विज्ञान की नजर में भारतीय भाषाएं और सर्वांगीण स्वास्थ्य

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  • डॉ. मनोहर भण्डारी

पढ़ने में यह अटपटा और अविश्वसनीय लगेगा कि भारतीय भाषाएं पढ़ने से सर्वांगीण स्वास्थ्य का क्या कोई नाता भी हो सकता है, परन्तु इस कथन की पृष्ठभूमि में वैज्ञानिकता भी है और वर्तमान का सामाजिक परिदृश्य एवं पारिवारिक विघटन आदि को देखते हुए इस कथन की सत्यता पर सन्देह निर्मूल हो जाता हैI नेशनल ब्रेन रिसर्च सेन्टर, नई दिल्ली की वैज्ञानिक डॉ. नन्दिनी चटर्जी सिंह के नेतृत्व में सम्पन्न शोध से यह बात सामने आई है कि जो बच्चे और बड़े भी हिन्दी अथवा भारतीय भाषा पढ़ते हैं, उनके मस्तिष्क के दोनों गोलार्द्ध सक्रिय होते हैं, जबकि केवल अंगरेजी पढ़ने वाले बच्चों और बड़ों का बायां गोलार्द्ध सक्रिय होता हैI उनका कहना है कि भारतीय भाषाएं पढ़ते रहने से मस्तिष्क अधिक चुस्त रहता हैI उनके अनुसार अंगरेजी के वाक्यों को पढ़ने के लिए एक सीधी रेखा में ही दृष्टि रखना होती है, जबकि हिन्दी और भारतीय भाषाओं में मात्राओं के कारण अक्षरों को पढ़ने के लिए बारम्बार नीचे और ऊपर देखते रहना पड़ता हैI

“करंट साइंस” नामक पत्रिका में प्रकाशित अनुसंधान में मस्तिष्क विशेषज्ञों ने अनेक विद्यार्थियों पर एमआरआई (Magnetic Resonance Imaging) के माध्यम से किए गए अध्ययन के आधार पर कहा है कि अंगरेजी पढ़ते समय दिमाग का सिर्फ बायां हिस्सा सक्रिय होता है, जबकि हिन्दी या भारतीय भाषाएं पढ़ते समय दोनों हिस्से सक्रिय होते हैंI इससे दिमाग तरोताजा रहता हैI उन्होंने अपील की कि पाठ्यपुस्तकों के अतिरिक्त भी बच्चों को अधिक से अधिक भारतीय भाषाओं अथवा हिन्दी में लिखी पुस्तकें पढ़ने के लिए प्रेरित करना चाहिए तथा अंगरेजी का उपयोग कामकाज पूर्ति के लिए ही करना बेहतर रहेगाI

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इस सन्दर्भ में यह बताना प्रासंगिक और आवश्यक होगा कि अन्य वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार दायां मस्तिष्क व्यक्तित्व के स्नेह, ममता, संगीत, कला, समग्रता, वात्सल्य, काव्य, आत्मीयता, दया, करुणा, परोपकार आदि गुणों का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि बायां गोलार्द्ध व्यक्तित्व में तर्क, गणित, आवश्यकता, उपयोगिता, वस्तु या विचार को खण्ड खण्ड अध्ययन करने या विश्लेषण करने के गुणों का विकास करने के लिए उत्तरदायी माना जाता हैI किसी भी व्यक्ति के सर्वांगीण स्वास्थ्य के लिए मस्तिष्क के दोनों हिस्सों का सन्तुलित रूप से सक्रिय होना जरूरी हैI बाएं मस्तिष्क प्रधान लोग शुष्क-से होते हैं, उनमें स्नेह, दया, सरोकार और आत्मीयता की कमी की सम्भावना रहती हैI

पाश्चात्य देशों में, जहां अंगरेजी का ही बोलबाला है, वहां कुल मिलाकर हर साल 15 लाख से अधिक किशोरी कन्याएं बिन ब्याहे ही संतानों को जन्म दे डालती हैं। यह हालत तब है, जब स्कूलों में ही गर्भपात के संसाधन उपलब्ध हैंI वहां किशोरवय में ही अधिकांश माता-पिता अपने लाड़लों को अपने पैरों पर खड़े होने की हिदायत दे देते हैं, जिसके चलते वे जीविकोपार्जन हेतु काम करते-करते ही अक्सर कुसंगति की गिरफ्त में आ जाते हैं। परिणामत: नशा, अपराध, हिंसा, क्रोध, अवसाद, निराशा, विद्रोह उनके जीवन का हिस्सा बनने लगता हैI

कहीं आप अपने लिए वृद्धाश्रम का इंतजाम तो नहीं कर रहे  

उपरोक्त तथ्यों और अध्ययन को देखते हुए आरम्भिक तथा प्राथमिक शिक्षा को हिन्दी अथवा मातृभाषा की बजाय शुरू से ही अंगरेजी माध्यम से देने से बच्चे के व्यक्तित्व में आवश्यकता और उपयोगिता का सिद्धांत ज्यादा गहराई से स्थापित हो सकता है और उनमें प्रेम, परोपकार, आत्मीयता आदि की कमी या अभाव-सा सम्भव हैI यदि बेटे में आत्मीयता की कमी अभाव और आवश्यकता तथा उपयोगिता का प्रभाव नहीं होता तो क्या मुम्बई के पाश इलाके में रहने वाली मात्र 63 वर्षीय आशा साहनी एक कंकाल के रूप में बदल पाती, जो अपने बड़े से फ्लैट में अकेली रह रही थींI परन्तु उसके विदेश में पैसा कमाने गए लाड़ले बेटे ने डेढ़ साल में एक बार भी न तो स्वयं मां से बात की और न ही किसी अन्य के माध्यम से अपनी ममतामयी मां की कुशलक्षेम का पता लगायाI पता नहीं, उस मां ने कितनी यातनाओं में दम तोड़ा होगा? इधर देश के सबसे धनवान लोगों में से एक तथा रेमंड ग्रुप ऑफ क्लॉथिंग एंड टेक्सटाइल्स के मालिक विजयपत सिंघानिया को उनके बेटे ने घर से निकाल, मौलिक सुख सुविधाओं से ही वंचित कर दिया हैI पिता का दोष बस इतना ही था कि उन्होंने अपनी सारी दौलत आत्मीयता के चलते अपने बेटे के नाम कर दी थी और आत्मीयता से रीते बेटे ऋतुराज ने उपयोगिता और आवश्यकता खत्म होते ही अपने पिता को निकाल बाहर कियाI ये प्रतिनिधि घटनाएं अखबारों की सुर्खियां बन चुकी हैं, साथ ही बढ़ती हुई वृद्धाश्रमों की संख्या की अनदेखी कैसे की जा सकती है?

अपने लाड़लों का भविष्य बनाना चाहते हैं या ह्रदय को शुष्क बनाना

आजकल हम चरित्र-निर्माण से अधिक ध्यान अपने बच्चों के भविष्य-निर्माण पर देते हैं। माता-पिता भी अपने बच्चों को यही समझाते हैं कि भविष्य बनाना, बहुत ज्ञान का अर्जन करना तथा धनवान बनना है, लेकिन सद्चरित्रता के अभाव में भौतिक रूप से धनवान होकर भी व्यक्ति निर्धन है तथा उसका ज्ञान भी अनुपयोगी है। हम देख रहे हैं कि इन दिनों कामकाजी माताओं को अपने शिशुओं को स्तनपान कराने और अपने अंक में शिशुओं को अधिकाधिक समय रखने का सुख, उतना नहीं मिल पा रहा, जितना उनको मिलना चाहिए, जबकि मां और शिशु के बीच यह दुग्धपान तथा अधिकांश समय शिशु को अपने ह्रदय से चिपकाए रखने का सुख, ऑक्सीटोसिन नामक हारमोन का स्रवण करता है, जो मां और शिशु के बीच स्नेह और अनुराग के बंधन को मजबूत करने के लिए उत्तरदायी हैI व्यस्तता और नौकरी की सीमाओं के चलते माताएं शिशुओं को झूलाघर में रखने को विवश हैं, जहां आत्मीयता नहीं। काम निपटाऊ आयाएं दूध पिलाती हैं या अन्य खाद्यान्न खिलाती हैं। वहां स्नेह, ममता और वात्सल्य से भींगे विविध रूपा संस्कार शिशुओं को नैसर्गिक रूप से नहीं मिल पाते हैं, उल्टा झूलाघर का बंधा-बंधाया अनुशासन उनकी कोमल इच्छाओं का दमन करते रहता हैI भले ही इस अपरिहार्य विवशता का एक कारण शिशुओं के भविष्य के लिए माता-पिता द्वारा बेहतरीन सुविधाओं जुटाना हो, परन्तु भविष्य की इन आवश्यकताओं की पूर्ति की भाग-दौड़ आत्मीयता को दोयम दर्जे का बना डालती हैI जिसके सामाजिक विघटनकारी परिणाम माता-पिता-शिशु और समाज को भोगना पड़ते हैंI स्थितियां इतनी विकट हो चुकी हैं कि इस निर्मम चक्रव्यूह को तोड़ना कठिन हो चुका हैI

क्या सामाजिक विघटन की कगार पर खड़े हुए हम, उक्त शोध को ध्यान में रखते हुए अपनी मातृभाषा से अपने बच्चों को वंचित रखना जारी रखेंगे? अथवा उन्हें पाठ्यक्रम के अलावा अधिक से अधिक मातृभाषाई अखबार और पुस्तकें पढने के लिए प्रेरित करेंगेI निश्चय अभिभावकों को ही करना है, क्योंकि व्यक्तित्व विनाश और विकास की कुंजी उन्हीं के हाथों में हैंI

संस्कृत और स्वास्थ्य

यदि संस्कृत भाषा की बात करें तो आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिकों का कहना है कि स्पीच थेरेपी में संस्कृत भाषा श्रेष्ठ सिद्ध हुई हैI इसके उच्चारण मात्र से ही गले का स्वर स्पष्ट हो जाता हैI अमेरिका में स्पीच थेरेपी के लिए संस्कृत को स्वीकृति मिल चुकी हैI स्मरणशक्ति की दृष्टि से भी संस्कृत को नासा के वैज्ञानिकों ने श्रेष्ठ निरूपित किया हैI वैज्ञानिकों का मानना है कि संस्कृत पढ़ने से गणित और विज्ञान की शिक्षा में आसानी होती है, क्योंकि इसको पढ़ने से एकाग्रता आती हैI फोर्ब्स मैगजीन के जुलाई 1987 अंक में संस्कृत को कम्प्यूटर के लिए भी सर्वश्रेष्ठ भाषा माना हैI रचनात्मक और कल्पनाशक्ति को बढ़ावा मिलता हैI संस्कृत दुनिया की अकेली ऐसी भाषा है, जिसे बोलने में जीभ की सभी मांसपेशियों का इस्तेमाल होता हैI नासा के शोधकर्ता श्री रिक ब्रिग्ग्स ने आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस मैगज़ीन में लिखा है कि “भारत के प्राचीन समय के ज्ञानी, सत्य की खोज में इतने समर्पित थे कि उन्होंने इस उद्देश्य के लिए एक सटीक उपकरण का प्रयोग किया- यानी कि “संस्कृत” भाषा का। संस्कृत की व्याकरण एवं संरचना ऐसी है कि उसके व्याख्यान मात्र से ही आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस प्रणाली भाषा के अभिप्राय को आसानी से समझ सकती है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में होने वाली आधुनिक रिसर्च का मूल हज़ारों वर्षों पूर्व “संस्कृत” में सन्निहित है।’’ नासा में हरेक वैज्ञानिक को पन्द्रह दिन तक संस्कृत सीखना अनिवार्य हैI

क्या कभी हम अपनी विरासत पर गर्व करने की सोच सकेंगे? 

महान भाषावादी और अमेरिका में लिंगविस्टिक सोसाइटी के संस्थापक लियोनार्द ब्लूमफिल्ड ने पाणिनि अष्टाध्यायी के अध्ययन के बाद कहा है कि “संस्कृत मानवीय बुद्धिमता का महानतम मन्दिर हैI” यूनेस्को ने भी मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत की सूची में “संस्कृत वैदिक जाप” को जोड़ने का निर्णय लिया है, यूनेस्को ने माना है कि संस्कृत में जाप से शरीर और मन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता हैI अमेरिकन हिन्दू यूनिवर्सिटी के अनुसार नित्य प्रति संस्कृत में बात करने वाले व्यक्ति उच्च रक्तचाप और मधुमेह से मुक्त हो सकते हैंI जर्मनी में विद्यार्थियों की जोरदार मांग के चलते 14 विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ाई जाती हैI भविष्य के प्रति आशान्वित और विश्व की विभिन्न आवश्यकताओं की बाढ़ से बेहतर तरीके से जूझने के लिए विद्यार्थी संस्कृत सीखना चाहते हैंI

साउथ एशिया इंस्टीट्यूट, यूनिवर्सिटी ऑफ हैडलबर्ग के क्लासिकल इंडोलॉजी के विभागाध्यक्ष प्रोफेसर डॉ.एक्सेल माइकल्स के अनुसार 15 वर्ष पूर्व हमने संस्कृत का पाठ्यक्रम यह सोचकर शुरू किया था कि दो तीन साल में बन्द करना पड़ेगा, परन्तु हमें संख्या निरन्तर बढ़ाना पड़ रही है, 34 देशों के ढाई सौ से अधिक विद्यार्थी यहां से प्रशिक्षित हो चुके हैं, जिनमें अमेरिका, ब्रिटेन, इटली और यूरोप के विद्यार्थी हैंI मेडिकल स्टूडेंट फ्रांसेस्का लुनारी यह जानने–समझने के लिए संस्कृत सीख रहा है, ताकि मानवीय विचारों के मूल का मनोविश्लेषण कर सकेंI नासा के वैज्ञानिकों के अनुसार जब वे अन्तरिक्ष ट्रेवलर्स को सन्देश भेजते थे तो उन सन्देशों में प्रयुक्त शब्दों का स्थान पलट जाता थाI इस कारण से सन्देश का अर्थ ही बदल जाता थाI कई भाषाओं का उपयोग किया, परन्तु समस्या जस की तस रहीI अन्तत: हमने संस्कृत का चयन किया, क्योंकि इसमें शब्दों के स्थान परिवर्तन से अर्थ नहीं बदलते हैंI

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