मार्क्स ने युवा दिनों में शायद ही संवेदनशील मन पर प्रभाव न डाला हो

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युवा दिनों में मार्क्स के विचारों ने शायद ही किसी संवेदनशील मन पर प्रभाव न डाला हो। उन्हीं दिनों सर्वोदय दार्शनिक दादा धर्माधिकारी से सान्निध्य बढ़ा।
युवा दिनों में मार्क्स के विचारों ने शायद ही किसी संवेदनशील मन पर प्रभाव न डाला हो। उन्हीं दिनों सर्वोदय दार्शनिक दादा धर्माधिकारी से सान्निध्य बढ़ा।
हरिवंश, राज्यसभा के उपसभापति
हरिवंश, राज्यसभा के उपसभापति
मार्क्स के विचारों ने युवा दिनों में शायद ही किसी संवेदनशील मन पर प्रभाव न डाला हो। उन्हीं दिनों सर्वोदय दार्शनिक दादा धर्माधिकारी से सान्निध्य बढ़ा। जेपी के युवा आंदोलन में शरीक होने के सौजन्य से। जेपी के ग्रामीण होने की वजह से दादा का अतिरिक्त स्नेह मिला। दादा ने बताया, इस संदर्भ में मार्क्स की सबसे बड़ी ऐतिहासिक देन मानव समाज को है कि उन्होंने अपने विचारों से प्रतिपादित कर पुष्ट और प्रमाणित किया कि नहीं, राजा या अमीरी ‘डेस्टिनी’ (भाग्य) का खेल नहीं है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक व्यवस्थागत देन है। यह इंसान द्वारा गढ़े सामाजिक व्यवस्था की देन है। 

 

  • हरिवंश

आज कार्ल मार्क्स की 202वीं जयंती है। मेरे वरिष्ठ मित्र शैबाल गुप्ता (अब स्वर्गीय. समाजविज्ञानी, अर्थशास्त्री व आद्री, पटना के संस्थापक) ने कार्ल मार्क्स की 200वीं जयंती पर एक अंतरराष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन कराया। पटना में। अंतरराष्ट्रीय विचारक, विद्वान, विश्लेषक आये। आयोजन के दौरान गांधीवादी, समाजवादी, जेपी के अनुयायी से प्राय: उनका वैचारिक व्यंग्य-कटाक्ष होता रहता था। निमंत्रण मिला, तो उनसे कहा, ‘मौजूदा दुनिया मार्क्स के विचारों को अलविदा कह रही है, तब आप उनका पुण्य स्मरण कर रहे हैं। यह अच्छी बात है। कारण, प्राय: इंसान उगते सूर्य को नमस्कार करता है। बिहार छोड़, कहीं और अस्तगामी सूर्य की आराधना या नमन की परंपरा नहीं है। ‘यह शुद्ध वैचारिक मजाक चलता था। शैबाल दा भी ऐसी ही टिप्पणियां समाजवादी आंदोलन वगैरह पर करते रहते थे।

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हमने उन्हें जॉर्ज बर्नाड शा का कथन सुनाया। यह भी कहा कि कथन के दूसरे हिस्से से सहमत नहीं हूं। पर, उसका मर्म उम्र के इस पड़ाव पर समझता हूं। बर्नाड शा ने कहा था, ‘If at age 20 you are not a Communist then you have no heart. If at age 30 you are not a Capitalist then you have no brains.’ (‘अगर बीस वर्ष की उम्र में आप साम्यवादी नहीं हैं, तो आपके पास दिल (हृदय) नहीं है। अगर 30 वर्ष की उम्र में आप पूंजीवादी नहीं हैं, तो आपके पास मस्तिष्क नहीं है।’) मेरा आग्रह था, जहां ‘पूंजीवादी’ शब्द है, वहां सिर्फ समतावादी, समाजवादी या सर्वोदयी कर दें, तो यह कथन बड़ा उचित जान पड़ता है।

स्वाभाविक है, युवा दिनों में मार्क्स के विचारों ने शायद ही किसी संवेदनशील मन पर प्रभाव न डाला हो। उन्हीं दिनों सर्वोदय दार्शनिक दादा धर्माधिकारी से सान्निध्य बढ़ा। जेपी के युवा आंदोलन में शरीक होने के सौजन्य से। जेपी के ग्रामीण होने की वजह से दादा का अतिरिक्त स्नेह मिला। हमारी नजर में, दादा ही सर्वोदय के असल भाष्यकार, सैद्धांतिक आचार्य और मर्मज्ञ थे। विनोबा और जेपी ने तो अपने जीवन में कर्म के स्तर पर सर्वोदय को उतारा। दादा ने मार्क्स के बारे में जो कहा, उसकी आशय स्मृति में है। मार्क्स के पहले माना जाता था कि राजा, शासक वंशगत और जन्मजात होते हैं। यह भाग्य का विधान है। दादा ने बताया, इस संदर्भ में मार्क्स की सबसे बड़ी ऐतिहासिक देन मानव समाज को है कि उन्होंने अपने विचारों से प्रतिपादित कर पुष्ट और प्रमाणित किया कि नहीं, राजा या अमीरी ‘डेस्टिनी’ (भाग्य) का खेल नहीं है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक व्यवस्थागत देन है। यह इंसान द्वारा गढ़े सामाजिक व्यवस्था की देन है।

दादा के अनुसार इसके पहले किसी धर्मपुरोधा, दार्शनिक, विचारक ने नहीं बताया कि गरीबी नियति की देन नहीं है। पहले यह भाग्य और नियति का ही खेल बताया और माना जाता था। दादा की नजरों में इस अर्थ में मार्क्स हमेशा-हमेशा के लिए मानव स्मृति में गरीबों के मसीहा के रूप में दर्ज रहेंगे। वह इस रूप में हमेशा, 202 वर्षों से लोकस्मृति में जीवंत हैं। आगे भी प्रासंगिक रहेंगे।

वह दौर था, जब वैचारिक बहस में, परस्पर अलग मत रखते हुए भी अलग-अलग विचार रखनेवाले बड़े नजदीकी मित्र होते। रात-रात भर बहसें होतीं। हम इसके भागीदार रहे।

सब जानते हैं, जेपी अमेरिका से कट्टर मार्क्सवादी होकर भारत लौटे। महात्मा गांधी ने उन्हें मार्क्सवाद के विचारों का आचार्य माना। रूस की कम्युनिस्ट पार्टी की तर्ज पर ही भारत की समाजवादी पार्टी का सांगठनिक ढांचा उन्होंने तैयार किया। इस सीमित संदर्भ में कि जिसमें पार्टी जेनरल सेक्रेट्री ही सर्वेसर्वा होता था। जेपी वही थे। उन्होंने नंबूदरीपाद से लेकर और न जाने कितने साम्यवादियों को पार्टी से जोड़ा। पर, हम युवाओं के मन में यह सवाल प्राय: उठता कि जेपी साम्यवाद या मार्क्सवाद से आगे किन अनुभवों के कारण निकले? इस संदर्भ में उनका क्लासिक वैचारिक लेख है, ‘इंसेंटिव टू गुडनेस।’ वे कौन से तत्व हैं, जो इंसान को अच्छा बनने की प्रेरणा देते हैं? जेपी का पूरा जीवन अद्भुत वैचारिक यात्रा का रौशनी भरा पथ है। सोवियत रूस में पार्टी के अंदर हिंसा। भारत में शुरुआती दिनों में जो हिंसा मार्क्सवादी विचारों से जुड़ी, उसने बहुतों को अलग किया।

आचार्य नरेंद्रदेव आजादी के समय के श्रेष्ठ, तपे-तपाये और विद्वान मनीषी राजनेताओं में थे। विलक्षण प्रतिभा और व्यक्तित्व के धनी। वह भी मार्क्सवाद के प्रकांड मर्मज्ञ आचार्य माने जाते थे। चीन भी हो आये थे। बौद्ध धर्म व दर्शन प्रणाली पर उनकी पुस्तक ‘बौद्ध धर्म दर्शन’ सबसे प्रामाणिक ग्रंथ की तरह है। पर, आचार्य नरेंद्र देव हों या जयप्रकाश नारायण, भारतीय संदर्भ, परिवेश, परिस्थितियों में उन्होंने मानवीय समाजवाद, समतावाद की कल्पना की। डॉ. राममनोहर लोहिया विलक्षण वैचारिक समाजवादी नेता हुए। उनकी बड़ी चर्चित किताब है, ‘मार्क्सवाद और समाजवाद’। वह शुरू से ही एशिया और खासतौर से भारत के संदर्भ में मार्क्सवाद की सीमा से अवगत थे।

इस संदर्भ में उनकी बड़ी साफ नजर थी। बाद में मधु दंडवते ने भी गांधी और मार्क्स को जोड़कर पुस्तक लिखी- ‘मार्क्स एंड गांधी’। हमारे अग्रज और पत्रकारिता के पहले मार्गदर्शक गणेश मंत्री (धर्मयुग-मुंबई), ने भी पुस्तक लिखी। इस पर अन्य अनेक विद्वानों ने अपने ढंग से विचार किया है। भारतीय संदर्भ में मार्क्सवाद की सीमाओं का एहसास बड़ी कीमत चुकाने के बाद हुआ। रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, सुभाष चंद्र बोस से लेकर भारतीय परंपराओं के बारे में जो दृष्टिदोष भारतीय मार्क्सवादी विचारों में था, उसके कारण मार्क्सवाद सिमटता गया। अर्थशास्त्री, दार्शनिक और विचारक प्रो. कृष्णनाथ का लंबा लेख है, ‘मार्क्स-एंगल्स और उपनिवेशवाद’ (1985 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय की पत्रिका ‘प्रज्ञा’ में प्रकाशित)। यह स्पष्ट करता है कि एशिया और भारत के संदर्भ में मार्क्स की दृष्टि सीमा क्या थी?

दुनिया में विचार की उम्र होती है। देस-काल और परिस्थितियों के अनुरूप। शायद बर्नाड शा ने सही कहा था। जीवन के अनुभव बताते हैं कि बदलते समय या काल का क्या अर्थ है? भारतीय संस्कृति में ‘काल का’ का बड़ा महत्व है। हमारे संतों, ऋषियों ने ‘काल’ शब्द पर अद्भुत वैचारिक संपदा दी है। वह अनमोल विरासत है। देस और परिस्थितियां भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं। परिस्थितियों और भौगोलिक सीमाओं के सापेक्ष चीजें होती हैं। जीवन के अनुभव का यह निजी निष्कर्ष है कि विचारों ने दुनिया के इतिहास को बदलने में अहम भूमिका अदा की है। फ्रांस, रूस, चीन की क्रांति से लेकर चे ग्वेरा तक के लातिन अमेरिका में सशस्त्र विरोध ने दुनिया को गहराई से प्रभावित किया। फिर आये गांधी, जिनके अहिंसात्मक विचारों ने पूरी दुनिया में साम्राज्यवाद का अंत किया।

अग्रज गणेश मंत्री प्राय: कहा करते थे, ‘संसार में विचारों के दो ध्रुव हैं। पहला, मैकियावेली (चर्चित ‘द प्रिंस’ किताब के लेखक) और दूसरे गांधी। एक ने (मैकियावाली) माना छद्म, छल, हिंसा षडयंत्र, सबकुछ जायज है सत्ता पाने में। दूसरे गांधी हुए। शायद ज्ञात मानव सभ्यता में पहले विचार पुरूष, जिन्होंने कहा, नहीं, साधन और साध्य का सवाल बड़ा पवित्र है। साधन और साध्य में एका बड़ा महत्वपूर्ण है। इसके लिए गांधी ने बड़े जोखिम लिए। मानव सभ्यता को उनकी सबसे बड़ी देन यही है कि उन्होंने इंसान के मन को बदलने की बात की। मन, मानस और हृदय ही बदलाव के मूल मंत्र हैं। इन्हें ‘ डिक्टेटरशिप आफ प्रोलेट्रियेट’ कभी बदल नहीं सका। इसलिए सोवियत रूस, जिसने दुनिया को अपने उदय के साथ 1917 में नया सपना दिया, वह उस रूप में नहीं रह सका। न रह सके इस राह पर चलनेवाले अन्य देश। यही भारतीय संदर्भ, गांधी हमेशा प्रासंगिक रहेंगे कि मानस ओर मन बदलने से समाज बदलेगा। किसी और रास्ते या तरकीब से नहीं। इंसान सिर्फ आर्थिक इकाई नहीं है। जीवन में अर्थ (आर्थिक पहलू) खासतौर से महत्वपूर्ण हैं।

भारतीय ज्ञान-विरासत में अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष के संतुलन की चर्चा है। आज के दौर में आर्थिक सवाल निर्णायक और महत्वपूर्ण हैं। आज गांव और परिवार के पुराने स्वरूप छिन्न-भिन्न हो चुके हैं। संकट में, पहले गांव, समाज और संयुक्त परिवार सुरक्षा कवच थे। पर, आयातित विकास मॉडल (गांधी की मान्यताओं के विरूद्ध) जो भारत ने आजादी के बाद अपनाया, उससे न हम अपनी परंपरा और मिट्टी से जुड़े रह पाये, न ही पूरी तरह से पश्चिमीकरण हुआ, न आधुनिकीकरण। इस संदर्भ में दीनदयाल उपाध्याय जी के ‘एकात्म मानववाद’ और ‘अंत्योदय’ की प्रासंगिकता बढ़ी।

युवा और विद्यार्थी दिनों में आपसी वैचारिक बहसों ने हमें उर्वर बनाया। वामपंथी साथी खूब पढ़ते। उनकी काट के लिए हम सब भी पढ़ते। तर्क ढूंढते। रात-रात भर चलनेवाली आपसी बहसों के हम हिस्सेदार रहे। वह गर्माहट, वह तीखापन, वह वैचारिक मुठभेड़। फिर सबके बाद वही आत्मीयता, वही मित्रता, वही लगाव। यह घोर वैचारिक भिन्नता के बावजूद मित्रता की मजबूत डोर से हमारी पीढ़ी बंधी थी। उसी दौर में एमएन रॉय के संस्मरण पढ़े। रूस से लेकर चीन व बर्लिन तक के चोटी के कम्युनिस्ट नेताओं, विचारकों (लेनिन, स्टालिन, ट्रास्की, माओ, चो-एन्लाई वगैरह-वगैरह) के बड़े नजदीकी संस्मरण पढ़े। आंखें खुल जाती हैं। स्टालिन के अंतिम दिनों के प्रामाणिक दस्तावेज और पुस्तकें एकत्र कर पढ़ीं। माओ के भी। लेनिन के भी। तब पता चलता है कि सत्ता, शासन और वैचारिक आग्रह का रिश्ता क्या है? सिद्धांत-आचरण और क्रियान्वयन में ऐतिहासिक द्वंद्व और फर्क है। इसी बिंदु पर गांधी विलक्षण, दूरदर्शी और अद्भुत थे. उन्होंने भांप-आंक लिया था, गलत साधन से पवित्र साध्य प्राप्त नहीं हो सकते।

मार्क्सवादी विचारों से ही निकले देंग श्याओ पेंग। साम्यवादी संसार के सबसे विलक्षण, दूरगामी सोच वाले (अपने मुल्क के बारे में) साबित हुए। व्यावहारिक क्रियान्वयन के सबसे दूरदर्शी नेता, उन विचारों के वही रहे। उन्होंने जार्ज बर्नाड शा के पूरे कथन को प्रमाणित-साबित किया। उनकी जीवन यात्रा, वैचारिक यात्रा ने अलग इतिहास ही बना दिया। वह प्रसंग अलग है। पर, भारत में बड़ा नजदीक का संपर्क रहा मार्क्सवादी साथियों से। नक्सलवादी विचार माननेवालों से। नागभूषण पटनायक से उनके गांव (गुनुपुर, उड़ीसा-आंध्रप्रदेश की सीमा पर) में जाकर चार दशक पहले मिलना। उन्हें फांसी की सजा हुई थी। उससे वह मुक्त हों, उसके लिए सीमित दायरे में कोशिश करना। उनसे पत्राचार, जीवन की स्मृति के हिस्सा हैं।

यह निजी धारणा है। गंभीर वैचारिक दूरी रही, पर चाहे नागभूषण पटनायक हों या अनेक नक्सल समर्थक विचारक या प्रो. हीरेन मुखर्जी से लेकर अनेक जो साम्यवादी नेता हुए, उनकी सादगी, जीवनशैली, अपने विचारों के प्रति आग्रह ने आकर्षित किया। जीवन जीने के संदर्भ में उनकी सादगी, सरलता गांधीवादी आचरण ही लगा। आचरण और जीवन जीने मे गांधीवादी, विचारों में साम्यवादी. आज जब मार्क्स की जयंती पर उनके विलक्षण वैचारिक देन के स्मरण का अवसर है, तब एक और तथ्य मन में उपजता है। यह भी निजी धारणा है। पिछले 15 वर्षों से अनेक सार्वजनिक मंचों से साझा भी किया है। विचारों के युग के नायक मार्क्स रहे। सर्वोदयी दादा धर्माधिकारी ने कहा था, उनके विचारों में यह ताकत थी कि भाषा, रंग, जाति, धर्म की परिधि लांघ, महासागरों को पार कर घर-घर तक दस्तक दिया। अलग-अलग संस्कृतियों की सीमा लांघ कर।

पर, अब उदारीकरण, वैश्वीकरण, दूरियों के खत्म होने के दौर ने इंसान को एक नये युग में पहुंचा दिया है। प्रतीक और विशेषण के तौर पर कहें तो यह श्रेय स्टीव जॉब्स के आइपैड का है। गूगल का है। इंटरनेट का है। सोशल मीडिया का है। मल्टीमीडिया का है। सूचना तकनीक का है। इस तरह विचारों के दौर को मशीनों एवं आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस व रोबोटों ने रिप्लेस कर दिया है। दुनिया के बहुत सारे विचारक मानते भी हैं, यह विचारों के अंत और आर्टिफिशियल इंजेलिजेंस एरा का आरंभिक दौर है। भारतीय मनीषा मानती भी है, हर विचार, इंसान या दौर की सीमा भी देस, काल और परिस्थिति ही तय करती है। पर, यह यथार्थ तो हमेशा रहेगा कि मार्क्स के विचारों ने दुनिया को कैसे एक नयी गति दी, ऊर्जा दी और सामजिक बदलाव की पृष्ठभूमि बनायी।

(बतौर सांसद, वर्ष 2020 में 05 मई को लिखे गये लेख का संपादित अंश)

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