रष्टाचरण को ही अनैतिक मानता है।

भाजपा के साथ वाली नीतीश सरकार को अर्बन द्विज तबके के बड़े हिस्से का समर्थन मिला। यह तबका कट्टर जातिवादी भी था। राजनीतिक रूप से भाजपा समर्थक। प्रांतीय स्तर पर सत्ता से दूर हो चुका था। इसकी किस्मत का छींका फूटा। जिन्हें जनता ने सत्ता से भगाया था, उसे नीतीश की राजनीति ने सत्ता के केंद्र में ला दिया। यह उनकी स्पष्टतया जीत थी। इसका जश्न उन्होंने जम कर मनाया।

लेकिन महीना भी नहीं हुआ था कि भागलपुर से सैकड़ों करोड़ के सृजन घोटाले  का मामला ‘प्रकट’ हुआ। यह घोटाला चारा-घोटाले से कहीं बड़ा था। थोड़ी किरकिरी हुई। लेकिन खलनायक बनाने केलिए कोई लालू प्रसाद नहीं था। नीतीश कुमार खलनायक कैसे बन सकते थे। मामले की लीपापोती हो गयी। अब तो उसकी चर्चा भी नहीं होती। उसके बाद कई तरह की वित्तीय अनिमितताओं की खबरें आईं और गईं। यह स्पष्ट हो चुका था, घोटालों के पर्दाफाश नीतीश सरकार का कुछ नहीं बिगाड़ सकते। आखिर में मुजफ्फरपुर का लोमहर्षक बवाल! मीडिया इन्हें भी पचा गया।

लेकिन मीडिया पर लगाम लगाकर जब इंदिरा गाँधी कामयाब नहीं हुईं, तब इन पाबंदियों का क्या मतलब है। पुराने जमाने से जनता का कानोकान मीडिया चलता रहा है, जिसका कोई जवाब नहीं है। आज बिहार की राजनीति समझनी हो तो स्थापित अख़बारों को किनारे कीजिए और इस मीडिया के संपर्क में आइये। राजनीति किस करवट है, यहीं से जानकारी मिलेगी। (फेसबुक वाल से साभार- क्रमशः)

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