होली का त्योहार करीब है। चुनाव की गहमागहमी ने होली की रौनक भी बढ़ा दी है। प्रसंगवश वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क की प्रस्तावित पुस्तक- मुन्ना मास्टर बने एडिटर- से होली के एक प्रसंग का हम पुर्पाठ कर रहे हैं।
प्रवास के दिनों में पर्व-त्योहार किस तरह पहाड़ से लगते हैं, इसका आभास पहली बार काली के देश कामाख्या (गुवाहाटी) में कमाने गये हम पत्रकार मित्रों को हुआ। चंद्रेश्वर जी के नेतृत्व और गोवर्धन अटल के स्वामित्व में उत्तरकाल निकालने के लिए 19-20 फरवरी 1989 तक सभी साथी पहुंच गये थे। साथियों का जिक्र पूर्व में हम कर चुके हैं। मार्च के पहले सप्ताह में होली का त्योहार था। प्राय: सभी साथी पहली बार घर से बाहर उतनी दूर परिजनों के बिना होली मनानेवाले थे।
होली की पूर्व संध्या पर डायनिंग रूम में सभी जुटे। हिमांशु शेखर, सुनील सिन्हा, अजित अंजुम, मैं और डीटीपी का एक साथी, जो साथ ही रहता था। हम लोगों के एक और मित्र थे रत्नेश कुमार, जो गुवाहाटी जाने के बाद पीलिया से पस्त होकर डायनिंग में ही बिस्तर पर लेटे थे। उन सब में शादीशुदा मैं ही था।
अपने-अपने घर की होली की यादें सभी सुनाने-बताने लगे। किसी को भाभी बिना होली की बदरंगी सूरत सता रही थी तो किसी को परिवारजनों से विलग होली बेमानी लग रही थी। मेरी मनोदशा कैसी रही होगी, यह बताने की जरूरत इसलिए नहीं कि शादी के सात साल बाद पहली बार पत्नी और परिजनों से विलग मेरी यह होली थी। अपनी पीड़ा को मैं शब्द दे पाने में इसलिए असमर्थ पा रहा हूं कि अंतस की उपज पीड़ा का अंदाज उन्हीं को हो सकता है, जिनकी ऐसे हालात से मुठभेड़ हुई हो।
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तकरीबन आधे घंटे तक सभी यादों में खोये रहे और भीतर से सभी इतने कमजोर पड़ गये कि फफक कर सामूहिक रुदन-क्रंदन किसी को नागवार नहीं लगा, सिवा रत्नेश के। इसलिए कि रत्नेश की पटरी उनकी भाभी से नहीं बैठती थी। मां-बाप थे नहीं। उन्हें एक तरह से होली में घर पर रह कर पीड़ित होने से गुवाहाटी में पीलिया के प्रकोप में आकर बिस्तर से सटे रहना ही सहज लग रहा था। अलबत्ता एक बात उन्हें असहज जरूर लगी, जिसका आगे मैं जिक्र करने वाला हूं।
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अखबार तो निकल नहीं रहा था, इसलिए काम का दबाव-तनाव था नहीं। ऊपर से होली की दो दिनी छुट्टी। दो दिनों की छुट्टी की एक तार्किक वजह थी। जिस दिन असमी लोग होली खेलते, उसके अगले दिन बिहारी या यों कहें हिन्दीभाषी समाज की होली होती। असमी लोग पहले दिन की होली को रंग डे और दूसरे दिन को कीचड़ डे कहते थे। दरअसल हिन्दीभाषी प्रदेशों में जिस तरह हुड़दंगी होली खेली जाती है, वैसा और कहीं नहीं होता। हिन्दीभाषियों का मन सिर्फ रंग से तो भरता नहीं, इसलिए वे नाली के कीचड़ उछाल-लगा कर जी भर होली खेलते।
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घंटे-डेढ़ घंटे के रुदन-क्रंदन के बाद होली मनाने की तैयारी पर विमर्श शुरू हुआ। सुनील सिन्हा पाकशास्त्री निकले। उन्होंने कहा कि वह मालपुआ और मटन बना देंगे। केला, दूध, मैदा, चीनी, मसाला वगैरह की फेहरिस्त बन गयी। खर्च का बंटवारा सब में कर दिया गया। लेकिन आम राय बनी कि ऐसी होली का क्या मतलब, जब मन ही न बहक जाये। मन बहकाने का सामान यानी दारू को भी सूची में स्थान मिल गया। सारा सामान शाम को खरीद कर आ गया। हमारी होली तो अगले दिन मननी थी। उस शाम सामान्य खाना बनने लगा।
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शाम ढली, रात ने दस्तक दी तो सबके मन में दारू गटकने की बेचैनी भी बढ़ने लगी। आश्चर्य यह कि तब कोई नशे का आदी नहीं था। अगर किसी ने पहले कभी पी भी थी तो वह गिनती में एक-दो बार ही। लेकिन बेचैनी शायद इस वजह से भी थी कि सब अपनों से विलग होकर होली मनाने का गम भुलाना चाहते थे। रात चढ़ती गयी और नौसिखुए पियक्कड़ों की टोली दो घूंट अंदर जाने के बाद लड़खड़ाती रही। नाचती-गाती रही। ढोल-मजीरे की जगह थाली ने ली। थाली की थाप और होली-जोगीरा के बेसुरे अलाप ने इस कदर बेसुध किया कि आगे की कहानी का सिर्फ एक विंदु ही याद रह गया है।
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कालबेल लगातार बज रही थी। आधी रात का वक्त। सभी अपने में मस्त। अचानक मेरे कान में बेल की आवाज पड़ी तो सबको थम जाने को कहा। कपड़े संभाल कर गेट खोला तो अड़ोस-पड़ोस के कई असमिया परिवार के लोग खड़े दिखे। कई आवाजें एक साथ गूंजी- यह क्या तमाशा है। रात में इतना शोरगुल। मैंने सारी कहा और बताया कि हमारे यहां ऐसी ही होली की परंपरा है। अब नहीं होगा। लोग चले गये और उसके बाद कौन कहां बेसुध पड़ गया, स्मरण नहीं।
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जिसके मकान में हम रहते थे, वह भी असमिया ही थे। खुद लकड़ी के काटेज में रहते थे और आरसीसी घर किराये पर दे रखा था। दिन में होशोहवास में सुनील जी ने मालपुआ और मटन बनाया। हम लोगों ने मकान मालिक को भी खिलाया। वह सुस्वादु भोजन से इतने आह्लादित थे कि रात की घटना पर उन्होंने कोई नाराजगी नहीं जतायी। उल्टे यह कहा कि दरवाजा खोलना ही नहीं चाहिए था।
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