सूबे के प्रति मोदी का आकर्षण आम आदमी की समझ से परे
रांची: झारखंड में इसी साल के अंत तक विधानसभा के चुनाव होने हैं। सारी पार्टियां चुनावी तैयारी में जुट गयी हैं। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी की सक्रियता सर्वाधिक है। वैसे प्रमुख विपक्षी दल झारखंड मुक्ति मोर्चा भी अपने सीमित संसाधनों में मोरचा संभाले हुए है। वहीं अन्य विपक्षी दलों में बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा, कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल और बिहार में भाजपा के साथ सरकार चला रही नीतीश कुमार की पार्टी जदयू ने चुनावी शंखनाद कर दिया है। हालांकि रणनीतिक तौर पर भारतीय जनता पार्टी का प्रचार अभियान परवान चढ़ने लगा है।
भारतीय जनता पार्टी ने झारखंड को सौगात देने के साथ चुनाव का शंखनाद किया है। सौगात देने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद पिछले हफ्ते झारखंड आये थे। वैसे प्रधानमंत्री के लिए देशभर में झारखंड सबसे पसंदीदा सूबा बन गया है। एनडीए-1 और एनडीए-2 के कार्यकाल में अब तक उन्होंने एक दर्जन बार झारखंड की यात्राएं की हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि प्रधानमंत्री ने कई केंद्रीय योजनाओं की लॉन्चिंग के लिए झारखंड के पैड का इस्तेमाल किया। किसानों, छोटे दुकानदारों के लिए पेंशन योजना हो या स्वास्थ्य क्षेत्र की महत्वाकांक्षी योजना- आयुष्मान भारत योजना, इनकी लांचिंग के लिए प्रधानमंत्री ने झारखंड की धरती का चुनाव किया।
महज 14 लोकसभा और 81 विधानसभा सीटों वाले सूबे के प्रति प्रधानमंत्री का इतना अधिक आकर्षण आम आदमी की समझ से परे है। अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस का मुख्य कार्यक्रम भी झारखंड की राजधानी रांची में हुआ, जिसमें प्रधानमंत्री ने शिरकत की थी। वरिष्ठ पत्रकार मधुकर मानते हैं कि प्रधानमंत्री की दिलचस्पी की एक वजह यह हो सकती है कि चुनावों में भाजपा को आर्थिक रूप से सहयोग करने वाले उद्योगपतियों को वे लाभ पहुंचाने की मंशा रखते हों। 2014 में झारखंड में भाजपा की सरकार बनने के तुरंत बाद अडाणी को कई परियोजनाएं सूबे में दी गयी। आदिवासी भूमि पर खरीद-बिक्री पर लगी रोक को लचीला बनाने के लिए एसटी-एसपीटी एक्ट को सरकार ने लचीला बनाया।
झारखंड सांगठनिक स्तर पर है कमजोर- ओम माथुर
ओम माथुर को झारखंड भाजपा का प्रदेश प्रभारी बनाया गया है। उन्होंने अपनी पहली यात्रा अगस्त में की और दिल्ली लौट कर जो रिपोर्ट केंद्रीय नेतृत्व को सौंपी, वह चिंताजनक थी। उन्होंने बताया कि झारखंड में सांगठनिक स्तर पर कमजोरी है, मंत्रिमंडलीय सहयोगियों में तालमेल का अभाव है और सरकार ने जो काम किये हैं, उसका संदेश जनता तक नहीं पहुंच पाया है। एंटी इनकंबैंसी का खतरा ऊपर से है। भाजपा ने झारखंड की 81 सीटों में 65 पार का नारा दिया है, लेकिन ओम माथुर की रिपोर्ट के मुताबिक 45 सीटें भी मुश्किल से मिलने की बात थी। उसके बाद केंद्रीय नेतृत्व ने चुनाव की कमान अपने हाथ में ले ली है।
अमित शाह दो दिन पहले झारखंड का दौरा कर लौटे हैं। प्रधानमंत्री उनके पहले आये। केंद्रीय मंत्रियों के दौरे भी लगातार हो रहे हैं। जनजातीय मामलों के केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा भी लगातार कैंप किये हुए हैं। पार्टी ने दो प्रभारी ओम माथुर और बिहार के मंत्री नंदकिशोर यादव को सहायक के तौर पर नियुक्त किया है। इनके लगातार दौरे हो रहे हैं। संघ, विहिप और विद्यार्थी परिषद के नेताओं के दौरे बढ़ गये हैं। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख लोगों ने भी अपनी गतिविधियां बढ़ा दी हैं। यानी भाजपा के सभी तंत्र सक्रिय हैं।
मोदी के चेहरे पर लड़ा गया था 2014 का विस चुनाव
भाजपा खेमे की सक्रियता का निहितार्थ समझने के लिए पिछले 2014 के विधानसभा चुनाव परिणामों पर नजर डालना आवश्यक है। 2014 का विधानसभा चुनाव नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़ा गया था। चूंकि लोकसभा का चुनाव भी उसी साल मोदी के नेतृत्व में लड़ा गया और भारी कामयाबी मिली थी, इसीलिए उस वक्त जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए, वहां नरेंद्र मोदी को ही भाजपा ने चेहरे के तौर पर पेश किया था। उस दौर के चुनावों में मोदी लहर मानी गयी।
पिछले चुनाव में भाजपा के खाते में थी सिर्फ 37 सीटें
2014 की मोदी लहर को बावजूद उनके चेहरे पर झारखंड में 81 में भाजपा को 37 सीटें ही मिली थीं। भाजपा की सहयोगी आजसू पार्टी ने 5 सीटें पायी थीं। विपक्षी दलों में झारखंड मुक्ति मोर्चा को 19, बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा को 8 और कांग्रेस को 6 सीटें हासिल हुई थीं। बाकी 6 सीटों पर निर्दलीय या छोटी पार्टियों के नेता जीते थे। उस चुनाव की एक बड़ी बात यह थी कि झारखंड मुक्ति मोर्चा विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी। उसके एकमात्र स्टार प्रचारक हेमंत सोरेन ही थे, जबकि भाजपा ने तब भी प्रधानमंत्री से लेकर तमाम बड़े नेताओं को मैदान में उतारा था।
पार्टी ‘घर-घर रघुवर’ पर अड़ी, तो 65 दूर 35 पार का लक्ष्य भी मुश्किल- सरयू
इस बार यानी 2019 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने मौजूदा मुख्यमंत्री रघुवर दास को अपना चेहरा बनाया है। पार्टी ने घर-घर रघुवर का नारा दिया है। हालांकि इस नारे पर पार्टी के ही कद्दावर नेता और रघुवर दास मंत्रिमंडल में खाद्य आपूर्ति मंत्रालय संभाल रहे सरयू राय ने कड़ी आपत्ति जतायी है। उनका तर्क है कि इस नारे से पहले से ही नाराज चल रहे वोटर और भड़केंगे। एंटी इनकंबैंसी का पहले से मंडरा रहा खतरा और गंभीर हो जाएगा। उन्होंने पार्टी को सुझाव दिया था कि घर-घर कमल का नारा सर्वाधिक उचित होता। पार्टी ने उनकी बात नहीं मानी तो उन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र में अपना ही सुझाया नारा- घर-घर कमल का प्रचार शुरू किया। उन्होंने तो यहां तक कह दिया है कि पार्टी अगर घर-घर रघुवर के नारे पर अड़ी रही तो 65 पार का लक्ष्य तो दूर 35 पार करना भी मुश्किल होगा।
कैबिनेट की कई बैठकों में शामिल ही नहीं हुए सरयू राय
रघुवर दास से उनकी खुन्नस का आलम यह है कि उनके इलाके में लगे बैनर-पोस्टर और होर्डिंग में रघुवर दास के फोटो नदारद हैं। अलबत्ता नरेंद्र मोदी की तस्वीर जरूर लगी है। सरयू राय शुरू से ही बगावती तेवर अपनाये हुए हैं। अब तक लगभग डेढ़ दर्जन कैबिनेट बैठकों में वे शामिल ही नहीं हुए। एक बार तो कैबिनेट बैठक में किसी प्रस्ताव पर वह इतने नाराज हुए कि बैठक से ही उठ कर चले गये।
बहरहाल दिसंबर तक चुनाव संपन्न हो जाएंगे। इस चुनाव में नरेंद्र मोदी की भी परख होगी और रघुवर का भी आकलन होगा। परिणाम क्या होगा, यह समय पर साफ हो जायेगा। लेकिन इतना तय है कि भाजपा के लिए 65 पार का लक्ष्य आसान नहीं होगा।