- हेमंत
हिंदू-इस्लाम, हिंदू-ईसाई, इस्लाम-ईसाई के बीच परस्पर सहयोग में सिर्फ ‘एकेश्वरवाद’ बाधा नहीं है, एकेश्वरवाद के साथ मूर्ति पूजा का प्रॉब्लम जुड़ा है! इसका माने? इस्लाम में मूर्ति पूजा नहीं है। ईसाई में भी नहीं। सो मौलवी-पादरी वर्ग के अलग-अलग समूहों का मानना है कि अगर हिंदू एक ईश्वर में विश्वास करने लगें और मूर्ति पूजा छोड़ दें तो सारी समस्या हल हो जायेगी!
तब तो इस बात पर विचार करना जरूरी है कि यह कितना सही है कि हिंदू अनेकेश्वरवादी और मूर्तिपूजक होता है! यह तो सही है कि हिंदुओं के देवी-देवता अनेक हैं, लेकिन साथ ही वे स्पष्ट रूप से यहभी कहते हैं कि ईश्वर-देवाधिदेव-एक है। इसलिए हिंदुओं को अनेकेश्वरवादीकहना ठीक नहीं है।
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लेकिन यह भी तो सही है कि उनका अनेक लोकों में विश्वास है? जिस प्रकार एक लोक मनुष्यों से आबाद है और एक अन्य पशुओं से। उसी प्रकार हिंदू मानते हैं कि एक तीसरा लोक भी है जिसमें देवता कहलाने वाले श्रेष्ठतर जीवात्माओं का निवास है, उन्हें हम देख तो नहीं सकते, फिर भी उनका अस्तित्व अवश्य है। लेकिन आप किसी आम हिंदू से पूछिए, तो वह ईश्वर के कई नाम लेकर भी कहेगा- अनेक ईश्वरों में मेरा विश्वास कभी नहीं रहा। आज भी नहीं है। और न किसी ने कभी मुझे ऐसा मानना सिखाया।
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शायद यही कारण है कि आजकल की नयी पीढ़ी के पढ़े-लिखे युवा राह चलते-चलते जहां मंदिर या मंदिरनुमा स्ट्रक्चर देखते हैं, वहां हाथ जोड़ते या सर नवाते दिखते हैं। अगर पैदल न होकर रिक्शा, ऑटो, या चारपहिया गाड़ी में होते हैं, तो पल भर के लिए रुकते भी नहीं। रफ्तार के बीच पल भर के लिए हाथ उठाया और सर तक ले गए। बस, पूजा हो गयी! आजकल शिक्षित युवाओं में यह प्रवृत्ति कुछ ज्यादा दिखती है, जो उनके किसी देवी-देवता के प्रति भक्ति–भावना से ज्यादा उनके अन्दर के किसी भय की अभिव्यक्ति लगती है।
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हाँ, लेकिन वे अपनी इस प्रवृत्ति से यह जाहिर करते हैं कि वे हिंदू हैं। वे राह चलते मस्जिद या चर्च देख ऐसा नहीं करते। हालांकि उनकी देखादेखी मुस्लिम और ईसाई युवा अपने-अपने इलाकों में मस्जिद और चर्च के पास से गुजरते वक्त ऐसा करते दिखते हैं।
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सिर्फ अपने इलाकों में ऐसा करने वाले मुसलमान और ईसाई युवा के लिए यह माना जा सकता है कि वे अपने किसी व्यक्तिगत समस्याजनित भय से पीड़ित हैं। लेकिन शहरों-महानगरों में वे ऐसा करते दिखते हैं, तो लगता है, यह सिर्फ भक्ति या भय नहीं, अपनी अलग पहचान के प्रकटीकरण की प्रवृत्ति का भी मामला बन गया है।
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इसलिए यह प्रवृत्ति भी अब एक प्रॉब्लम जैसी दिख रही है। लेकिन यहाँ विचारणीय मूल सवाल मूर्ति पूजा का है। आम हिंदू का किसी न किसी रूप में मूर्ति-पूजा किये बिना काम नहीं चलता। उधर मुसलमान मस्जिद को अल्लाह का घर कहते हैं और उसकी रक्षा करने के लिए अपने प्राणों की बलि चढ़ा देते हैं। ऐसा क्यों? और, ईसाई गिरजाघर क्यों जाते हैं? जब उनसे शपथ लेने को कहा जाता है तो वे ‘बाइबिल’ के नाम पर शपथ क्यों लेते हैं? वैसे, इस पर किसी को कोई आपत्ति हो, ऐसी बात नहीं है। लेकिन मस्जिद और मकबरे बनवाने पर लाखों-करोड़ों रुपये खर्च करना मूर्ति पूजा नहीं तो और क्या है? और जब रोमन कैथोलिक पत्थर की बनी या कांच अथवा टाट पर चित्रित कुमारी मेरी और अन्य संतों की बिल्कुल काल्पनिक आकृतियों के समक्ष घुटने टेकते हैं, तब उसका मतलब क्या होता है? कई लोग मां की तस्वीर अपने पास रखते हैं और श्रद्धापूर्वक उसे चूमते हैं। लेकिन उस तसवीर की पूजा नहीं करते और न उन संतों की ही। वे ‘गॉड’ की पूजा करते हैं। उसे स्रष्टा और हर मानव से श्रेष्ठ मान कर।
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अगर यह बात सही है, तो ठीक इसी तरह की हिन्दुओं की धारणा को अमान्य नहीं किया जा सकता कि हिंदू पत्थर की नहीं, बल्कि पत्थर या धातु की प्रतिमाओं में, चाहे वे जितनी बेढंगी हों, ईश्वर की कल्पना करके ईश्वर को ही पूजते हैं। लेकिन वे ईश्वर से छोटी किसी सत्ता को नहीं पूजते। जब ईसाई कुमारी मेरी के सामने घुटने टेक कर उनसे आशीर्वाद मांगते हैं तो क्या कहते हैं? उनसे यही याचना करते हैं कि मेरी के प्रसाद से ईश्वर से उनका संबंध स्थापित हो। मस्जिद में प्रवेश कर मुसलमान का मन श्रद्धा और आह्लाद से भर उठता है, क्योंकि वह मस्जिद को खुदा से अपना सम्पर्क स्थापित करने का माध्यम मानता है। इसी प्रकार हिंदू पत्थर की प्रतिमा के माध्यम से ईश्वर से अपना सम्पर्क स्थापित करने की कोशिश करता है। लेकिन हाँ, इसके बावजूद एक सवाल हिंदू, मुसलमान, ईसाई सबके लिए एक-सा मौजूं है कि यह पूरा विश्व ही उनके लिए मंदिर, मस्जिद या गिरिजाघर क्यों नहीं है? इस सवाल से दीगर यह सवाल है कि हमारे ऊपर जो यह अनंत आकाश भव्य वितान की तरह फैला है, उसके बारे में हिंदू, इस्लाम और ईसाई धर्म का क्या कहना है? क्या यह मन्दिर या मस्जिद या चर्च से कम है?
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यह धर्म के प्रति ‘दृष्टि’ से जुड़ा गहरा सवाल है, जिस पर धार्मिक और आस्तिक के अलावा धर्मनिरपेक्ष और नास्तिक को भी विचार करने का हक है और स्वतंत्रता भी। उनको भी इस पर सोच—विचार करना चाहिए। लेकिन फिलहाल सवाल है धर्म से जुड़ी हिंदू-मुस्लिम-ईसाई की भावनाओं का और ईश्वर को पाने के उनके रास्तों का। परब्रह्म को प्राप्त करने के उनके अलग-अलग मार्गों का। ये सब साधना के मार्ग हैं। ये अलग-अलग हैं, लेकिन इससे ईश्वर क्यों अलग-अलग हो जाता है?”
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इसका माने ये है कि समाधान ही सबसे बड़ा प्रॉब्लम है। आज क्या हिंदू, क्या इस्लाम और क्या ईसाई, सबकी धर्म-प्रचारक संस्थाएं एक दूसरे का उपहास करती हैं और अपने रास्ते के प्रचार के लिए कहती हैं कि दूसरे धर्म का त्याग और निंदा किये बिना कोई स्वर्ग जा ही नहीं सकता। ऐसी स्थिति में धर्मों के बीच परस्पर सहयोग कभी नहीं हो पायेगा। लेकिन एक उपाय है। ऐसे हिंदू, मुस्लिम, ईसाई या सिख या बौद्ध-जैन इंसान की कल्पना जो चुपचाप कर्मरत रह कर दूसरे धर्म-समाज में अपनी सुरभि बिखेरें, ठीक उसी तरह जैसे गुलाब का फूल करता है। गुलाब को अपनी सुगंध फैलाने के लिए किसी से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती, बल्कि वह इसलिए वैसा करता रहता है कि वही उसका धर्म है।
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यह तो संगठित धर्मों के कर्मकांडी जीवन से अलग, आध्यात्मिक जीवन की कल्पना हुई! तो क्या? क्या ऐसा संभव नहीं है? ऐसा होने लगेगा, तो क्या बात है! तब तो संसार में निश्चय ही शांति का राज्य स्थापित हो सकता है और आदमी-आदमी के बीच सद्भावना कायम हो सकती है। लेकिन आज ऐसा होना तो क्या ऐसी कल्पना करना भी बेहद मुश्किल है। सिर्फ मुश्किल, असंभव नहीं। समय का तकाजा तो यह है कि इंसान और इंसानियत के अस्तित्व को ज़िंदा रखना है, ऐसी कल्पना के सिवाय कोई और विकल्प नहीं है।
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