- हरिवंश
गांधी को नमन। उनका स्मरण महज 02 अक्तूबर (जन्मदिन) या 30 जनवरी (पुण्यतिथि) तक के लिए ही नहीं है। उनका दर्शन जीवन के पल-पल की जरूरत बन चुका है। आज सिर्फ भारत नहीं, बल्कि दुनिया के सामने पर्यावरणीय असंतुलन, प्रकृति के लय की लड़खड़ाहट, मनुष्य के भोग-लालच और अनियंत्रित इंद्रिय भूख, आधुनिक सभ्यता-संस्कृति के सामने उत्पन्न गंभीर चुनौतियां हैं। इन सबका रास्ता गांधी ही बताते हैं।
गांधी को याद करते हुए अनेक प्रसंग सामने होते हैं। याद कीजिए मैकियावेली का दर्शन। पश्चिम की धारा। राजनीतिशास्त्र के दार्शनिक मैकियावेली ने ‘द प्रिंस’ किताब लिखी। कहा, सत्ता पाने के लिए जायज-नाजायज, तौर-तरीके, षडयंत्र-कुचक्र, नीति-अनीति सब सही है। इसलिए मैकियावेली के दर्शन पर आधारित पश्चिम का राजनीतिक दर्शन, हिंसा से तख्तापलट, खूनी क्रांति या हिंसा या नीति-अनीति या धर्म-अधर्म को जायज मानता है। इसके ठीक पलट मानव इतिहास की दूसरी धारा गांधी की है। गांधी ने कहा कि नहीं, साध्य अगर पवित्र है, मकसद सात्विक है, तो उसका रास्ता या साधन भी पवित्र और नैतिक ही होगा। पूरी दुनिया की सभ्यता के इतिहास में गांधी का यह नया और पहला दर्शन था। हालांकि भारत में बुद्ध से लेकर उपनिषदों और वेद वगैरह पुरातन काल में इस दर्शन के मूल सत्व मिलते हैं। इस तरह गांधी की राजनीति में साधन व शुचिता का सवाल मूल था।
हिंसा के रास्ते जन्मी फ्रांस क्रांति से पश्चिम में एक नयी शुरूआत हुई। फिर इसी का विस्तार रूस और चीन की क्रांतियों में भी दिखा। मोटे तौर पर इन सारे बदलावों की बुनियाद-नींव में हिंसा थी। मैकियावेली का दर्शन था। गांधी का प्रयोग हिन्दुस्तान में रहा। पर, इसका असर पूरी दुनिया पर पड़ा। पूंजीवाद विफल रहा। साम्यवाद धरती पर स्वर्ग नहीं उतार सका। इस तरह से साम्यवाद और पूंजीवाद के रास्ते चली दुनिया आज बाजार की गिरफ्त में है। जहां इंसान आत्मकेंद्रित हो गया है, और अकेला भी। गांधी ने 1929 में कहा था, भारत कर्मभूमि है, भोगभूमि नहीं। पर आज भोग की अर्थव्यवस्था या बाजार प्रधान अर्थतंत्र ने दुनिया को कहां पहुंचा दिया है?
हमारे समय के सबसे बड़े वैज्ञानिक रहे स्टीफन हाकिंग का कुछ वर्ष पहले ‘गार्डियन’ में लेख छपा कि इतिहास में ऐसा दौर कभी नहीं आया। भयावह पर्यावरण की चुनौतियां, खाद्यान्न का संकट, बढ़ती आबादी जैसी समस्याएं हैं। अन्य जीव लगातार धरती से खत्म हो रहे हैं। प्रो हाकिंग कहते हैं, आज हमारे पास वह टेक्नोलॉजी भी है, जिससे हम दुनिया खत्म कर सकते हैं। पर हमारे पास वह हुनर या कौशल नहीं कि हम इसे नया बना सकें। अगर हम नहीं चेते, तो धरती खत्म होने के कगार पर है। धरती जो प्राकृतिक संपदा एक साल में पैदा करती है, वह दुनिया छह महीने में उपभोग कर रही है। जल्द ही 2060 तक दुनिया की आबादी 10 बिलियन यानी एक हजार करोड़ होने वाली है। 1967 में भौतिक विकास के संदर्भ में ‘क्लब ऑफ रोम’ ने दुनिया को आगाह किया कि इस रास्ते धरती के विकास की सीमा है (‘Limits of Growth’: Report)। इस समूह में कई नोबल पुरस्कार पाये वैज्ञानिक थे। ऐसे अनेक वैज्ञानिक, तथ्य या निष्कर्ष हैं। टेक्नोलॉजी या आर्टिफिशियल इंजेलिजेंस के आसन्न खतरों को भांप कर वैज्ञानिक बेचैन हैं, क्योंकि इसके प्रयोग का फैसला बाजार के हाथों सरक रहा है।
इस तरह आज आधुनिकता ने दुनिया को खत्म होने के कगार पर पहुंचा दिया है। गांधी ने इस बारे में पहले ही आगाह किया था। सहज शब्दों में। उन्होंने कहा था कि यह सृष्टि, प्रकृति या धरती हमारी जरूरतों को पूरा करने में सक्षम है, पर हमारे लालच को नहीं। ‘नीड वर्सेस ग्रीड’ विषय आज दुनिया के बहस और विमर्श में है। गांधी ने तब इसे उठाया था, आगाह किया था। पर, हम चेते नहीं। वैश्वीकरण और विश्वग्राम के गर्भ से एक नये किस्म का आत्मकेंद्रित समाज जनमा। लोगों के अंदर ‘और-और’ के साथ जीने की चाहत और प्रवृत्ति बढ़ी है। गांधी ने सहज तरीके से रास्ता बताया था। उन्होंने बताया था कि इंसान कैसे रहे? ‘मधुमक्खियां अलग-अलग फूलों से मधु लाकर एकत्र करती हैं। उसी तरह से बुद्धिमान व्यक्ति अलग-अलग धर्मग्रंथों से अच्छी चीजें सीखते हैं, मानते हैं और अपनाते हैं।’ गांधी दूसरी हिदायत देते हैं कि, ‘आंख के बदले आंख फोड़ने से पूरी दुनिया अंधी हो जायेगी। ‘फिर वह पूछते हैं कि ‘मेरा घर कैसा हो?’ किस माहौल में रहूं? पुनः बताते हैं कि, ‘मैं नहीं चाहता कि मेरे घर की खिड़कियां बंद हों। सभी तरफ से, पूरी दुनिया की संस्कृति की हवाएं मेरे घर में बेरोक-टोक बहें और आयें-जायें. मेरे पैर, मेरी मिट्टी या जमीन से न उखड़ें। ऐसा माहौल हमें चाहिए।’ जीवन के कठिन दौर में गांधी इसी रास्ते चले। जीये।
महात्मा गांधी के व्यक्तित्व निर्माण में या कामों के असर में अनुशासन की बड़ी भूमिका थी। गांधी अनुशासन को जरूरी शर्त मानते थे। उनके आंदोलनों का इतिहास देखें। गांधी कहते थे कि किसी को भी सबसे पहले खुद में वह बदलाव लाना चाहिए, जो वह दूसरों में या दुनिया में देखना चाहता है। साथ ही वह भी कहते थे कि अनुशासन कभी हम दबाव में नहीं सीख सकते। आत्मानुशासन को वह जीवन के लिए, लोकतंत्र के लिए, शासन के लिए जरूरी शर्त मानते थे। पर, हम गांधी के बुनियादी बातों को नहीं मान सके। दूसरों की बात कौन करे, आज जनप्रतिनिधियों का व्यवहार हम देख सकते हैं। जिस तरह से अनुशासन तोड़ते हैं, सदन में शोर-शराबा, हंगामा करते हैं, उससे हम सब अवगत हैं। गांधी को याद करते हुए सांसद, विधायक से लेकर पंचायत प्रतिनिधियों के लिए अब अपनी भूमिका को इस संदर्भ में परखने का भी अवसर है। मतदाताओं या जनता की अपेक्षाएं कई स्तरों पर राजनीति-नेतृत्व से लगातार बढ़ रही हैं। नये होनहार युवा, राजनीति या व्यवस्था को बारीकी से परख रहे हैं। राजनीतिक दलों या विधायिका से जुड़े लोगों को इस बदलती लोक चेतना के प्रति लगातार सजग रहना होगा।
गांधी यह सब इतनी सहजता से एक साथ कैसे कर लेते थे? इन सभी चीजों को, प्रक्रियाओं को उन्होंने अपने रोजमर्रा के जीवन का हिस्सा कैसे बना लिया था? ढेरों वजहें थीं। लेकिन एक प्रमुख कारण था कि गांधी ने अपनी ऊर्जा और प्रेरणा के स्रोत को अपने ही अंदर विकसित किया था। वे दिन-रात, 365 दिन राजनीति करते थे, लेकिन हमेशा आध्यात्मिक चेतना की बुनियाद पर। अध्यात्म का मूल मंत्र है कि सबकी आत्मा समान है। एक जैसा। उसे वह व्यवहार में अपनाते थे। इसी सिद्धांत के तहत वे समानता का भाव बरतते थे।
आज दुनिया में व्यक्ति और आत्मकेंद्रित व्यवहार, हर समाज के लिए चुनौती है। दुनिया के शीर्ष विचारकों का अब निष्कर्ष है कि नये सामाजिक तहजीब या अनुबंध से ही 21वीं सदी की दुनिया का भविष्य संभव है। क्योंकि पुरानी व्यवस्था को नये बदलावों ने ध्वस्त कर दिया है। यह हालात देखकर वर्धा के सेवाग्राम में ‘गांधी कुटीर’ के आगे लगे गांधी के वक्तव्य की याद आती है। उसका शीर्षक है, ‘पागल दौड़’। उस पर लिखा है- ‘अपनी आवश्यकता बढ़ाते रहने की पागल दौड़ में जो लोग आज लगे हैं, वे निरर्थक मान रहे हैं कि इस तरह खुद अपने सत्व में में वृद्धि कर रहे हैं, उन सबके लिये हम यह क्या कर बैठे? ऐसा सवाल पूछने का समय एक दिन आये बगैर रहेगा नहीं। एक के बाद एक अनेक संस्कृतियां आयीं और गयीं, लेकिन प्रगति की बड़ी-बड़ी बड़ाइयों के बावजूद मुझे बार-बार पूछने का मन होता है कि यह सब किसलिये? उसका प्रयोजन क्या? डार्विन के समकालीन वॉलेस ने कहा है कि तरह-तरह की नयी-नयी खोजों के बावजूद पचास वर्षों में मानव जाति की नैतिक ऊंचाई एक इंच भी बढ़ी नहीं। टॉलस्टॉय ने यही बात कही, ईसा मसीह, बुद्ध और मोहम्मद पैगंबर, सभी ने एक ही बात कही है।’
लेकिन आज का यह समय कैसा है? भोग, उपभोग व लोभ-लालच का समय! गांधी का एक प्रसंग स्मरण करना चाहिए। देश को आजादी मिलने का समय निकट आ गया था। तब, पश्चिम के कुछ पत्रकारों ने गांधी के सामने सवाल रखा कि आप भारत में कैसा मॉडल चाहते हैं? गांधी का जवाब था कि ब्रिटेन का मॉडल तो कतई नहीं। एक ब्रिटेन के लोगों की भौतिक भूख इतनी है कि उसकी पूर्ति के लिए दुनिया के कई देशों को गुलाम बनाना पड़ा। भारत बहुत बड़ा देश है। अगर हम ब्रिटेन की नीति पर चलें तो हमें न सिर्फ इस दुनिया को, बल्कि दूसरे ग्रहों को भी गुलाम बनाना पड़ेगा।
गांधी का दर्शन एकदम स्पष्ट था। वे कहते थे कि अध्यात्म की विरासत और विचार के सामने दूसरी प्रणाली कौन है? यानी हम पूछें कि समाजवाद, साम्यवाद, पूंजीवाद, बाजारवाद के पीछे कौन सा मूल सत्व है? हमारा अध्यात्म कहता है, ईश्वर एक है। इसमें संप्रदायों की जगह नहीं। आराधना की पद्धतियां अलग हो सकती हैं, पर पद्धतियों की भिन्नता, आत्मा की भिन्नता नहीं है। आज समाज में जो सामाजिक दूरियां बढ़ गयी हैं, भौतिक विलास या उपभोग की आकांक्षाएं बढ़ गयी हैं, जिससे भारी अपराध हो रहे हैं, उसकी जड़ में क्या है? दो-चार छह महीनों की बच्चियों के साथ जो कुछ हो रहा है, हम वह देख-सुनकर भी चुप हैं। परिवार के सगे-संबंधी या निकटवर्ती ही अविश्वसनीय अपराध महिलाओं के साथ कर रहे हैं। प्रभावी कानून बनाना, एक जरूरी रास्ता है, एक निदान है, पर इन सारी समस्याओं का उत्तर सिर्फ कानून नहीं है। इसका असल उत्तर या समाधान है, आध्यात्मिक रास्ता, चरित्र निर्माण। नैतिक होने की जरूरत। इंद्रिय संयम।
विनोबा ने कहा था कि भोग तो इंद्रियजीवी इंसान पैदा करता है। जब ऐसे इंसान बनेंगे, तो समाज क्रूर, अमानवीय व हिंसक ही होगा। गांधी ने अपने आश्रम में रहने वालों के लिए मापदंड तय कर रखा था कि किस मापदंड या किस जीवन पद्धति का अनुकरण करना है। गांधी ने भारत की मिट्टी और इसकी धरोहर को पहचाना था। वह धरोहर अध्यात्म ही है।
गांधी भारत आने से पहले बेहतर समाज बनाने व बेहतर इंसान बढ़े, इसका प्रयोग अफ्रीका में कर चुके थे। फीनिक्स में उन्होंने सौ एकड़ की जमीन (फार्म हाउस) खरीदी। नये ढंग से प्रयोग किया। उसके बारे में दो पंक्तियों में बताया कि इस आश्रम को बनाने का हमारा मकसद क्या है? ‘Visible object was purity of body and mind as well as economic equality.’ बाद में उनके एक जर्मन मित्र ने 2100 एकड़ का फार्म हाउस उन्हें दिया। उस पर गांधी ने नये ढंग से जीने की विधि अपनायी। कैसे सामुदायिक रहन-सहन हो? खासतौर से चार धर्मों के लोग आश्रम में साथ आयें व रहें। हिन्दू, मुसलमान, क्रिश्चियन और पारसी। उनका किचेन एक हो, वे एक दूसरे के साथ रहने के लिए, अपनी-अपनी सीमा से बाहर निकलें, यह प्रयास गांधी ने किया, ताकि धर्म, जाति, रंग, भेदविहीन मानव समाज बन सके। इस प्रयोग के बाद वह अफ्रीका से चंपारण आये। शुरू में ही चंपारण में तीन स्कूल स्थापित किये। वहां वह बच्चों को कहते हैं कि स्वच्छता, सामुदायिक सद्भाव बनाने के लिए संयुक्त प्रयास करें। गांव की सड़कों का निर्माण, विकास एवं प्रबंधन का काम उन्हें करना चाहिए। कुओं की सफाई इत्यादि के बारे में चर्चा करते हैं। इस तरह चंपारण में भी वह सामुदायिक सद्भाव और एक साथ कैसे रह सकें, इस बात पर बार-बार जोर देते हैं। साथ ही किसानों के खिलाफ अंग्रेजी अत्याचार से भी लड़ते हैं। यह है, रचना और संघर्ष का साथ-साथ चलना।
अब इस बीच गांधी के उसूलों पर कैसे चलना संभव है? यह इस युग की बड़ी चुनौती है। नयी पीढ़ी को गांधी को अधिक से अधिक जानना चाहिए, ताकि आदमी में आदमीपना या इंसान में इंसानियत बनी रहे। आज जो चुनौतियां हैं, उनमें सबसे बड़ी चुनौती इंसानियत, आदमीपना का खत्म होना है। यह स्थिति क्यों आयी, इसके लिए कौन जिम्मेवार है? इसका जवाब इतना आसान नहीं। सवाल है कि जब भारतीय परंपरा इतनी मजबूत थी, इसके लय की लड़खड़ाहट कहां से शुरू हुई?
‘गीता’ गांधीजी की प्रिय पुस्तक थी। उन्होंने गीता पर एक पुस्तिका लिखी, ‘अनासक्ति योग’। पेज 41 पर वह लिखते हैं- उत्तम पुरूष जो-जो आचरण करते हैं, उसका अनुसरण सामान्य लोग करते हैं। जिस आदर्श को उत्तम पुरूष प्रमाण बनाते हैं, उसका सामान्य लोग अनुसरण करते हैं। यही गीता का संदेश है, जिसमें कृष्ण अर्जुन से कहते हैं- ऊपर बैठे लोग जैसे आचरण करेंगे, नीचे लोग उसी रास्ते पर चलेंगे। यही महाभारत में कहा गया- ‘महाजनो येन गत: स पंथा’। बड़े लोग जिस रास्ते गये हैं, वही रास्ता है। हमारी लोक मान्यता है, यथा राजा तथा प्रजा। ऐसे ही थे, गांधी। इसलिए लुइश फिशर ने ‘रीडर्स डाइजेस्ट’ पत्रिका के 50वें विशेषांक में, 50-60 के दशक में लिखा कि एक बार मुंबई के एक सख्त धनकुबेर या संगदिल धनी ने मुझे कहा कि स्वर्ग के द्वार, गांधी की प्रतीक्षा में खुले थे, लेकिन गांधी ने स्वर्ग के द्वार को प्रतीक्षारत रखा, ताकि वह धरती को स्वर्ग बना दें।
गांधी मानते थे, हर इंसान अपने आंतरिक विकास से ही अपने स्वार्थ, लोभ या लालच से मुक्ति पायेगा। किसी तरह की योजना बनाइए, कोई भी शिक्षा पद्धति लागू कीजिए, विकास का कोई ख्वाब या खाका खींचिए, जब तक अंदर से हर मनुष्य या हर इंसान नहीं बदलेगा, दुनिया को बेहतर भविष्य नहीं मिलनेवाला। गांधी ने इसे पहचाना था। आज भौतिक दुनिया में अंदर का आदमी कमजोर पड़ चुका है। साधु-संतों को अपनी संपत्ति, मंदिर, मठ जायदाद की चिंता है। दुनिया के बाजार से नया और संवेदनशील इंसान नहीं जनमेगा। ऐसे माहौल में पूरी दुनिया में गांधी का चिंतन-सोच और जीवन पद्धति ही हमारा मार्गदर्शक है। (लेखक राज्यसभा के उपसभापति हैं)
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