- प्रकाश चण्डालिया
पश्चिम बंगाल में अपना किला स्वयं ध्वस्त कर रहीं ममता बनर्जी। इसके लिए उनके अड़ियल रवैये को लोग जिम्मेवार ठहरा रहे हैं। अब तो वह इस्तीफे को बेचैन हैं। पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल के किले में भाजपा ने जो सेंधमारी की है, उसके लिए ममता के अड़ियल रवैये को जिम्मेदार माना जाएगा। केंद्र के प्रति घृणा का भाव और गुस्से में लगातार गलत फैसले लेकर राज्य की प्रगति में स्वयं बाधक बनती ममता ने अपने रूख में परिवर्तन नहीं किया तो 2021 के विधानसभा चुनाव उनकी सत्ता पर आखिरी कील साबित हो सकते हैं।
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ममता बनर्जी 23 मई 2019 की तारीख कभी नहीं भूल पाएंगी। उनके राजनैतिक कैरियर के लिहाज से यह तारीख माथे पर तनाव की सलवटें लेकर उभरी और हजरत-ए-दाग बनकर रह गयी। बियाल्लिसे बियाल्लिस..अर्थात राज्य की सभी 42 सीटों पर जीत का दावा करने वाली ममता की सोशल इंजीनियरिंग इस बार बुरी तरह नाकाम रही। नरेंद्र मोदी की सुनामी ने ऐसा उड़ाया कि वह 22 पर धड़ाम से आ गिरी। इस पतन को ममता अपने जीवन में कभी नहीं भूल पाएंगी, क्योंकि इस परिणाम के साथ ही उनकी राज्य की सत्ता पर खतरा मंडराने लगा है। लोकसभा चुनाव में मिले वोटों के प्रतिशत की बात करें तो बंगाल में ममता की पार्टी का वोट प्रतिशत 45 प्रतिशत से घटकर 43 पर आ गया, जबकि भाजपा का वोट प्रतिशत 16 प्रतिशत से बढ़कर 43.3 प्रतिशत हो गया है। वामपंथियों का वोट शेयर घटकर 7 प्रतिशत रह गया है।
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वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में तृणमूल को 34 सीटें मिली थीं और भाजपा को मात्र दो। इस बार भाजपा ने जोरदार छलांग लगाते हुए 18 सीटों पर कब्जा जमा लिया। दूसरी तरफ, 1977 से 2011 तक लगातार 34 साल राज्य पर शासन करने वाले वाममोरचा की दुर्गति भी कम नहीं हुई। वामपंथियों का खाता तक नहीं खुला। डॉयमण्ड हार्बर से माकपा प्रत्याशी व कोलकाता के पूर्व मेयर विकास भट्टाचार्य को छोड़कर एक भी वामपंथी प्रत्याशी अपनी जमानत तक नहीं बचा पाया। कांग्रेस का खाता खोलने में बरहमपुर से अधीर चौधरी का निजी कद काम आया, वरना बाकी सीटों पर यह भी कहीं तृणमूल से धकियायी गयी, तो कहीं भाजपा से।
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कहने की आवश्यकता नहीं कि कुछेक वर्षों तक बंगाल में जिस भाजपा को गैरबंगालियों की पार्टी कहकर लोग अहमियत नहीं देते थे, उसने इस चुनाव परिणाम के साथ ही बंगाल में अपनी जमीन इतनी पुख्ता कर ली कि 2021 के विधानसभा चुनाव में इसे प्रमुख दल के रूप में देखा जाने लगा है। बंगाली वोटर अब खुलकर इस दक्षिणपंथी पार्टी के साथ खड़ा दिख रहा है।
गहराई से मंथन करने पर बंगाल में ममता के पराभव और भाजपा के बढ़ते वैभव के कुछ कारण सहज ही उभर कर सामने आते हैं। इसमें दो राय नहीं हो सकती कि ममता बनर्जी साधारण जनता की नब्ज किसी अन्य नेता के मुकाबले बेहतर समझती रही हैं। कांग्रेस से निकलकर उन्होंने 1997 में तृणमूल की स्थापना की और एक से एक आन्दोलन करके ज्योति बसु तथा बुद्धदेव भट्टाचार्य जैसे वामपंथी मुख्यमंत्रियों के नाक में दम कर सत्ता पर कब्जा जमाया था। आन्दोलनों की बात करें तो, सिंगुर में टाटा की नैनो गाड़ी का कारखाना न खुलने देने पर ऐसी आमादा हुईं कि तत्कालीन सरकार को झुकाकर माना। रतन टाटा को हार मानकर कारखाना गुजरात ले जाना पड़ा और सत्ता में आने के बाद ममता ने कारखाने के लिए किसानों से ली गयी सैंकड़ों एकड़ जमीन बंगाल में सत्तारूढ़ होने के बाद लौटा दी। किसानों को मुआवजे भी दिए गए। ममता ने इस आन्दोलन के जरिए राज्य के गरीब और कृषक परिवारों में ऐसी धाक बनायी कि वामपंथियों का खूंटा उखड़ गया और 2011 में वे बम्पर सीटें लेकर आसानी से सत्ता में आ गयीं।
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सिंगुर के अलावा नन्दीग्राम तथा ऐसे अनेकानेक आन्दोलनों के उदाहरण दिए जा सकते हैं, जो ममता ने अपने बल पर खड़े किए और आम जनता का दिल जीता। इसी क्रम में धर्मतल्ला में 21 दिनों तक चला उनका आमरण अनशन भी याद किया जा सकता है। कांग्रेस में रहने के दौरान जब उनके पास युवा कांग्रेस की कमान थी तो उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु को अपदस्थ करने के लिए एक से एक आन्दोलन तथा कई-कई बार बंगाल बन्द करवाया। 21 जुलाई 1993 के आन्दोलन को कौन भूल सकता है, जब उन्होंने राज्य सचिवालय में बैठे मुख्यमंत्री ज्योति बसु तक को हिला दिया। पुलिस को लाठी और गोलियां चलानी पड़ीं, जिसमें एक दर्जन युवक मारे गए थे। ममता बनर्जी को इस भयावह आन्दोलन के बाद बंगाल की अग्निकन्या कहा जाने लगा।
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अग्निकन्या ममता से अक्सर एक भूल हो जाती है। दरअसल, वे अपने आन्दोलनकारी स्वभाव के कारण भूल जाती हैं कि अब वे सरकार चला रही हैं। सत्ता की अपनी मजबूरियां होती हैं। सत्तारूढ़ नेता को अपने पुरुषार्थ से जनकल्याण के काम करने होते हैं, न कि विरोधी तेवर अपनाते रहकर, अपने बालहठ पर अड़े रहकर सूबे का नुक्सान करते रहना होता है। फेडरल सिस्टम में तो परस्पर व्यवहार बनाकर रखना होता है। लेकिन, ममता बनर्जी केंद्र की कभी नहीं सुनतीं। पहले केंद्र में मंत्री रहने पर लोकसभा अद्यक्ष पर अपना काला दुपट्टा फेंक मारती थीं, तो कभी कागजात फाड़ आती थीं। 1977 में विधानसभा के बाहर गाड़ी के बोनेट पर खड़े होकर नाच कर चुकीं ममता बनर्जी के साथ अब भी उनका पुराना चेहरा चलता है, जो उन्हीं के लिए नुक्सानदेह है।
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वे नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री मानने को तैयार नहीं होतीं। चुनावी दौर में यदि भाजपा के अमित शाह या योगी आदित्य नाथ बंगाल की धरती पर हेलीकॉप्टर उतारना चाहें तो वे उन्हें अनुमति नहीं देतीं। प्रधानमंत्री के लिए बार-बार ओछे शब्दों का प्रयोग कौन भूल सकता है। कभी थप्पड़ मारने की बात करती हैं, तो कभी कमर में रस्सी बांधकर सड़क पर घुमाने जैसी जहरीली बात उगल देती हैं। प्रधानमंत्री यदि फनी जैसी आपदा से निबटने के लिए उनसे फोन पर बात करना चाहे तो उनका सेक्रेटरी व्यस्तता का हवाला देकर फोन रख देता है। ओड़ीशा के साथ साझे तौर पर राहत के काम के लिए बैठक बुलायी जाए तो प्रधानमंत्री को एक्सपायरी पीएम कहकर उनकी खिल्ली उड़ायी जाती है, लेकिन राज्य के भले के लिए बैठक में अपने सचिव को भेजना गैरजरूरी समझती हैं।दीदी के करीबियों की हिम्मत नहीं कि वे उनकी ऐसी गलतियों के बारे में समझाएं।
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