- हितेंद्र पटेल
किताबों में पढ़ा है और बुजुर्गों से सुना है कि पश्चिम बंगाल एक सुसंस्कृत प्रदेश है, जहां के लोग लड़ना जानते हैं। यही बात मैं भी दुहराता रहा हूं। लेकिन यहां की राजनैतिक संस्कृति के बारे में ऐसा कहना कि वह उच्च कोटि की है, मैं नहीं मान पाऊंगा।
लगभग चालीस साल हो गए कोलकाता में। अपने अनुभव का सहारा लूं तो मुझे कहने में संकोच नहीं है कि हिंसक राजनीति और दबाव यहां देश भर में मेरी देखी हुई जगहों में सबसे अधिक है। किसी भी नागरिक को यह अधिकार है कि वह किसी को भी वोट दे। वह चाहे तो चोर, डकैत, भ्रष्ट, फासिस्ट किसी को भी दे, यह उसका अधिकार है। चुनाव के पहले दबाव डालकर उसे अपने पक्ष में लाने के लिए दबावों से परिचित हूं।
बिहार में देखा भी है। लेकिन कहीं भी अब शायद नहीं होता हो कि चुनाव के बाद साधारण वोटर को मारा-पीटा जाए, उनकी स्त्रियों को बे आबरू किया जाए और उनके घर को जला दिया जाए! यही नहीं, डर के मारे रिजल्ट निकलने के बाद मार के डर से लोग छुपते हुए भागे-भागे फिरें। दरअसल जीवन में हर स्तर पर राजनीति घुसाने की राजनीतिक तंत्र ने इतना घिनौना रूप ले लिया कि हर कॉलेज तक में दूसरे दल के लोगों को मारना-पीटना आम बात हो गई।
वह दृश्य नहीं भूल पाता, जब एक ही क्लास की छात्रा को प्रतिपक्ष की छात्रा को बालों से घसीटते हुए मैंने देखा था। पच्चीस बरस पहले की वह घटना आंखों के सामने तैर जाती है। मैं हतप्रभ था। प्रतिपक्ष के छात्र और छात्राएं शिक्षक कक्ष में आकर अपनी रक्षा के लिए गुहार लगा रहे थे और शिक्षक लोग चुप लगा गए थे। बड़ी मुश्किल से जख्मी हालत में लड़के को बचाने की कोशिश की थी। इसे मेरा “साहस” कहा गया और मेरी प्रशंसा की गई!
ऐसे सौ अनुभव हैं। बल्कि पांच सौ। यह हर कोई जानता है, लेकिन बोलता कोई नहीं। जीवन के विभिन्न हिस्सों में राजनैतिक तंत्र की इस तरह की घुसपैठ का इतना व्यापक असर हुआ कि यह यहां के कॉमन सेंस में आ गया कि राजनीति में ऐसा होता ही है, जो करते हैं, उनको अपना इससे मतलब होगा, हमारा इससे कोई वास्ता नहीं है।
राजनेताओं के सामने लोगों को झुका हुआ देखने का इतना अभ्यास हो गया है लोगों को कि यह अब सबको मान्य हो गया है। कोई राजनीतिक लोगों से पंगा नहीं लेता। यहां एक कहावत है जोश में “खुदीराम” (शहीद) न होना।
आज साथ के लोग पत्रकारिता में और विभिन्न जगहों में अच्छी जगहों पर हैं। ऐसे लोग हैं, जिनको मैने प्रतिपक्ष के लोगों और पुलिस से प्रताड़ित होते नजदीक से देखा है। ऐसे लोग भी खुलकर अपनी बात नहीं कहते। इसलिए नहीं कहते कि उनके अनुभवों ने समझा दिया है कि मिलाकर चलने से ही कुछ मिलता है, प्रतिवाद से ज्यादा कुछ नहीं होता। होते-होते स्थिति इतनी बिगड़ती गई कि सामान्य सच भी लोग बोलने से डरने लगे।
यह क्या संस्कृति है ? साहस से सच बोलना और उसके लिए मूल्य चुकाने के लिए तैयार होना यह बड़ी बात है। सबसे डरपोक लोगों को रवींद्रनाथ के उच्चारण मात्र से भाव विह्वल होते देखना हो तो यहां आइए। हर ओर गीत गाते लोग हैं, एकला चलो समेत। लेकिन क्या मजाल कि एक वाक्य ऐसा बोल दें, जिससे स्थानीय राजनेता को थोड़ा सा भी रूष्ट हो जाने का खतरा हो। ऐसी बेवकूफी वे कभी नहीं करते। ऐसे लोग सम्मान के अधिकारी हैं क्या? अगर अन्य राज्यों में भी यही स्थिति हो तो भी बंगाल को इस तरह देखना कष्टप्रद है। यह धरती बलिदानियों की, क्रांतिकारियों की धरती है।
यह भी पढ़ेंः बंगाल में विधानसभा चुनाव से पहले ‘बंगाली-बिहारी’ मुद्दे को हवा(Opens in a new browser tab)