ईनाडू मीडिया समूह के डायरेक्टर रहे एसआर रामानुजन के की कार्यशैली के बारे में उनके साथ काम कर चुके गुंजन ज्ञानेंद्र सिन्हा ने फेसबुक वाल पर लिखा है। उन्होंने लिखा है कि रामानुजन साहब ने कभी पत्रकारिता के काम में प्रबंधकों को कभी हस्तक्षेप नहीं करने दिया। पढ़ें रामानुजन साहब के बारे में उन्होंने क्या लिखा हैः
- गुंजन ज्ञानेंद्र सिन्हा
ईनाडू मीडिया समूह के डायरेक्टर थे एसआर रामानुजन साहब. नाम और मालिकाना तो रामोजी राव साहब का था, लेकिन उनके एक छोटे से अखबार ईनाडु से शुरू कर उसे बाईस लोकप्रिय संस्करणों, अनेक पत्रिकाओं और विभिन्न भाषाओँ वाले बारह चैनलों का विशाल मीडिया समूह बनाने की यात्रा रामानुजन साहब के निर्देशन में ही हुई थी। कुशल, सरल और विनम्र रामानुजन साहब जबतक ईनाडु समूह के निदेशक थे, तबतक समूह की तरक्की दिन दूनी रात चौगुनी होती रही।
उन्होंने पत्रकारिता के काम में प्रबंधकों को कभी हस्तक्षेप नहीं करने दिया। लेकिन अत्यधिक मेहनत के कारण जब वे बीमार रहने लगे तब रामोजी के गिर्द घेरा बनाए कुछ प्रबंधकों ने रामानुजन साहब के खिलाफ रामोजी के कान भरने शुरू किये और उन्हें किनारे करते गए। अंत में ऐसा होने लगा कि रामानुजन साहब अपने चैंबर में बैठे रहते और उन्हें बुलाए बिना रामोजी साहब चैनलों की मीटिंग कर लेते। इस तरह अपमानित होने के बाद रामानुजन साहब ने अंत में स्वास्थ्य कारण बताते हुए इस्तीफ़ा दे दिया।
पैंतीस वर्षों तक कम्पनी को वफादार सेवा देने के बाद जिस दिन वे इस्तीफ़ा देकर ईटीवी के उस विशाल ऑफिस से नीचे उतरे, पैंतीस लोग भी उन्हें विदा करने बाहर तक नहीं आये। कम्पनी की ओर से एक गुलाब का फूल तक उन्हें भेंट नहीं किया गया। मैंने जब उस दिन चैनल प्रमुखों की मीटिंग में यह प्रस्ताव रखा कि रामानुजन साहब को एक विदाई समारोह करके सम्मानित किया जाए, तब तुरत मेरे समकक्ष एनके सिंह ने मना किया कि इसके बारे में बाद में बात कर लेंगे और फिर धीरे से मुझे चेताया कि चेयरमैन (रामोजी) नाराज़ हो जाएँगे।
खैर, रामानुजन साहब बीमार रहते थे। फिर सुना वे बेटे के पास अमेरिका चले गए। मेरा भी हैदराबाद छूट गया। और संपर्क समाप्त हो गया। बीच में कई बार कोशिश की, लेकिन उनका नम्बर किसी से मिल नहीं सका। वे ही मुझे ईटीवी में लाए थे और काम करने की पूरी आज़ादी दी थी। आज वर्षों बाद एक पुरानी डायरी में उनका मोबाइल नम्बर मिला तो मैंने यूँ एक चांस लेते हुए ट्राई किया. और सुखद आश्चर्य कि उधर से खुद उन्होंने ही फोन उठाया। फिर काफी बातें हुईं। उन्होंने बताया कि अमेरिका गए तो थे, लेकिन वे अपने देश को प्यार करते हैं। इसलिए घूम फिर कर वापस लौट आये।
उनके साथ काम करते हुए मुझे काफी कुछ सीखने को मिला। कभी-कभी मैं देखता था कि उन्हें नज़रंदाज़ कर चेयरमैन कोई गलत फैसला ले रहे हैं। एक बार ऐसे में मैंने उनसे पूछा कि आप चेयरमैन को मना क्यों नहीं करते? तो उन्होंने जो ज़वाब दिया, वह सफलता की दुनिया और दुनियावी संबंधो का एक सोचने लायक सच है। उन्होंने कहा- “देखिये मैं चेयरमैन के साथ बहुत लम्बे समय से, तब से हूँ, उनका इतना बड़ा साम्राज्य नहीं था। वे जिस चीज में हाथ डालते थे उसमे सफल होते थे। दक्षिण भारत में रामोजी को ‘मैन विद मीदास टच’ माना जाता था। यानी मिट्टी को छू दें तो सोना हो जाए। लेकिन जैसे जैसे सफलता मिलती गई, वे अकेले होते गए। अब वे अपनी सफलता के कैदी हो गए हैं। ही इज अ प्रिजनर ऑफ़ हिज सक्सेस।
अब उन्हें लगता है कि वे कभी गलत हो ही नही सकते। ऐसे में अगर कोई कहता है कि यह फैसला सही नहीं है तो वे उसे नापसंद करते हैं और किनारे कर देते हैं। उनके पास ऐसे लोगों की अब कमी नहीं है, जो उनकी हर बात को एकदम सही घोषित करते हैं। बॉस इज आलवेज राइट वाले लोग।’’
रामानुजन साहब ईटीवी छोड़ कर चले गए। उनके जाने के बाद 2007 तक रामोजी साहब ने पत्रकारिता में विज्ञापन और व्यापार का घाल मेल नहीं होने दिया। करोड़ों का घाटा सहकर भी पत्रकारों को विज्ञापन के धंधे से एकदम अलग रखा, लेकिन अंत में उन्होंने हिंदी चैनलों को न जाने किन शर्तों पर जगदीश चन्द्र कातिल के हवाले कर दिया। तब ईटीवी के लोगों को विज्ञापन वगैरह कहीं से भी पैसे जुटाने में लगाया जाने लगा, लोग निकाले जाने लगे, बदले जाने लगे और अब तो अधिकांश चैनल बिक गए हैं।
रामोजी ने बेचने के बाद ईटीवी भारत नाम से एक डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म शुरू किया है। वहां भी पत्रकार रोज निकाले रखे जाते हैं। रामानुजन साहब के समय भी तनख्वाहें कम थीं, लेकिन लोग निकाले नहीं जाते थे। लेकिन कई लोग दिल्ली और बेहतर वेतन के लिए ईटीवी छोड़ कर चले जाते थे। तब मैंने एक दिन कहा था कि जो लोग छोड़ कर जाते हैं, उन्हें आज़ाद पत्रकारिता का मौका दिल्ली के उन चनलों में कहाँ मिलेगा?
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इस पर रामानुजन साहब ने कहा कि “जिसने ईटीवी से ही करियर शुरू किया, उसे क्या मालूम कि इस आज़ादी की कीमत और इसका महत्व क्या है। आगे जब वे कहीं इसकी कमी देखेंगे, तब उन्हें महसूस होगा कि पत्रकारीय आज़ादी क्या होती है। नए पत्रकारों ने तो गुलाम पत्रकारिता का अभी कोई स्वाद ही नही पाया है ना”।
सोचता हूँ कि अगर रामानुजन साहब को रामोजी ने किनारे नहीं किया होता तो शायद उन्हें अपने चैनल बेचने की नौबत भी नहीं आई होती। अकबर महान सिर्फ इसलिए नहीं था कि उसने महान साम्राज्य बनाया, महान इसलिए बना कि उसने महान नवरत्न चुने और उन्हें ससम्मान रखा। कोई भी अकेला महान नहीं बनता। महान एक टीम होती है, व्यक्ति नहीं।
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