- प्रेमकुमार मणि
मैं जब युवा था, तब प्रेमचंद और जैनेन्द्र को लेकर मेरे मन में कभी कभार उधेड़-बुन होता था। प्रश्न उठता था कि यदि दोनों में से किसी एक को चुनने की विवशता हो तो मैं किसे चुनूंगा? प्रश्न अटपटा जैसा था, लेकिन प्रश्न तो आखिर प्रश्न होते हैं। अब इस तरह के बौड़म सवाल का कोई भी मज़ाक उड़ा सकता है।
कौन नहीं जानता कि जैनेन्द्र केलिए प्रेमचंद गुरुतुल्य थे। फिर इन दोनों में तुलना कैसी? लेकिन जैनेन्द्र के प्रति मेरी कोई आसक्ति थी, जो ऐसे प्रश्न उछाल देती थी। और किसी के प्रति कोई निजता विकसित होती है तो वह नाप-तौल के बटखरों और औजारों से संचालित नहीं होती, दिल के आवेगों से होती है। मैं स्वीकार करना चाहूंगा कि जैनेन्द्र के कई उपन्यास प्रेमचंद की तुलना में मुझे अधिक प्रगल्भ दीखते हैं। जैसे प्रेमचंद साहित्य में ‘त्यागपत्र ‘ का अभाव है। यूँ मैं ‘गोदान ‘को भी ‘मैला आँचल ‘से कमतर मानता हूँ। लेकिन यह सब नितांत व्यक्तिगत रुचि-अरुचि के सवाल हैं। इन सब को सार्वजनिक करना शायद निजता की गोपनीयता भंग करने जैसा होगा। इसलिए इन सब को यहीं छोड़ता हूँ।
जैनेन्द्र की चर्चा इसलिए कर रहा हूँ कि अभी-अभी मैंने जैनेन्द्र की जीवनी पढ़ कर पूरी की है, जिसे कथाकार-आलोचक और मेरे मित्र ज्योतिष जोशी ने ‘अनासक्त आस्तिक’ शीर्षक से लिखा है। रजा फाउंडेशन द्वारा राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक में कुछ तो ऐसी खासियत है कि 299 पृष्ठों की इस जिल्द को एक ही बैठकी में पढ़ गया। इसका कारण संभवतः जैनेन्द्र साहित्य के प्रति मेरा अनुराग -आकर्षण ही था। लेकिन इस किताब में कोई जादुई आकर्षण न होता तो क्या टिक पाना संभव होता? शायद नहीं। प्रांजल भाषा, प्रस्तुतीकरण के खास अंदाज और एक विशद औपन्यासिक ठाट में किसी को भी बाँधे रखने का सामर्थ्य इस किताब में देखा जा सकता है।
यूँ तो हर लेखक कुछ अपने सा होता है, लेकिन जैनेन्द्र कुमार (1905-1988 ) को किसी तय खांचे या ढाँचे में रख पाना किसी के लिए भी संभव नहीं हुआ। उनका स्वभाव विरल था। वह प्रेमचंद के साथ रहे, लेकिन प्रेमचंद का कोई प्रभाव उन पर ढूँढ पाना मुश्किल है। गांधी-नेहरू-विनोबा के अंतरंग रहे, लेकिन किसी का प्रभाव उन पर परिलक्षित होता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। हिंदी साहित्यांदोलनों की किसी भी धारा, किसी भी पंथ से उनका कोई संबंध नहीं बन सका। 1936 के ऐतिहासिक महत्व वाले प्रगतिशील लेखक संघ के जलसे में शामिल होने वाले प्रेमचंद के अलावा वे दूसरे हिंदी लेखक थे। लेकिन ऐसे कि वहां जाकर भी जलसे से अलग-थलग रहे। क्योंकि इनके पहुँचने के पूर्व ही संघ का मैनिफेस्टो स्वीकृत हो गया था। संघ का जनतंत्र ऐसा था कि मेनिफेस्टो स्वीकृत हो जाने पर उस पर बहस होने जा रही थी, जो कि जैनेन्द्र को अटपटा लगा। प्रेमचंद के बहुत समझाने पर भी वह नहीं माने। यह उनकी लेखकीय आस्था थी।
जैनेन्द्र की यह जिद ही उनकी पूँजी थी, उनकी विशिष्टता थी। बनारसीदास चतुर्वेदी के साथ रवि बाबू से मिलने वह शांति निकेतन जाते हैं। पहली ही मुलाकात में रवि बाबू से मुंह लड़ा बैठते हैं। वाजिब सवाल पर तो उनका ईश्वर भी उन्हें चुप नहीं करा सकता था। यह उनका लेखकीय साहस था, व्यक्तित्व भी। वह वाचाल नहीं थे, विनम्रता भी उनमे गहरी थी। स्वभाव से सब मिला कर संकोची और शर्मीले ही अधिक थे। लेकिन उनमें ऐसी निर्भीकता थी, जो हिंदी लेखकों में कम मिलती है। इसे ही उनकी खासियत कह सकते हैं।
जैनेन्द्र ने संघर्ष का जीवन जिया। दो वर्ष के थे कि पिता की मृत्यु हो गयी। उनके मामा (जो बाद में सुप्रसिद्ध देशभक्त महात्मा भगवानदीन हुए) उनकी माँ को अपने साथ ले गए, जहाँ वह रेलवे की नौकरी करते थे। लेकिन दो साल बाद ही उन्होंने स्वयं सब कुछ छोड़ संन्यास ले लिया। संघर्षशील माँ ने अपने बूते जैनेन्द्र (बचपन का नाम आनंदीलाल) को पाला-पोसा। माँ का संघर्ष और मामा का संन्यास जैनेन्द्र की चेतना के स्थायी तत्व बन गए। यह चेतना उनके जीवन और लेखन दोनों में दिखती है।
लगभग तीन सौ पृष्ठों की इस पुस्तक को लिखने में लेखक ज्योतिष जोशी ने काफी मेहनत की है। उन्होंने व्यक्ति जैनेन्द्र और लेखक जैनेन्द्र के अंतर ही नहीं, इन दोनों के अंतर्संबंधों को भी समझा है। किसी लेखक के जीवनी लेखक के लिए सम्बद्ध लेखक के साहित्य का सूक्ष्म-समीक्षक होना भी जरूरी होता है। यहाँ निश्चय ही ज्योतिष का आलोचकीय हुनर काम आया है। बीच-बीच में जब भी वह उनके साहित्य पर टिप्पणियां करते हैं, तब एक नया दृष्टिकोण दिखता है। जैनेन्द्र के स्त्री पात्र इतने मुक्त और सशक्त हैं कि आश्चर्य होता है, वह हिंदी साहित्य में कैसे टिके रह गए। आधुनिक हिंदी साहित्य में स्त्री-विमर्श की उन्होंने शुरुआत की। ‘परख’ हो या ‘सुनीता’; या कि फिर ‘त्यागपत्र’ या ‘दशार्क’ जैनेन्द्र ने कभी किसी लिजलिजे स्त्री पात्र की सृष्टि नहीं की। वह बराबर कहते रहे कि किसी देश-समाज की आज़ादी का मतलब है, उसके स्त्रियों की आजादी। उनके स्त्री पात्रों में रवीन्द्रनाथ टैगोर के स्त्री पात्रों-सी प्रगल्भता और शरत बाबू के स्त्री पात्रों की करुणा नपे-तुले अंदाज़ में होते हैं। हाँ, हिन्दू धर्मशास्त्रकार मनु की पूज्य किन्तु गुलाम स्त्री उनके यहां नहीं मिलती।
जैनेन्द्र आस्तिक भी थे और जैनी भी। गांधी पर उनकी आस्था हमेशा रही। उनके निकट साहचर्य में भी रहे। लेकिन मैथिलीशरण गुप्त की तरह गांधी टोपी उन्होंने कभी धारण नहीं की। हाँ, खद्दरधारी (ज्योतिष के हिसाब से अंतःवस्त्र तक) अवश्य रहे। स्वतंत्रता आंदोलन में सत्याग्रही बने, लेकिन आज़ादी के उपरांत इसे छोड़ नहीं दिया। जिंदगी भर सत्य के लिए आग्रह बनाये रखा। उसी भाव से वह संघर्ष करते रहे। देश में जब इमरजेंसी लगी, तब इंदिरा गांधी ने उन्हें मिलने के लिए आदर के साथ बुलाया। वह गए, लेकिन जाकर दो टूक कहा कि आपने गलत किया है और इस इमरजेंसी को तुरंत वापस लीजिए तो बेहतर होगा, आपके लिए भी। इंदिरा गांधी को ऐसे जवाब की उम्मीद नहीं थी। लेकिन जैनेन्द्र ने एक लेखक की निर्भीकता और दायित्व का बखूबी परिचय दिया। यह जैनेन्द्र का व्यक्तित्व था। पूरी जिंदगी मसिजीवी रहे जैनेन्द्र ने दिल्ली की पूरी जिंदगी किराये के मकान में गुजारी। इंदिरा गांधी ने दो बार बुला कर भूखण्ड और मकान आबंटन किया। लेकिन उन्होंने लेने से इंकार कर दिया। आखिरी समय में जब वह लकवाग्रस्त हो गए और किराये का घर, जिसमे वह लगातार चालीस वर्षों से रह रहे थे, जब उन से खाली करवाया गया, तब वह रिश्तेदार के यहां आकर रहने लगे। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी को जब सूचना मिली, तब उन्होंने उनके लिए मकान आबंटित किया। फॉर्म पर तो उनके ही हस्ताक्षर होने थे। वह इंकार करते रहे। बेटे ने इस बार पैर पकड़ लिया और रो पड़े कि अब हम कहाँ रहें? इस विवशता पर उन्होंने हस्ताक्षर तो कर दिया, लेकिन पूरी ताकत से कलम फेंक कर अपने गुस्से का इज़हार भी किया। जैनेन्द्र ने अपने जीवन की चादर कभी मैली नहीं की। कोई समझौता नहीं किया। लेखक की तरह जिए, लेखक की तरह मरे।
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लेखक ज्योतिष जोशी को इस महत कार्य के लिए मैं दिल की गहराइयों से अभिननदन करता हूँ, बधाई देता हूँ। उन्होंने हिंदी समाज का एक ऋण अदा किया है। (फेसबुक वाल से साभार)
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