- वीर विनोद छाबड़ा
कुछ चेहरे बला के खूबसूरत न होते हुए भी पहली ही नज़र में सीधे दिल में उतर जाते हैं। ऐसा ही मूरत थीं, गीता बाली। बड़ी-बड़ी चुलबुली गोल आंखें। गजब का कॉमिक सेंस और हाज़िर जवाबी। निडर और बिंदास। मधुबाला जैसा अल्हड़पन, मीना कुमारी जैसी गंभीरता और नूतन जैसा बोलता अंग-प्रत्यंग। सबका मिक्सचर थीं वो। औरत होते हुए भी उन्हें अपनी ताकत का अहसास था, मर्द से भी बड़ी। यही वज़ह थी जब ‘रंगीन रातें’ (1956) की आउटडोर शूटिंग के दौरान हीरो शम्मी कपूर ने जब अपने प्यार का इज़हार करते हुए शादी के लिए प्रोपोज किया तो उन्होंने झट से हाँ नहीं की। सोचने के लिए वक़्त माँगा। गीता तब स्थापित अभिनेत्री थीं और शम्मी अभी स्ट्रगल ही कर रहे थे, फिर दो साल छोटे भी थे।
गीता ने खुद से पूछा, क्या उसे भी शम्मी से प्यार है? जवाब हाँ में ही मिला होगा। तभी तो बम्बई पहुँच कर एक रात उसके पास पहुँच गयीं, यह कहते हुए कि शादी करुँगी, लेकिन आज ही और अभी। शम्मी कपूर जैसा मस्तमौला और दिलफेंक आदमी सन्न रहा गया। लेकिन वो जानते थे, अभी नहीं तो कभी नहीं। खोना नहीं है। फौरन दोस्त हरी वालिया को लिया और बाणगंगा मंदिर पहुंच गए। पुजारी ने मना कर दिया, भगवान जी अभी-अभी सोये हैं। सुबह चार बजे उठेंगे। और उन्होंने इंतज़ार किया। शादी हो गयी। मांग भरने के लिए सिन्दूर नहीं मिला तो गीता ने पर्स से लिपस्टिक निकाल कर दे दी, मांग भरो संजना। शम्मी डर रहे थे, परिवार में पहली बहू है, जो फिल्मी है और बड़े भाई राजकपूर के साथ ‘बावरे नैन’ और पिता पृथ्वीराज कपूर के साथ ‘आनंद मठ’ में काम कर चुकी है। उनकी प्रतिक्रिया जाने क्या हो? गीता ने हौसला बंधाया। उनका विश्वास था, कुछ नहीं होगा। और सचमुच आशंकाएं निर्मूल हुईं। सबने ज़बरदस्त स्वागत किया, सास-ससुर, जेठ-जेठानी, ननद और देवर।
कहते हैं, कुछ होते हैं जिनके चरण घर में पड़ते ही कायनात बदल जाती है, खुशियां बरसने लगती हैं। गीता उन्हीं में से थी। शम्मी कपूर की किस्मत ही बदल गयी। उन्होंने शम्मी का कायापलट कर दिया। पेंसिल की नोक जैसी महीन मूंछें साफ कराके सफाचट स्मार्टी बना दिया। दिल देके देखो और तुम सा नहीं देखा हिट हो गयीं। फिर शम्मी ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।
सरगोधा,1930 में जन्मी गीता तब हरिकीर्तन कौर होती थीं और छोटी बहन हरिदर्शन कौर, जिन्होंने कालांतर में गुरुदत्त के साथ ‘बाज़’ (1953) को-प्रोड्यूस की। हरिदर्शन, जिससे शादी थी, वो धोखेबाज निकला, पहले से ही शादीशुदा था। एक्ट्रेस योगिता बाली उन्हीं की बेटी हैं। योगिता ने किशोर कुमार से शादी की, जो एक हादसा था। कुछ ही दिन चली यह शादी। योगिता की शादी बाद में मिथुन चक्रवर्ती से हुई, और सुखी हैं। गीता ने अपने भाई दिग्विजय सिंह को ‘राग-रंग’ (1952) का डायरेक्टर बनाया, हीरो अशोक कुमार।
हरिकीर्तन कौर के माता-पिता धार्मिक और सत्संगी जरूर थे, लेकिन प्रोग्रेसिव थे, बच्चों को पढ़ाया, नाचना-गाना भी सिखाया। समाज में उनका बहुत विरोध हुआ, धरना-प्रदर्शन भी हुए। हरिकीर्तन ने इसलिए अपना फिल्मी नाम गीता रख लिया। बाली उनका सरनेम था। आयुपर्यंत वो इसी नाम से जानी जाती रहीं।
‘बदनामी’ (1946) उनकी पहली फिल्म थी, जिसमें बलराज साहनी और प्राण भी थे। पार्टीशन के बाद वो परिवार सहित बम्बई आ गयीं। यहां पहली फिल्म मिली- सुहागरात (1948)। फिर मधुबाला के साथ ‘दुलारी’ और ‘बड़ी बहन’ में सुरैया के साथ। दोनों ही बॉक्स ऑफिस पर टॉपग्रॉसर रहीं और गीता बाली की पहचान का आधार बनीं। ‘बड़ी बहन’ में गीता-प्राण पर फिल्माया ये गाना बहुत मशहूर हुआ था- चले जाना नहीं नैन चुरा के, ओ सैयां बेदर्दी..। गीता बाली ने उस दौर के सभी टॉप एक्टर्स के साथ काम किया। केदार शर्मा ने राजकपूर के अपोजिट ‘बावरे नैन’ (1950) में गीता को कास्ट करके जिंदगी ही बदल दी। वो फिल्म में सजने-संवरने और पेड़-पौधों के इर्द-गिर्द नाचने के लिए नहीं है। गीता का मतलब है एक्टिंग।
देवानंद की ‘बाजी’ (1951) ने एक नई गीताबाली को इंट्रोड्यूस किया, टर्निंग पॉइंट बना उनकी जिंदगी का। क्लब डांसर जो अपने लटके-झटकों से बड़ों-बड़ों को बहका दे, तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले, किस्मत पे भरोसा है तो दांव लगा ले…सुनो गज़र क्या गाये, समय गुज़रता जाए…कल्पना कार्तिक का डेब्यू इसी फिल्म से हुआ था, जो कालांतर में श्रीमती देवानंद कहलायीं। ये गुरुदत्त की पहली निर्देशित फिल्म थी।
देवानंद-गुरुदत्त स्ट्रगल के दिनों में गहरे दोस्त हुआ करते थे। दोनों में एक करार हुआ था- एक दूसरे की मदद का। वक्त जब अच्छा आया तो देव ने गुरुदत्त को डायरेक्टर बनाया और इस कर्ज को गुरुदत्त ने देव को ‘सीआईडी’ में हीरो लेकर चुकाया। इनके एक तीसरे साथी थे, रहमान। वो देव और गुरु की फिल्मों में खूब नजर आये।
गीता ने अपने चौदह साल के छोटे से कैरियर में करीब 70 फिल्में कीं और इनमें सबसे ज़्यादा देवानंद हीरो रहे। बाज़ी, जाल, फेर्री (कश्ती), मिलाप, फरार और पॉकेटमार जैसी फिल्में बनीं। यूं गीता बाली हीरो के मामले में कभी सेलेक्टिव नहीं रहीं। न सही बड़े नाम वाला हीरो। वो बी-ग्रेड फिल्मों में भी काम करने के लिए तैयार हो जाती थीं, बस सब्जेक्ट अच्छा और दिल के करीब हो। और उन्होंने कभी अपनी क्वालिटी को भी नहीं गिराया। भगवान के साथ ‘अलबेला’ (1951) करने के पीछे यही सब कारण थे। भोली सूरत दिल के खोटे….शाम ढले खिड़की तले…शोला जो भड़के दिल मेरा धड़के…ये गाने तब भी बहुत मशहूर थे और आज भी इन्हें सुनने पर कोई भी थिरके बिना नहीं रह सकता।
इसके अलावा भी कई गाने हैं, जिन्हें याद करके गीता की सूरत सामने आती है- सारी सारी रात तेरी याद सताये…(अजी बस शुक्रिया), हम प्यार में जलने वालों को चैन कहाँ आराम कहाँ…(जेलर), ये रात ये चांदनी फिर कहाँ सुन जा दिल की दास्ताँ…चांदनी रातें प्यार की बातें खो गयीं जाने कहाँ…(जाल) चांदनी आयी प्यार सजाने…(दुलारी)…वंदे वंदे मातरम्…(आनंदमठ)। गीता की कुछ अन्य मशहूर फिल्में हैं- झमेला, सुहागन, वचन, मिस कोका कोला, पॉकेटमार, मुजरिम, जेलर, मिस्टर इंडिया आदि। ‘रंगीन रातें’ में वो क्लीनर के किरदार में रहीं, ज्यादातर मर्दानी पोशाक में, ताकि प्रेमी ड्राइवर (शम्मी कपूर) के साथ ज्यादा वक्त गुजार सकें। ‘जब से तुम्हें देखा है’ (1963) उनकी आखिरी फिल्म थी। उनके हीरो तो प्रदीप कुमार थे, लेकिन शम्मी कपूर, शशि कपूर, श्यामा, ओमप्रकाश और भगवान पर फिल्मायी ये कव्वाली बहुत मशहूर हुई थी- तुम्हें हुस्न दे के खुदा ने सितमगर बनाया।
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गीता बाली परफेक्ट ह्यूमन भी थीं। कहीं भी किसी की भी मदद के लिए तैयार हो जाती थीं। डाउन टू अर्थ। आशा पारिख ने अपनी ऑटोबॉयग्राफी ‘हिट गर्ल’ में जिक्र किया है कि ‘दिल देके देखो’ की शूटिंग के दौरान उनका मेकअप आर्टिस्ट गायब हो गया, तब गीता बाली ने उनका मेकअप किया। माला सिन्हा को भी उन्होंने ही ‘ग्रूम’ किया। बोनी कपूर और अनिल कपूर के पिता सुरिंदर कपूर गीता बाली के सेक्रेटरी होते थे। उन्हें ‘जबसे तुम्हें देखा है’ का प्रोड्यूसर बनाया। गीता बाली की मृत्यु के बाद उन्होंने जितनी भी फिल्में बनायीं, उनकी शुरुआत गीता बाली को श्रद्धांजलि से हुई। सुरिंदर कपूर की मृत्यु के बाद भी ये सिलसिला चालू है।
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चूँकि गीता जमीन से ऊपर उठीं थीं, अतः उनमें ईगो कतई नहीं था। उनके आख़िरी दिन बहुत तकलीफ में गुजरे। उनकी दिली ख्वाहिश थी, राजिंदर सिंह बेदी के साहित्य अकादेमी से पुरुस्कृत नॉवल ‘एक चादर मैली सी’ पर आधारित ‘रानो’ बनाने की, पंजाबी में, ताकि मिट्टी की सुगंध सके। उन्हें लगता था बेदी साहब ने जैसे ‘रानो’ का किरदार लिखा ही उनके लिए है और वो इसे कालजयी बना देंगी। पंजाब में शूटिंग चल रही थी। अचानक वो बीमार पड़ीं। उन्हें बम्बई वापस लाया गया। सारे बदन पर फफोले पड़ गए। डॉक्टर ने बताया ये चेचक है। बावजूद लाख कोशिशों के वो बच न सकीं। 21 जनवरी 1965 को सिर्फ 34 साल की उम्र में उन्होंने आखिरी सांस ली। उनका दाह-संस्कार बाणगंगा शमशान घाट पर हुआ, जहाँ से कुछ ही दूर स्थित मंदिर में उनका बरसों पहले ब्याह हुआ था। बेदी साहब ने ‘रानो’ की स्क्रिप्ट गीता की चिता के साथ जला दी। रानो भी गीता के साथ मर गयी। कालांतर में हेमा मालिनी को लेकर ‘एक चादर मैली सी’ बनी, लेकिन रानो में हेमा दूर-दूर तक नहीं थीं।
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