भूले-बिसरेः मुगल-ए-आजम बना रहा हूं, सलीम-ए-आजम नहीं 

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  • वीर विनोद छाबड़ा 

हर फिल्म में हीरो सुप्रीम होता है, ऐसा हर हीरो मानता है। आम धारणा भी यही है। अच्छे डायलॉग भी उसी के हिस्से में जाते हैं, कैमरे के सामने ज़्यादातर उसी का चेहरा रहता है। हीरोइन के मुक़ाबले क्लोज-अप भी उसी के ज़्यादा होते हैं। लेकिन ‘मुगल-ए-आजम’ में ऐसा नहीं होने पाया। बादशाह अकबर बने थे पृथ्वीराज कपूर और शहज़ादे सलीम का किरदार दिलीप कुमार के हिस्से में था। लेकिन फिल्म निर्माण के दौरान लम्बे वक़्त तक दिलीप कुमार ख़ुद को ही हीरो समझते रहे। उन्हें बहुत तकलीफ होती थी, जब डायलॉग की अच्छी लाइनें पृथ्वीराज कपूर के हिस्से चली जाती थीं, कैमरा भी उन पर ज़्यादा वक़्त तक फोकस रहता था। पैसा भले शापूरजी लगा रहे थे, मगर असल कर्ता-धर्ता डायरेक्टर के. आसिफ थे और वो दिलीप कुमार के बहुत अच्छे दोस्त भी थे।

एक दिन दिलीप कुमार ने आसिफ से शिकायत की, मुझे अच्छे डायलॉग से महरूम रखा जा रहा है। क्यों? आसिफ ने दिलीप को घूर कर देखा, जानते हो मेरी फिल्म का नाम मुगल-ए-आजम है, सलीम-ए-आजम नहीं।

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दिलीप कुमार खामोश हो गए। वाकई फिल्म का सेंट्रल किरदार अकबर था, सलीम नहीं। दिलीप कुमार ने दोबारा कभी शिक़ायत नहीं की, डायलॉग की बजाए एक्सप्रेशन से अपनी मौजूदगी का अहसास कराते रहे। फिल्म की नामावली में भी पृथ्वीराज कपूर नाम पहले था और दिलीप कुमार का बाद में। यों पृथ्वीराज सीनियर भी थे, दिलीप कुमार के पिता के पेशावर के जमाने से दोस्त भी।

डायलॉग के नाम पर याद आया। फिल्म में दिलीप कुमार-मधुबाला का एक लम्बा लव सीन था। लम्बे-चौड़े संवाद लिखे गए। दिलीप कुमार का दिल खुश हो गया, अब आएगा मजा।

मगर के. आसिफ ने कहा, नो डायलॉग। यहां बैकग्राउंड में तानसेन का गाना चलेगा, जिससे मोहब्बत का इजहार होगा – प्रेम जोगन के बन सुंदरी पिया ओर चली…इस गाने को आवाज़ दी थी, बड़े गुलाम अली खां ने और नौशाद साहब ने इसे राग सोहनी में कम्पोज़ किया था। इस बिना डायलॉग के लव सीन में दिलीप कुमार के हाथ में एक मोर-पंख पकड़ा दिया गया। मधुबाला को इससे टच करना है। इसे फ़िल्मी दुनिया के सर्वश्रेष्ठ लव सीन में शुमार किया जाता है। बताया जाता है कि रीयल लाइफ में एक-दूसरे को बेपनाह मोहब्बत करने वाले दिलीप-मधुबाला में उन दिनों मनमुटाव इतना ज़्यादा था कि बातचीत भी बंद थी।

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