आयातित विदेशी सामान आदमी के पास रहे तो वह इतराता-इठलाता है। समाज में रौब दिखाता है। लेकिन विदेश में जन्म लेकर जब MEE TOO भारत पहुंचा तो खलबली मच गयी है। अभी तक इसने किसी के प्राण या पद की बलि तो नहीं ली है, लेकिन मानसिक बलि कई ओहदेदार चढ़ गये हैं। इसी मानसिक बलि का परिणाम है कि एमजे अकबर जैसे पत्रकार से राजनीतिज्ञ बने व्यक्ति को सफाई देनी पड़ रही है। सफाई में सच्चाई कितनी है, यह तो अकबर साहब और आरोप लगाने वाली मोहतरमा ही जानें, लेकिन इस उम्र में अकबर साहब जैसी पड़े व्यक्तित्व को सफाई देने की मजबूरी ही इस अभियान की सफलता का सूचक है।
एक और पत्रकार विनोद दुआ पर भी उंगली उठ गयी है। जाहिर है कई और उंगलियां उठने को मचल रही होंगी, लेकिन कुछ बंदिशें ऐसी हैं, जो बार-बार उंगली उठाने से रोकती है। वह है खुद के भीतर का नैतिक साहस। नैतिकता एक ऐसी सामाजिक मजबूरी है, जो आदमी को कई दफा पीछे हटने, मुंह चुराने या चेहरा छिपाने को बाध्य करती है। आप कल्पना कीजिए कि दुष्कर्म की शिकार महिलाएं भी जिस नैतिकता के भय से चेहरा छिपा कर ही पीड़ा बयान करती हैं, वहां कोई अपनी पहचान उजागर कर किसी पर ऐसे आरोप लगाता है तो मानने में संकोच नहीं करना चाहिए कि उसके भीतर कितना जहर भरा होगा या उबाल ले रहा होगा।
लोग कह रहे हैं कि MEE TOO के इस अभियान ने इतने पुराने मामले उखाड़ने क्यों शुरू किये हैं। ताजा मामले क्यों नहीं आ रहे। सवाल स्वाभाविक हैं। पुराने मामले आज चर्चा में इसलिए हैं कि किसी सड़क छाप महिला ने किसी फुटपाथी भिखमंगे पर आरोप नहीं लगाया है। बड़ी हस्तियों पर पढ़ी-लिखी लड़कियों ने ये आरोप लगाये हैं। ऐसा नहीं कि ताजा और नये मामले सामने नहीं आते रहे हैं। फर्क इतना है कि ताजा मामलों में आरोप लगाने वाली और आरोपित दोनों की पहचान अदना होने के कारण इनकी गूंज जोर से नहीं सुनाई पड़ती।
मेरी व्यक्तिगत राय है कि पुरानी पीढ़ी को अपने किये की सजा मिलने लगे तो नयी पीढ़ी खुद ब खुद सचेत-सतर्क हो जायेगी। यह अलग बात है कि शातिर इसमें भी बचने के रास्ते तलाशने लगेंगे। इस तरह के मामलों में अगर अदालतें स्वतःसंज्ञान लेने लगें तो इस अभियान की सफलता होगी। वैसे भी शारीरिक से ज्यादा मानसिक मौत खतरनाक होती है। अपने कार्यकाल में जिन लोगों ने दूसरों को मानसिक पीड़ा पहुंचायी है, वे मानसिक पीड़ा पायें तो इससे बड़ी सजा अदालत की भी नहीं हो सकती है।
- दर्शक
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