‘सत्ता’ एवं ‘संस्कृति’ के बीच का संघर्ष है यह लोकसभा चुनाव
- हेमंत
चुनावी अतीत एवं वर्तमान को परखें, तो ‘टूट की अटूट गांठ से बंधे’ नीतीश-मोदी महागठबंधन व राजद-कांग्रेस के महागठबंधन के चेहरे-चाल-चरित्र के साथ-साथ चुनाव के बारे में उनके प्रभाव को जाना जा सकता है। विस्तार से बिहार के चुनावी मिजाज पर चर्चा कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार हेमंत।
चुनाव की आधुनिक परिभाषा है- ‘संसदीय लोकतंत्र की उत्सव-कथा का ‘क्लाइमेक्स।’ देश में आज भी चुनाव ‘लोकतंत्र के महा-उत्सव’ के रूप में मान्य है। आम ‘जन’ के लिए यह उत्सव है, क्योंकि इसमें वे ‘काठ के पुतलों-पुतलियों’ की प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं। जनप्रतिनिधियों के लिए भी यह उत्सव है, जिसमें वे ‘जिंदा’ लोगों को कठपुतला-कठपुतली बनाकर नचाते हैं।
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चुनाव की परम्परा हो या प्रक्रिया, ‘दिग्गज’ एवं दबंगों की जीत-हार के अतीत का अध्ययन हो या भविष्य का आकलन, देश में ऐसे क्षेत्रों की पहचान कठिन नहीं है, जहां चुनाव काठ के पुतलों-पुतलियों की प्राण-प्रतिष्ठा का पर्व बनता है, बनता रहा है, और बनता रहेगा। ऐसे क्षेत्र दो प्रकार के हैं। एक, ऐसे क्षेत्र जहां आर्थिक-सामाजिक से लेकर राजनीतिक संघर्ष तक में ‘सत्ता’ पर ‘संस्कृति’ का असर होता है। संस्कृति सत्ता की गति-दिशा का निर्धारण-नियंत्रण करती है। एक वाक्य में कहें तो, उन क्षेत्रों में ‘संस्कृति की सत्ता’ चलती है। और, दूसरे प्रकार के क्षेत्र वे हैं जहां हर तरह के संघर्ष में संस्कृति पर सत्ता हावी रहती है। वहां सत्ता के अनुसार संस्कृति का चेहरा बनता-बिगड़ता है। एक वाक्य में कहें, तो उन क्षेत्रों में ‘सत्ता की संस्कृति’ चलती है।
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देश की हिंदी-पट्टी (जिसे अंगरेजी में ‘काऊ बेल्ट’ कहा जाता है!) में ऐसे क्षेत्रों को पहचानना बहुत आसान है, जहां वर्तमान चुनावी लोकतंत्र के उत्सव में कठपुतलों-पुतलियों का जोरदार नाच चल रहा है। ‘संस्कृति की सत्ता’ और ‘सत्ता की संस्कृति’ दोनों प्रकारों को एक साथ पहचानना हो, तो बिहार से बढ़िया प्रदेश कोई नहीं। बिहार में भी बहुत दूर भटकने की जरूरत नहीं, सिर्फ ‘पटना प्रमंडल’ को ठीक से देखने-गुनने की जरूरत है। पटना प्रमंडल निर्वाचन क्षेत्रों के ‘इतिहास’ में डुबकी लगायें, तो सत्ता-संस्कृति के ‘वर्तमान’ चुनावी द्वंद्व को भी गहराई से पहचानने की दृष्टि मिल सकती है।
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यह तो भूगोल का सच है कि पटना बिहार की राजधानी है, और यह पटना प्रमंडल में है। इसलिए पटना प्रमंडल में बिहार की सत्ता का भी केन्द्र है। इस प्रमंडल के एक सिरे पर नालंदा और पटना हैं तथा दूसरे सिरे पर आरा, बक्सर, विक्रमगंज और सासाराम हैं। यानी एक सिरा ‘मगही’ क्षेत्र और दूसरा सिरा भोजपुरी क्षेत्र। एक क्षेत्र में संस्कृति सत्ता की भाषा में व्यक्त होती है और एक में सत्ता संस्कृति की भाषा में बोलती है। यह इतिहास का सच है।
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मगध क्षेत्र में ‘चाणक्य नीति’ से जुड़ी ऐसी कई लोककथाएं आज भी मशहूर हैं, जिनमें ‘नायक’ नेपथ्य में रहता है और सेनापति से लेकर सत्ताधीश बनने तक की आकांक्षा रखने वाले ‘दिग्गज’ सत्ता-शासन के धागों में बंधकर उस नायक की उंगलियों के इशारे पर लोक के समाने ‘कठ-पुतलों-पुतलियों’ की तरह नाचना स्वीकार करते हैं। दूसरी ओर भोजपुर है, जहां के कई लोकगीत काठ के पुतलों में प्राण-प्रतिष्ठा की कथा कहते हैं। यह सोहर गीत तो आज भी पुत्र जन्म के अवसर पर स्त्रियां गाती हैं- ‘संगवा बैठल रउरा ससुर सर्वगुन आगर हो, मोर नैहरवा नउवा भेजी, बाबा मोरा आनंदक हो…ललना रोवे लगले काठ के पतुरिया….।’ इसमें उस रानी की कहानी है जो सर्वगुण सम्पन्न है, लेकिन संतान सुख से वंचित है। उसने बढ़ई भैया से कहा- वह काठ का बालक गढ़े। उसी से वह अपना हृदय शीतल करेगी। बढ़ई ने काठ का बालक गढ़ा। रानी उसे लेकर अन्तःपुर में चली गयी। नैहर संदेशा भिजवा दिया कि उसे बेटा हुआ है। घर से भाई आया। रानी ने मन ही मन सूर्य को मनाया- हे सूर्य मेरी लाज रखना। भाई ने चादर में लिपटे काठ के बालक को गोद में लिया। काठ का बालक ठुनक-ठुनक कर रोने लगा। काठ सजीव हो उठा!
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मगध और भोजपुर के क्षेत्रों को जोड़ने से बने पटना प्रमंडल के उक्त लोक कथाएं एवं लोकगीत ‘चुनावी लोकतंत्र’ में जनता के वोट की ‘हैसियत’ और जनप्रतिनिधियों की जीत-हार की ‘संभावना-संदेह’ को नापने के प्रतीक भी हैं और पैमाने भी। अगर इन प्रतीक-पैमानों पर पटना प्रमंडल के चुनावी अतीत एवं वर्तमान को परखें, तो ‘टूट की अटूट गांठ से बंधे’ नीतीश-मोदी महागठबंधन और राजद-कांग्रेस महागठबंधन के चेहरे-चाल-चरित्र के साथ-साथ चुनाव में उनके प्रभाव और परिणाम का अनुमान भी लगाया जा सकता है। कम से कम ऐसे अनुमान तो लगाए ही जा सकते हैं, जिसके लिए बाद में पछताना न पड़े। जैसे, इस टाइप का अनुमान कि “कहां-कहां जिसके सर पर ‘ताज’ होगा, उसका वहां ‘राज’ नहीं होगा!”
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