PATNA : नीतीश कुमार बिहार में इन दिनों कई संकटों से जूझ रहे हैं। राजनीतिक संकट एक तरफ है तो कई तरह के आंदोलन दूसरी तरफ उनका सिर दर्द बने हैं। दारोगा अभ्यर्थियों का आंदोलन लगाता चल रहा है। नियोजित शिक्षकों ने भी तेवर दिखाने शुरू कर दिये हैं। पहले माध्यमिक परीक्षा संचालन में हिस्सा न लेकर शिक्षकों ने अपने सख्त रवैये की मुनादी की। जब सरकार ने सख्ती दिखायी तो भयभीत होने के बजाय वे और उग्र हो गये। उत्तर पुस्तिकाओं के मूल्यांकन से भी खुद को अलग कर लिया।
नियोजित शिक्षक समान काम के लिए समान वेतन की मांग कर रहे हैं। उनके साथ अब माध्यमिक शिक्षक संघ भी खुल कर आ गया है। संघ ने न झुकने और हर हाल में अपनी मांगे मनवाने की जिद ठान ली है। उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने हालांकि सदन में घोषणा की कि जल्दी ही उनकी मांगों पर विचार किया जाएगा, लेकिन शिक्षक मानने को तैयार नहीं हैं। इस बीच सरकार ने हड़ताली नियोजित शिक्षकों की बरखास्तगी के लिए सभी जिला शिक्षा पदाधिकारियों को पत्र जारी कर दिया है। कुछ जिलों में इन्हें बरखास्त भी किया गया है।
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कुछ ही महीने बाद बिहार में चुनाव होने हैं। नीतीश सरकार की मुश्किल यह है कि वे या तो शिक्षकों की मांगों को मानें या उनके कोप का भाजन चुनाव में बनें। दारोगा अभ्यर्थी भी इसी के आंदोलन पर हैं। अगर सरकार उनकी मांग नहीं मानती या सुनती है तो उन अभ्यर्थियों की जमात भी अपनी नाराजगी का इजहार अपने तरीके से करेगी। यानी ये दो ऐसे मामले हैं, जिन पर सरकार को कोई संतोषजनक और मान्य फैसला लेना ही पड़ेगा। आंदोलनकारियों पर लाठियां बरसा कर उन्हें हतोत्साहित करने का सरकार का प्रयास फेल हो चुका है।
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नीतीश कुमार को तमाम अच्छे कामों के बावजूद बिहार के पिछड़ेपन की रपटों, घोटालों, बढ़ते अपराधों और प्रशांत किशोर व पवन वर्मा जैसे अपने लोगों की आलोचना और व्यंग्य वाण तीर से चुभ रहे हैं। विपक्ष उन पर इन्हीं मुद्दों को लेकर हमलावर हो गया है। राज्यस्तरीय कार्यकर्ता सम्मेलन में ढाई लाख लोगों को जुटाने का पार्टी का उस वक्त टांय-टांय फिस्स हो गया, जब सामान्य सभा की तरह कुछ हजार कार्यकर्ता ही पहुंच पाये। उनके लिए बना खाना सड़तों पर फेंकना पड़ा।
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सीएए पर संसद में भाजपा का समर्थन करने, एनपीआर और एनआरसी के मुद्दे पर अपना स्टैंड क्लीयर करने में विलंब और इन्हीं मुद्दों को लेकर आवाज उठाने वाले प्रशांत किशोर व पवन वर्मा को पार्टी से निकाले जाने का सीधा असर मुस्लिम वोटरों पर पड़ा है। हाल के वर्षों में नीतीश कुमार ही मुस्लिम वोटरों के दावेदार बन गये थे। दूसरी ओर इन्हीं मुद्दों पर विपक्ष, खासकर आरजेडी ने अलख जगाये रखा। आखिरकार नीतीश ने विधानसभा से एनपीआर में संशोधन और एनआरसी के खिलाफ प्रस्ताव तो पारित कराया, लेकिन उसके पहले इसकी भनक किसी को दिये बगैर उन्होंने आरजेडी नेता तेजस्वी यादव से बंद कमरे में बातचीत की। इससे जेडीयू के पारंपरिक या कोर वोटरों में भी भ्रम की स्थिति पैदा हुई।
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अब नीतीश को नये सिरे से अपने वोटरों को यह विश्वास दिलाना होगा कि वह न तो अपने सहयोगी दल भाजपा के दबाव में हैं और न किसी नये राजनीतिक समीकरण की उनकी योजना है। अगर इसमें वे कामयाब रहे तो बिगड़ी या बिगड़ती स्थिति संभल पाएगी, वर्ना खतरा बरकरार रहेगा। कार्यकर्ता सम्मेलन के बाद जिस तरह जेडीयू में खामोशी है, उससे साफ हो गया है कि पार्टी को अपनी स्थिति का एहसास हो गया है।
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