रांची। झारखंड के दो बार मुख्यमंत्री रह चुके अर्जुन मुंडा अपनी ही पार्टी में लगातार उपेक्षित रहने से ऊब चुके हैं। उनकी ऊब का फायदा विपक्षी दल उठाने की फिराक में हैं। कांग्रेस कुछ ज्यादा ही डोरे डाल रही है। मुंडा के करीबी बताते हैं कि उनकी घुटन पार्टी में इतनी बढ़ गयी है कि अनुकूल स्थिति आते ही वह बीजेपी को बाय बोलने से तनिक भी परहेज नहीं करेंगे।
2014 के विधानसभा चुनाव में अर्जुन मुंडा खरसांवा सीट से चुनाव हार गये थे। चुनाव परिणाम आने तक किसी को तनिक भी भनक नहीं थी कि उनकी स्थिति हारने की है। तब यह चर्चा भी आम थी कि अर्जुन मुंडा और जेबी तुबिद चुनाव हारे नहीं, बल्कि भाजपा की अंदरूनी साजिश के वे शिकार हो गये। भाजपा ने झारखंड गठन के बाद आदिवासी मुख्यमंत्रियों को आजमा लिया था। झारखंड की सूरत बदलने के बजाय 14 सालों में और बिगड़ी। इसलिए गैर आदिवासी मुख्यमंत्री बनाने की बात भाजपा के शीर्ष नेतृत्व के मन में थी। इसके लिए जरूरी था कि मुख्यमंत्री पद के दावेदार कद्दावर आदिवासी भाजपा नेताओं को किनारे कर दिया जाये। आरोप यह लगा कि इसी क्रम में जेबी तुबिद और अर्जुन मुंडा को भाजपा के लोगों ने ही हराया।
तब गैर आदिवासी मुख्यमंत्री के लिए दो नाम उछाले गये- सरयू राय और गणेश मिश्रा। लेकिन अंततः रघुवर दास ने खुशनसीब साबित हुए। मुख्यमंत्री की गद्दी गैर आदिवासी के नाम पर उन्हें मिल गयी। इसके बाद अर्जुन मुंडा पार्टी में लगातार उपेक्षा का दंश झेलते रहे। कभी उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष के कार्यक्रम में मंच पर जगह नहीं मिली तो कभी नीचे बैठने पर नाम पुकार कर उन्हें मंच पर बुलाया गया।
अर्जुन मुंडा अपनी उपेक्षा से इस दौरान खीझ में भी रहे। आदिवासी सवालों पर उनकी खीझ दबी जुबान बाहर भी आती रही। चाहे भूमि अधिग्रहण कानून का मुद्दा हो या सीएनटी-एसपीटी का सवाल, उनके स्वर में सरकार के प्रति खीझ जरूर झलकती थी। अलबत्ता सरयू राय की तरह वे ज्यादा मुखर नहीं हुए। सरकार में रह कर भी सरयू राय ने कई सरकारी फैसलों पर आपत्ति खुल कर जतायी।
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सूचना है कि झारखंड में कांग्रेस को संभाल रहे अजय कुमार की उनसे कई मुलाकातें हो चुकी हैं। कांग्रेस से अर्जुन मुंडा की नजदीकी इसलिए भी किसी नतीजे पर पहुंचने के लिए विवश करती है कि झारखंड मुक्ति मोर्चा में हेमंत सोरेन के रहते सीएम पद की कोई वैकेंसी नहीं दिखती। झारखंड विकास मोर्चा में तो उनकी इसलिए नहीं बन सकती कि उसके सुप्रीमो बाबूलाल मरांडी हमेशा ही उनसे खार खाये रहते हैं। कांग्रेस ही एक ऐसी पार्टी है, जिसमें कोई कद्दावर आदिवासी नेता नहीं है। झारखंड में कांग्रेस का अब भी थोड़ा जनाधार बचा है। सूत्र बताते हैं कि लोकसभा चुनाव तक अगर हालात नहीं बदले तो अर्जुन मुंडा कोई भी फैसला ले सकते हैं।