जनवरी बिहार के लिए भारी, नीतीश कुमार NDA में जाएंगे या बने रहेंगे I.N.D.I.A में, इसी माह हो जाएगा खुलासा

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बिहार की राजनीति को समझना मुश्कल ही नहीं, नामुमकिन है। क्या नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की जोड़ी बरकरार रहेगी ?
बिहार की राजनीति को समझना मुश्कल ही नहीं, नामुमकिन है। क्या नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की जोड़ी बरकरार रहेगी ?

पटना। नीतीश कुमार ने इंडी अलायंस के संयोजक पद को ठुकरा कर बिहार में बड़े सियासी खेल का प्लाट तैयार कर दिया है। ऐसा करना नीतीश के लिए अपने अपमान से बचने का तरीका तो रहा ही, आरजेडी को काबू में रखने की यह उनकी चाल भी हो सकती है। एक संभावना यह भी जताई जाने लगी है कि नीतीश कुमार का फिर अपने पुराने गठबंधन- एनडीए में जाने का रास्ता खुल सकता है। यानी नीतीश ने एक तीर से तीन निशाने साधे हैं। कांग्रेस से नीतीश ने अपने अपमान का बदला साधा है तो आरजेडी को अपनी शर्तें मानने को मजबूर कर दिया है। विपक्ष में रह कर बीजेपी के प्रति उनका आकर्षण भी लोगों को चौंकाता रहा है।
नीतीश ने इंडी अलायंस पर नैतिक दबाव बना लिया
नीतीश कुमार ने संयोजक पद यह कह कर ठुकराया कि उन्हें किसी पद की लालसा नहीं है। हालांकि पीएम पद की दावेदारी के संबंध में वे इस तरह की बात पहले से ही कहते रहे हैं। यह अलग बात है कि पहले आरजेडी और बाद में जेडीयू नीतीश को पीएम फेस और संयोजक बनाने की मांग करते रहे हैं। जेडीयू नेता अब फख्र के साथ कह सकते हैं कि नीतीश संयोजक की भूमिका तो पहले से ही निभाते रहे हैं। उनके लिए इस पद का कोई औचित्य नहीं है। अगर बनाना ही है तो नीतीश को पीएम फेस विपक्ष घोषित कर दे। नीतीश ने शनिवार को हुई वर्चुअल बैठक में शिरकत की। पहले भी वे सभी बैठकों में शामिल होते रहे हैं। इसलिए अब यह बात बेमानी हो गई है कि वे संयोजक न बनाए जाने से नाराज हैं। अगर उन्होंने इंडी अलायंस से अलग होने का कोई निर्णय भी लिया हो तो कोई यह आरोप नहीं लगा सकता कि उन्होंने गठबंधन को धोखा दिया है। अलायंस से अलग होने की स्थिति में वे अब खुल कर कह सकते हैं कि सब कुछ करने के बाद भी उनके साथ जो सलूक हुआ, वह गलत था।
इंडी अलायंस में अब नीतीश की शर्तें मानना मजबूरी
नीतीश के इस कदम से उनका नैतिक कद काफी बढ़ गया है। बिहार में लोकसभा सीटों के लिए उनका बारगेनिंग पावर भी पहले से बढ़ा है। आरजेडी अब शायद ही उन पर इस तर्क के साथ हावी होने की कोशिश करे कि विधानसभा में उसके सदस्यों की संख्या अधिक है, इसलिए उसे भी जेडीयू के बराबर ही सीटें चाहिए। जेडीयू के नेता पिछली बार की तरह ही इस बार भी 17 सीटों की मांग करते रहे हैं। उन्होंने तो गठबंधन की परवाह किए बगैर आरजेडी को यह भी साफ कर दिया है कि उनकी सीटें छोड़ कर बाकी सीटों में वह और उसके पार्टनर बंटवारा कर लें। ऐसा हुआ तो कांग्रेस की नौ या गयारह सीटों पर बिहार में चुनाव लड़ने की मंशा धरी रह जाएगी।
अब नीतीश कुमार के सामने कौन-कौन से विकल्प हैं
नीतीश कुमार अगर भाजपा के साथ जाने का फैसला करते हैं तो एनडीए की बल्ले-बल्ले हो जाएगी। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी-जेडीयू की युगलबंदी जलवा दिखा चुकी है। बिहार की कुल 40 सीटों में 39 पर एनडीए ने जीत दर्ज की थी। वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में जेडीयू को 21.81 प्रतिशत वोट मिले थे। बीजेपी को 23.58 प्रतिशत वोट आए थे। यानी ये दोनों दल अगर साथ रहे तो 45 प्रतिशत से थोड़ा अधिक वोट एकमुश्त एनडीए की झोली में आ जाएंगे। जीतन राम मांझी और लोजपा के चिराग पासवान और पशुपति पारस भी एनडीए में हैं। यानी दलित वोटरों का भी समर्थन मिलेगा। इसलिए इंडी अलायंस छोड़ने पर नीतीश की पहली प्राथमिकता में एनडीए ही रहना चाहिए। इंडी अलायंस में रहते अगर उनकी शर्तें मान भी ली गईं तो सबसे बड़ा संकट वोट ट्रांसफर का होगा। आरजेडी के विरोध में ही जेडीयू का गठन हुआ था। यानी आरजेडी के पास जो यादव-मुस्लिम यानी M-Y समीकरण के वोट हैं, शायद ही नीतीश को ट्रांसफर हो पाएं। यादव मानते हैं कि नीतीश की वजह से ही लालू-राबड़ी की सत्ता गई थी। नीतीश के वोटरों का भी मिजाज आरजेडी से मेल नहीं खाता। नीतीश के लिए दोनों रास्ते खुले हैं, पर वे शायद ही हड़बड़ी में कोई फैसला लें।
भाजपा के पास नीतीश के लिए ज्यादा वक्त नहीं है
मीडिया रिपोर्ट में जैसी सूचनाएं आती रही हैं, उससे तो यही लगता है कि नीतीश का झुकाव भाजपा की ओर दिख रहा है। चर्चा तो यह भी खूब हो रही है कि नीतीश कुमार का विपक्षी राजनीति से मन भर आया है। आरजेडी उनकी ही पार्टी को तोड़ने का षडयंत्र रच रही है। जेडीयू के 11 विधायकों की गोपनीय बैठक की खबरें भी मीडिया में आ चुकी हैं। नीतीश के मन में खटास की एक बड़ी वजह यह भी मानी जा रही है। नीतीश को अब तय करना है कि उन्हें अपनी भलाई इंडी अलायंस में दिख रही है या एनडीए में। भाजपा के पास भी बहुत वक्त नहीं बचा है। उसे इस महीने के आखिर तक बिहार के बारे में सारी चीजें तय कर लेनी हैं। पीएम के बिहार दौरे के टलने के पीछे भी यही कारण बताया जा रहा है। इसलिए जनवरी का महीना बिहार की सियासत के लिए उथल-पुथल भरा और चौंकाने वाला साबित हो सकता है।

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