कई दल मिल कर जब सरकार बनाते हैं तो क्या होता है? कभी-कभी वैसा ही होता है, जैसा चौधरी चरण सिंह की सरकार के साथ 1979 में हुआ था। कांग्रेस ने बाहर से बिना शर्त समर्थन दिया और 28 जुलाई 1979 को चैधरी साहब प्रधानमंत्री बन गए। पर, कुछ ही समय बाद ऐसी परिस्थिति बनी कि उन्होंने 20 अगस्त को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। उस समय की चर्चित साप्ताहिक पत्रिका ‘रविवार’ के उदयन शर्मा को चरण सिंह ने बताया था कि उन्होंने इस्तीफा क्यों दिया। सनद रहे कि दबाव की राजनीति के तहत उन्होंने (इंदिरा जी ने) बिहार और हरियाणा में जनता पार्टी की सरकारों का साथ दिया।
चौधरी चरण सिंह के शब्दों में- ‘मुझे इंदिरा गांधी के बारे में गलतफहमी कभी नहीं थी। पर हमने सोचा कि एक महत्वपूर्ण सवाल पर, जिससे राष्ट्रीय एकता जुड़ी थी, जब उन्होंने बिना शर्त समर्थन देने को कहा, तो हमने उसे स्वीकार किया कि इससे देश में नया वातावरण बन सके और राष्ट्र निर्माण और राष्ट्रीय अनुशासन की तरफ हम फिर बढ़ सकेंगे।’
‘….पर इंदिरा गांधी ने अपने नजदीकी लोगों से इस बात के संदेश भेजना शुरू किया कि जब तक संजय के मुकदमे उठा नहीं लिए जाते, वे 20 तारीख को विश्वास मत पर मेरी सरकार का साथ नहीं दे सकतीं। और गैर असूली और दबाव की राजनीति के तहत उन्होंने (इंदिरा जी ने) बिहार और हरियाणा में जनता पार्टी की सरकारों का साथ दिया। उस जनता पार्टी का, जिसमें जनसंघ का वर्चस्व है। यदि कांग्रेस ने उन राज्यों में जनता पार्टी की सरकारों को सत्ता में बने रहने में मदद नहीं की होती तो वहां गैर संघी, धर्मनिरपेक्ष व किसानोन्मुख सरकारें बन जातीं।’
चरण सिंह ने कहा कि यह देश हमारे मंत्रिमंडल को कभी माफ नहीं करता, अगर हम कुर्सी पर चिपके रहने के लिए उन लोगों पर से मुकदमे उठा लेते, जो इमरजेंसी के अत्याचारों के लिए जिम्मेदार थे। मैं ब्लैकमेल की राजनीति स्वीकार कर एक दिन भी सत्ता में नहीं रह सकता।
खासकर 19 अगस्त की रात साढ़े नौ बजे मुझसे कहा गया कि 19 जुलाई को ‘किस्सा कुर्सी का’ केस में जो सरकारी अधिसूचना जारी की गयी थी, उसे आपकी सरकार वापस ले ले। इस पृष्ठभूमि में मैंने निर्णय किया कि अब नये चुनाव के लिए जनता के पास जाना ही उचित होगा।’
(सुरेंद्र किशोर के फेसबुक वाल से रविवार पत्रिका के 26 अगस्त, 1979 का एक अंश)
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