पेशे से पत्रकार हैं और आदिवासी विषयों पर रिपोर्टिंग करते हैं
रांची: कल मैं कार्निलुइस मिंज को सुन रहा था। उम्र के हिसाब से कार्निलुइस टटका जवान टाइप हैं, लेकिन परिपक्वता और गम्भीरता किसी अध्येता अनुभवी की तरह। वैसे तो कार्निलुइस गुमला के एक गांव के रहनेवाले हैं लेकिन रांची में रहते हैं। पेशे से पत्रकार हैं और आदिवासी विषयों पर रिपोर्टिंग करते हैं।
दो वक्त का भोजन भी नसीब नहीं था
कार्निलुइस के पत्रकार बनने की कहानी प्रेरक है। वे झारखंड के गुमला जिले के एक छोटे से गांव में रहते थे। घर की माली हालत ऐसी थी कि दो वक्त का भोजन नहीं बनता था। कार्निलुइस जब बच्चे थे तो दो दिनों तक खाना नहीं मिला। न उन्हें, न उनकी बहनों को। मां कहीं से मडुआ की दो रोटियां लेकर आयीं, चारों भाई-बहनों ने आधा-आधा खाया और फिर स्कूल गये। कार्निलुइस ने उसी दिन तय किया कि वह पढ़ेंगे।
दिहाड़ी कर पढ़ाई की
मजबूरी और लाचारी जैसे उन दिनों के हालात से निपटने के लिये कार्निलुइस के पास अपने परिवार की स्थिति बदलने के लिए और कोई दूसरा रास्ता नहीं था। मरता क्या न करता, वे किशोर उम्र में ही रांची आकर दिहाड़ी मजदूरी करने लगे। फिर मैट्रिक, इंटर और ग्रेजुएशन भी किये। सब दिहाड़ी मजदूरी करते हुए।
बूचड़खाना में काम किया
इसके बाद वे अलीगढ़ (उत्तरप्रदेश) कमाने चले गये। वहां वे बूचड़खाना में काम करने लगे। जब कार्निलुइस वहां गये तो उन्हें फ्लैश कटर चलाने का काम मिला। जेनरली ढाई किलो का फ्लैश कटर होता था। कार्निलुइस को वो कटर हल्का लगा तो उन्होंने मालिक से कहा कि यह हल्का है, भारी बनवा दीजिए। बूचड़खाने के मालिक ने कहा, यहां तो इससे ज्यादा वजनी कोई चला नहीं पाता। कार्निलुइस ने कहा कि वो दस किलो तक का कटर चला सकते हैं। कार्निलुइस के लिए नया कटर बना। उससे वह कमाने लगे। कमा कर तकरीबन पौने दो लाख रुपये जमा किये। उसके बाद वे रांची लौट गये। रांची आकर पीजी की पढ़ाई, फिर नेट भी निकाल लिए और अब पीएचडी भी पूरा होनेवाला है। साथ ही पत्रकारिता भी।
लेखक के विचार
कार्निलुइस कल अपनी कहानी बता रहे थे, मैं ध्यान से सुने जा रहा था। रांची लौटकर कार्निलुइस से एक लंबी बातचीत होगी। अपनी दुनिया बहुत छोटी है। यही बिहार, झारखण्ड व थोड़ा पूर्वी उत्तरप्रदेश। इस छोटी सी दुनिया में जो अच्छा काम कर रहा हो, जो मॉडल हो उससे मिलना, काम को जानना ही अपना मूल काम है।