पटना। बिहार में महागठबंधन की सफलता की कहानी 2015 के विधानसभा चुनाव से शुरू होती है, लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में इस कहानी का पटाक्षेप हो जाये तो कोई आश्चर्य नहीं। महागठबंधन के घटक राजद, कांग्रेस, रालोसपा और हम अलग-अलग खम ठोंकने को तैयार तो नहीं हैं, लेकिन मजबूरी में इन्हें अपने रास्ते बदलने पड़ सकते हैं। ऐसे वक्त में लालू प्रसाद का जेल में होना सबको खटकता है। जेल की बंदिशें ऐसी कि सप्ताह में एक बार ही उनसे गिने-चुने लोग मिल सकते हैं। बीमार लालू प्रसाद जेल में लाचार पड़े हैं।
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जदयू से अलग होकर अपना अलग अस्तित्व हम (सेकुलर) के रूप में बनाने वाले जीतन राम मांझी कुछ ज्यादा अकुलाहट में हैं। वे चौतरफा ताक-झांक कर रहे हैं। एनडीए उनको भाव देने के मूड में नहीं है। यह अलग बात है कि एनडीए के साथ रह कर सत्ता का स्वाद चखने के लिए उन्हें लंबा इंतजार करना पड़ जाये। इतना धैर्य उन्हें नहीं है। वह अपने और बेटे के लिए पक्का आश्वासन चाहते हैं। महागठबंधन में भी उन्हें एक से अधिक सीट की संभावना नहीं दिख रही है। इसलिए वह छटपटाहट में हैं। जल्दी ही वे अपना रुख साफ करने वाले हैं।
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कांग्रेस को किनारे कर उत्तर प्रदेश में बना बसपा-सपा का गठबंधन जिस तरह कांग्रेस को 11 सीटें देने के लिए अब तैयार हो गया है और कांग्रेस 15 सीटों पर उतर आयी है, उससे लगता है कि यूपी में महागठबंधन बन जायेगा, लेकिन आरंभ से बिहार में महागठबंधन की मुश्किलें कम होने का नाम नहीं ले रही हैं। सबकी मांगें जोड़ दें तो बिहार में राजद के लिए आधा दर्जन सीटें भी नहीं बचेंगी। ऐसे में महागठबंधन को बनाये-बचाये रखने के लिए कांग्रेस को अपनी मांग से नीचे उतरना होगा और छोटे दलों को भी अपनी मांग से परहेज करना होगा। यह सभी जानते हैं कि महागठबंधन के दूसरे घटकों से राजद बिहार में ज्यादा जनाधार वाली पार्टी है।
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सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि महागठबंधन में शामिल होने को आतुर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी अपने उम्मीदवारों की जो पहली सूची जारी की है, उसमें कन्हैया कुमार का नाम नही नहीं है। माना यह जा रहा था कि कन्हैया को बेगूसराय से पार्टी उम्मीदवार बनायेगी। महागठबंधन से रिश्तों के कारण ऐसा संभव है। वैसे भी कहने भर के लिए बेगूसराय कम्युनिस्टों का गढ़ रहा है। वहां से एक बार के बाद कोई कम्युनिस्ट उम्मीदवार टक्कर नहीं दे पाया। 2014 के लोकसभा चुनाव में तो वहां से भाजपा ने विजय हासिल की थी।
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