गुरु व शास्त्र के वचनों पर विश्वास करना, भगवान को प्रिय लगने वाले व्रत सदाचार को अपनाना, ब्रम्ह व जगत के बारे में जानने जैसे 16 उपायों से भगवान की प्राप्ति हो सकती है। योग साधना का सहारा लेना, भगवान की उपासना करना, प्रभु के अवतारों की रोजाना कथा सुनना, विषयी व धनान्ध व्यक्ति के संगत का त्याग करना, मन, चित्त, दिल, दिमाग में विषय का वर्धन करने वाले भोजन का त्याग करना, कुछ समय निकाल कर एकांत सेवन करना, हिंसा का त्याग करना, आत्मकल्याण में तत्तपर रहना, प्रभु के चरित्रों को बार-बार सुनना, किसी भी प्रकार की कामना का त्याग करना, दूसरे की निंदा नहीं करना, योग क्षेम के लिये प्रयत्न नहीं करना, सुख-दुख में सम रहते हुए अपने कर्मों के फल समझकर विचलित न होना, जो व्यक्ति इन सोलह उपायों को अपने जीवन में करता या उतारता है, वह मनुष्य भगवान प्राप्ति का अधिकारी हो जाता है। यह बात संत श्री जीयर स्वामी ने अपने प्रवचन के दौरान कहीं। उन्होंने कहा कि इन उपायों को जीवन में उतारने वाले मनुष्य को ही भगवान के प्रति प्रेम जागृत होता है व वह भगवान से प्रेम स्थापित होने की अधिकारी हो जाता है।
भगवत, ज्ञान व मुक्ति प्राप्ति के उपायों को बताते हुए स्वामी जी ने कहा कि सबसे पहले जानना पड़ेगा कि हमारा शरीर व आत्मा सबकुछ नहीं है। बन्धन व मोक्ष किसका होगा, इसको भी मानना चाहिये। क्योंकि शरीर व आत्मा का बंधन और मोक्ष नहीं होता है। न तो शरीर का बंधन और मोक्ष होता है और न आत्मा का ही बंधन और मोक्ष होता है। मोक्ष सिर्फ मन का होता है। मन ही शरीर व आत्मा को मोह में डालता है। यह मन ही शरीर और आत्मा को मोक्ष करता या दिलाता है।
मन अगर गलत मार्गों में भटका या अटका हुआ है तो हम बन्धन में हैं। मन कहीं अच्छे मार्ग में लगा हुआ है तो हम मोक्ष में हैं। इसलिए मन को समझाने के लिए ही हम पूजा-पाठ, तीर्थ व यज्ञ करते हैं। लेकिन मन इतना चंचल है कि कभी वश में नहीं होता है। जो व्यक्ति मन को समझ लिया तो समझना चाहिए कि उसका मोक्ष हो गया।
जब तक हम अपना नियामक नहीं मानेंगे, तब तक हमारे अन्तःकरण में रूप की उपाधि रहती है। तभी तक मनुष्य को जीवात्मा व इंद्रियों के विषय का सम्बन्ध कराने वाला अहंकार का बोध होता है। ऐसे में मनुष्य को रूप की उपाधि का त्याग कर देना चाहिये। मैं परमात्मा का दास हूं, अगर यह उपाधि मन में हमारे बैठ जाये तो हम हर पहलू में अपना उद्धार कर सकते हैं। लेकिन सिर्फ ये मानते हैं कि मैं ही हूं। तब परमात्मा हमारे पास होकर भी हमसे दूर बने रहते हैं। इसलिए यह हमें मानना चाहिए कि सिर्फ मैं ही नहीं हूं। मेरे आलावा भी हमारा नियामक व नियंत्रण करने वाला एक ऐसा तत्व है, जो अपने द्वारा हमको नियंत्रित करता है। उन्होंने कहा कि जब तक से हम नियामक व नियंत्रण को नहीं मानते हैं, तब तक गन्तव्य व उत्तम मार्गों के अधिकारी नहीं हो सकते हैं।
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अहंकार को त्यागने के लिये हमे और आपको को भक्त बनना पड़ता है। क्योंकि भक्त की हर स्थिति व कार्य भगवतमय होता है। जिन तत्वों को बड़े-बड़े साधना कर के प्राप्त किया जा सकता है। उतना भगवान का भक्त खेती, नौकरी व व्यापार करके अपनी भावना को भक्ति करके अपना उद्धार कर सकते हैं। यहीं विदेह भाव है। अपने द्वारा कर्तव्य व कर्म करते हुए भी अपने देह कर्तव्य व कर्म का अहंकार न करते हुए कर्म व कर्तव्य को करना ही विदेह भाव है। जब मनुष्य में विदेह भाव आ जाता है, तब हर कर्म व व्यवहार हमारे लिये पूजा व आराधना का कारण बन जाता है।
(रोहतास जिले के शिवसागर प्रखंड के रामपुर तेलरी गांव में ज्ञान यज्ञ में जीयर स्वामी द्वारा दिये गये प्रवचन के अंश)
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