मंटो : संवेदनशील व बेबाक लेखक सआदत हसन मंटो की दास्तान

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  • नवीन शर्मा

अभिनेत्री व निर्देशक नंदिता दास ने उर्दू के लेखक सआदत हसन मंटो पर मंटो नाम से बायोपिक बना कर साहसिक काम किया है। मंटो में उर्दू लेखक सआदत हसन मंटो के जीवन और तत्कालीन समाज की नीम के पत्ते जैसी कड़वी सच्चाई को एकदम हूबहू सामने रखने रखने वाली उनकी बेबाक कहानियों को आपस में पिरोया गया है। मंटो एक संवेदनशील व बेबाक लेखक सआदत हसन मंटो की दास्तान है।

मंटो की कहानी देश विभाजन से पहले और उसके बाद की है। मंटो की मुंबई की जिंदगी, और विभाजन के बाद उनका लाहौर चले जाना, फिल्म का प्रमुख विषय है। विभाजन ने मंटो की जिंदगी पर भी काफी गहरा असर डाला। कुछ हद तक ऐसा ही, जैसे किसी पौधे को उसकी जड़ों से उखाड़ कर फेंक दिया जाए। मंटो को मुंबई शहर से बेतहाशा  मुहब्बत थी। विभाजन के बाद मंटो को मजबूर होकर लाहौर (पाकिस्तान )जाना पड़ा था।

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नवाजुद्दीन सिद्दीकी मंटो की भूमिका में जंचे हैं। उन्होंने मंटो की बेबाकी और बेबसी दोनों को बढ़िया तरीके से बयां किया है। मंटो की कुछ कहानियों पर अश्लीलता के आरोप भी लगे थे। इनको लेकर उन पर मुकदमे भी हुए थे। फिल्म में ‘खोल दो’, ‘ठंडा गोश्त’ और ‘टोबा टेक सिंह’ जैसी कहानियों को मंटो की जिंदगी के साथ-साथ दिखाया गया है। मंटो की मनोदशा और उनकी बीवी सफिया (रसिका दुग्गल) के साथ उनके संबंध को भी दिखाया गया है। अत्यधिक शराब पीने के कारण मंटो के स्वास्थ के गिरते जाने और खराब आर्थिक दशा के बाद भी अपने दोस्त से भी पैसे ना लेने के मंटो के स्वाभिमानी व्यक्तिक्व की खासियत भी दिखाई गई है।

मंटो एक अलग मिजाज के लेखक थे। जैसे एक मजदूर रोज मजदूरी कर अपना पेट भरता है, ठीक वैसे ही मंटो भी हर रोज कहानियां लिखने की मजदूरी करते थे। वे लगभग हर रोज एक कहानी लिखकर उसे बेचकर उससे  मिले पैसे से घर का खर्च और शराब-सिगरेट का खर्च बमुश्किल निकाल पाते थे।

मंटो इसलिए खास हो जाते हैं, क्योंकि वे हिंदू मुस्लिम के खांचे में नहीं फंसते हैं। उनकी कहानी ठंडा गोश्त में जहां वहशी पात्र एक सिख है तो दूसरी कहानी खोल दो में सकीना नाम की लड़की से उसी के समुदाय के दरिंदे दुष्कर्म करते हैं।

टोबा टेक सिंह तो बेमिसाल कहानी है। देश विभाजन के दंश का इतना जबर्दस्त वर्णन किसी और कहानी में बमुश्किल दिखता है। इस कहानी में बिटविन दी साइंस कई बातें छिपी हैं।

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मंटो समाज की त्रासदी को उसके पूरे नंगेपन से उजागर करते हैं, ताकि पाठक पूरी सच्चाई से वाकिफ हो जाएं। मंटो की खुद का जीवन भी त्रासदीपूर्ण ही था। महज 42 साल की उम्र में शराब उनको काल के गाल में धकेल देती है। खैर, मंटो इस मामले में खुशकिस्मत कहे जा सकते हैं कि वे  शायद पहले लेखक हैं, जिन पर फिल्म बनी है।

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