- प्रेमकुमार मणि
25 जून भारतीय राजनीति में एक उल्लेखनीय तारीख है। इसी रोज 1975 में, तत्कालीन इंदिरा सरकार ने इमरजेंसी लगाई थी। दरअसल वह आपातकाल नहीं, आतंककाल था। सब कुछ दस बजे रात्रि के बाद हुआ था, इसलिए देश की जनता को अगले दिन सुबह तब जानकारी मिली, जब ज्यादातर अख़बार नहीं प्रकाशित हुए। देश भर में अफवाहों का बाजार गर्म हो गया। दरअसल वह आपातकाल नहीं, आतंककाल था।
पृष्ठभूमि दिलचस्प है। 1971 में लोकसभा के चुनाव हुए थे, जिस में इंदिरा गाँधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को दो तिहाई बहुमत मिला था। तमाम विपक्षी दल और बड़े नेता धराशायी हो गए थे। इंदिरा रायबरेली संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ी थीं, जहाँ उनका मुकाबला सोशलिस्ट राजनारायण ने किया था। चुनाव में पराजित राजनारायण ने इंदिरा के विरुद्ध एक चुनाव याचिका इलाहाबाद हाई कोर्ट में लगाई थीं, जिसमें आरोप था कि इंदिरा गाँधी के चुनाव प्रभारी यशपाल कपूर ने अधिकारी रहते हुए यह कार्य किया, जो नियम विरुद्ध है। नियमतः कोई अधिकारी किसी दल विशेष का कार्य नहीं कर सकता। सच्चाई यह थीं कि यशपाल कपूर, जो भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी थे, ने अपने पद से इस्तीफा तो कर दिया था, लेकिन उनका इस्तीफा चुनाव -प्रक्रिया आरम्भ हो जाने के कुछ रोज बाद स्वीकृत हुआ। इसी आधार पर न्यायमूर्ति जगमोहन सिन्हा ने 12 जून 1975 को इंदिरा गाँधी का चुनाव रद्द कर दिया।
संसदीय प्रणाली में यह बड़ी घटना नहीं होनी चाहिए थीं। इसलिए कि यदि चुनाव हुए हैं और उस के विरुद्ध अपील की जा सकती है और उसे कभी अवैध होने की भी संभावना हो सकती है, तो यही हुआ था। इसमें पार्टी का कोई दूसरा नेता, उनके बरी होने तक, या पूर्णकालिक प्रधानमंत्री की शपथ ले सकता था। समस्या यह थी कि इन्दिरा एकोअहम् द्वितीयोनास्ति के गैर जनतांत्रिक सिद्धांत पर चलने लगी थीं। कांग्रेस के अंदरूनी लोकतंत्र का हाल यह था कि इंदिरा के सिवा किसी अन्य के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता था। इसी कारण अफरा -तफरी मच गयी। जनतान्त्रिक भावनाओं और नैतिकता के अनुरूप इंदिरा गांधी को इस्तीफा करना था। उपलब्ध स्रोत बतलाते हैं कि वह तैयार भी हो चुकी थीं। लेकिन वह वक़्त उनके छोटे बेटे संजय के उभार का था। संजय का एक गिरोह था। उसने इस स्थिति को अपने हाथ में लिया और माँ पर दबाव बनाया कि वह इस्तीफा नहीं दें। इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने नियमन किया कि एपेक्स कोर्ट से फैसला आने तक इंदिरा गांधी पद पर रह सकती हैं। यह नियमन 24 जून तक आ चुका था और ऐसे में अब इस्तीफा संवैधानिक मजबूरी तो नहीं थी, नैतिक जरूर थी।
इसी बीच जेपी ने 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में रैली की और उमड़ी भीड़ से ऐसा लगा कि उनका बिहार आंदोलन अब देश भर में फ़ैल जाएगा। इंदिरा डर गयीं। इसी पृष्ठभूमि में इंदिरा गांधी ने अचानक इमरजेंसी लगाने का निर्णय लिया। तब मुल्क में जनतंत्र स्थापित हुए मात्र पचीस साल हुए थे। ऐसा लगा तमाम जनतांत्रिक रिवाजों को इंदिरा ने एक झटके में उलट दिया। उन्हें एक तानाशाह के रूप में देखा गया। नेहरू की बेटी का यह रूप लोगों को अजीब लगा। लेकिन, सच यही था कि इमरजेंसी के रूप में तानाशाही देश पर थोप दी गयी थी।
विशन टंडन उन दिनों प्रधानमंत्री कार्यालय में संयुक्त सचिव थे। 1951 बैच के आईएएस अधिकारी श्री टंडन ने उन दिनों जो डायरी लिखी थी,उस का संकलन प्रकाशित है। चित्र की तरह प्रधानमंत्री कार्यालय के हालत वर्णित हैं। टंडन, जो स्वयं वहां वरिष्ठ अधिकारी थे, को 25 की रात तक कुछ पता नहीं था। 26 की सुबह वह भी जान पाते हैं। उनके ही शब्दों में देखिये –
“सुबह उठा तो कम्मी ने कहा कि वर्धन का फोन आया था, उससे बात कर लूँ। एक परिचित पत्रकार का फोन आया कि रात में करीब एक सौ विरोधी नेता गिरफ्तार किये गए हैं। अख़बार केवल स्टेट्समैन और हिंदुस्तान टाइम्स आये। बाकी छपे ही नहीं। कार्यालय के लिए जब घर से निकल रहा था तो शारदा (प्रधानमंत्री के प्रेस सलाहकार) का फोन आया। उसने अंग्रेजी में कहा- सब सुन लिया। सब समाप्त हो गया। (यू मस्ट हैव हर्ड इट इज आल ओवर) कार्यालय आओगे, तब पूरी बात होगी। शारदा का स्वर बहुत दबा हुआ था।”… “शेषन आज कार्यालय बहुत देर से आया। आते ही मेरे पास आया। कहा- देखिए मैंने कहा न, पर मेरी समझ में नहीं आता कि आगे क्या होगा। कब तक ऐसे चलेगा? संजय ने पूरा कंट्रोल ले लिया है।”
इमरजेंसी रात में ही लग गई। राष्ट्रपति के हस्ताक्षर ले लिए गए, लेकिन कैबिनेट का अनुमोदन अगले रोज सुबह हुआ। कैबिनेट में किसी ने कोई सवाल नहीं उठाया। यह तब का लोकतंत्र था। हालांकि आज भी स्थितियां वैसी ही हैं, या उससे भी बुरी। केवल इमरजेंसी घोषित नहीं है। अधिकतर पार्टियों के आतंरिक लोकतंत्र बिलकुल खत्म हैं।
27 जून की डायरी में टंडन ने लिखा- “प्रधानमंत्री आज कार्यालय कई दिनों के बाद आईं थीं। मैं उनसे मिला। विशेष बात नहीं हुई। कुछ रूटीन बातों पर आदेश देने थे। मैं करीब 35 मिनट प्रधानमंत्री के पास था। मुझे उनकी परेशानी कम नजर नहीं आई।”
जो सन्नाटा प्रधानमंत्री कार्यालय में था, उस से कई गुना अधिक बाहर था। विपक्षी पार्टियों के तमाम नेता हिरासत में ले लिए गए। चंद्रशेखर जैसे कांग्रेस नेता भी हिरासत में आये। इस तरह पूरे देश में आतंक का माहौल बन गया।
इमरजेंसी उन्नीस महीने रही। चुनाव लाजिमी थे। क्योंकि संविधान संशोधन द्वारा संसद की एक साल की बढ़ाई गयी मियाद भी पूरी हो चुकी थी। अब कोई रास्ता नहीं था। 1977 के मार्च में लोकसभा चुनाव हुए और कांग्रेस बुरी तरह पराजित हुई। स्वयं इंदिरा गांधी रायबरेली से चुनाव हार गयीं। पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस का सफाया हो गया।
इमरजेंसी की पूरी घटना को नयी पीढ़ी शायद कम जानती है। इसे पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए। यह हमें सबक देता है कि जनतांत्रिक ढाँचे में भी किस तरह तानाशाही प्रवृत्तियां दुबकी रहती हैं और अवसर पाकर राजनीति पर काबिज हो जाती हैं। इसकी यह भी शिक्षा है कि देश में लोकतंत्र तभी सुरक्षित रह सकता है, जब राजनीतिक दलों में भी आतंरिक लोकतंत्र कायम हो। महत्वपूर्ण पदों पर आसीन लोगों को गोपनीयता के साथ-साथ परिवारवाद से मुक्त रहने की भी शपथ लेने का संवैधानिक प्रावधान होना चाहिए। सरकारी आवास में पति या पत्नी के साथ अठारह वर्ष से कम उम्र के बच्चों को ही रहने की अनुमति हो। लोकतांत्रिक रिवाजों को मजबूत करने के लिए समय-समय पर संवैधानिक संशोधन भी होने चाहिए। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है देश के लोगों का संकल्प कि हम डेमोक्रेसी को अपने चरित्र का हिस्सा बनाएँगे। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हमने आपातकाल से कुछ भी नहीं सीखा है।
(लेखक प्रेमकुमार मणि राजनीतिक चिंतक हैं। आलेख में उनके विचार निजी हैं)
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