- सुरेंद्र किशोर
चीन ने सोवियत संघ की सहमति के बाद ही 1962 में भारत पर हमला किया था। अगर जवाहरलाल नेहरू लंबी जिंदगी जीते तो भारत की विदेश नीति ही बदल जाती। चीन और सोवियत संघ से झटके खाने के बाद यदि प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू कुछ अधिक दिनों तक जीवित रहते तो वे संभवतः भारत की विदेश नीति को पूरी तरह बदल देते। उसका असर घरेलू नीतियों पर भी पड़ सकता था।
चीन के हाथों भारत की शर्मनाक पराजय के दिनों के कुछ दस्तावेजों से यह साफ है कि नेहरू के साथ न सिर्फ चीन ने धोखा किया, बल्कि सोवियत संघ ने भी मित्रवत व्यवहार नहीं किया। याद रहे कि जवाहरलाल नेहरू उन थोड़े से उदार नेताओं में शामिल थे, जो समय-समय पर अपनी गलतियों को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करते रहे। कांग्रेस पार्टी के भीतर भी कई बार वे अपने सहकर्मियों की राय के सामने झुके। 1950 में नेहरू ने पहले तो राज गोपालाचारी को राष्ट्रपति बनाने की जिद की। पर, जब उन्होंने देखा कि उनके नाम पर पार्टी के भीतर आम सहमति नहीं बन रही है तो नेहरू बेमन से राजेंद्र बाबू (राजेंद्र प्रसाद) के नाम पर राजी हो गए। ऐसा कुछ अन्य अवसरों पर भी हुआ था।
उन्होंने समाजवादी व प्रगतिशील देश होने के कारण चीन और सोवियत संघ पर पहले तो पूरा भरोसा किया। पर, जब उन लोगों ने धोखा दिया तो नेहरू टूट गए। उन्होंने अपनी पुरानी लाइन के खिलाफ जाकर अमेरिका की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया। अमेरिका के भय से ही तब चीन ने हमला बंद कर दिया था। यह आम धारणा है कि 1962 में सोवियत संघ ने कहा कि ‘‘दोस्त भारत’ और ‘भाई चीन’ के बीच के युद्ध में हम हस्तक्षेप नहीं करेंगे।’’
पर, मशहूर राजनीतिक टिप्पणीकार व कई पुस्तकों के लेखक ए.जी. नूरानी ने साप्ताहिक पत्रिका ‘‘इलेस्ट्रेटेड वीकली आफ इंडिया’’ के 8 मार्च, 1987 के अंक में लंबा लेख लिख कर यह साबित कर दिया कि सोवियत संघ की सहमति के बाद ही चीन ने 1962 में भारत पर चढ़ाई की थी। उस लेख में नूरानी ने सोवियत अखबार ‘प्रावदा’ और चीनी अखबार ‘पीपुल्स डेली’ में 1962 में छपे संपादकीय को सबूत के रूप में पेश किया है।
उससे पहले खुद तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू वास्तविकता से परिचित हो चुके थे। इसीलिए उन्होंने अमेरिका के साथ के अपने ठंडे रिश्ते को भुलाकर राष्ट्रपति जान एफ. कैनेडी को मदद के लिए लगातार कई ‘‘त्राहिमाम संदेश’’ भेजे। उससे कुछ समय पहले कैनेडी से नेहरू की एक मुलाकात के बारे में खुद कैनेडी ने कहा था कि ‘नेहरू का व्यवहार काफी ठंडा रहा।’
चीन ने 20 अक्तूबर, 1962 को भारत पर हमला किया था। हमारी सैन्य तैयारी लचर थी। हम ‘पंचशील’ के मोहजाल में जो फंसे थे! नतीजतन चीन हमारी जमीन पर कब्जा करते हुए आगे बढ़ रहा था। उन दिनों बी.के. नेहरू अमेरिका में भारत के राजदूत थे। नेहरू का कैनेडी के नाम त्राहिमाम संदेश इतना दयनीय और समर्पणकारी था कि नेहरू के रिश्तेदार बी.के. नेहरू कुछ क्षणों के लिए इस दुविधा में पड़ गए कि इस पत्र को व्हाइट हाउस तक पहुंचाया जाए या नहीं। पर, खुद को सरकारी सेवक मान कर उन्होंने वह काम बेमन से कर दिया।
दरअसल उस पत्र में अपनाया गया रुख उससे ठीक पहले के नेहरू के अमेरिका के प्रति विचारों से विपरीत था। लगा कि इस पत्र के साथ नेहरू अपनी गलत विदेश नीति और घरेलू नीतियों को बदल देने की भूमिका तैयार कर रहे थे। शायद नयी पीढ़ी को मालूम न हो, इस देश की कम्युनिस्ट पार्टी इस सवाल पर दो हिस्सों में बंट गयी। एक गुट मानता था कि भारत ने ही चीन पर चढ़ाई की थी। भारत के कम्युनिस्टों का एक हिस्सा, जिसने बाद में सी.पी.एम. का गठन किया, चीन के प्रधान मंत्री चाउ एन लाई की उस चिट्ठी का यहां गुपचुप वितरण कर रहा था, जो पत्र दुनिया के विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्षों को भेजा गया था। उसमें चीन-भारत युद्ध के लिए भारत को ही दोषी ठहराया गया है। उस सचित्र किताबनुमा चिट्ठी की एक प्रति मुझे भी दी गई थी। शायद अब भी कहीं मेरी किसी आलमारी में हो।
याद रहे कि नेहरू ने 19 नवंबर, 1962 को कैनेडी को लिखा था कि ‘‘न सिर्फ हम लोकतंत्र की रक्षा के लिए, बल्कि इस देश के अस्तित्व की रक्षा के लिए भी चीन से हारता हुआ युद्ध लड़ रहे हैं। इसमें आपकी तत्काल सैन्य मदद की हमें सख्त जरूरत है।’’ भारी तनाव, चिंता और डरावनी स्थिति के बीच उस दिन नेहरू ने अमेरिका को दो-दो चिट्ठियां लिख दीं। इन चिट्ठियों को पहले गुप्त रखा गया था, ताकि नेहरू की दयनीयता देश के सामने न आए। पर, चीनी हमले की 48 वीं वर्षगाठ पर ‘इंडियन एक्सप्रेस’ ने उन चिट्ठियों को छाप दिया।
याद रहे कि आजादी के बाद भारत ने गुट निरपेक्षता की नीति अपनाने की घोषणा की थी। पर, वास्तव में कांग्रेस सरकारों का झुकाव सोवियत लाबी की ओर था। यदि नेहरू 1962 के बाद कुछ साल और जीवित रहते तो अपनी इस असंतुलित विदेश नीति को बदल कर रख देते। पर, एक संवदेनशील प्रधान मंत्री, जो देश के लोगों का ‘हृदय सम्राट’ था, 1962 के धोखे के बाद भीतर से टूट चुका था। इसलिए वह युद्ध के बाद सिर्फ 18 माह ही जीवित रहे। चीन युद्ध में पराजय से हमें यह शिक्षा मिली कि किसी भी देश के लिए राष्ट्रहित और सीमाओं की रक्षा का दायित्व सर्वोपरि होना चाहिए। भारत सहित विभिन्न देशों की जनता भी आमतौर पर इन्हीं कसौटियों पर हमारे हुक्मरानों को कसती रहती है।
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