भाजपा को काबू में रखने की कला कोई नीतीश कुमार से सीखे

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अगर काम को आधार बना कर वोट मिलते हैं तो नीतीश बिहार में सर्वाधिक वोट हासिल करने का पूरा बंदोबस्त कर चुके हैं
अगर काम को आधार बना कर वोट मिलते हैं तो नीतीश बिहार में सर्वाधिक वोट हासिल करने का पूरा बंदोबस्त कर चुके हैं
  • मिथिलेश कुमार सिंह

पटना। भाजपा के साथ जदयू के संबंध भले बराबर के हैं, लेकिन सच यही है कि नीतीश के कारण जदयू अपने साथी दल भाजपा पर भारी पड़ रहा है। इसे कई उदाहरणों-अवसरों को जोड़ कर समझा जा सकता है। नीतीश कुमार कई मौकों-मुद्दों पर भाजपा को नीचा दिखाते रहे हैं।

भाजपा ने हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण के लिए राम मंदिर का राग अलापना शुरू किया था। अदालत के फैसले में विलंब को देखते हुए भाजपा में यह बात उठी कि अध्यादेश के जरिये मंदिर बनाने की घोषणा हो। माह भर तक यह शिगूफा चलता रहा। नीतीश ने दबंगता से कहा कि अध्यादेश आया तो जदयू संसद में साथ नहीं देगा। भाजपा बैकफुट पर आ गयी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ऐलान करना पड़ा कि मंदिर कानून के दायरे में ही बनेगा, अध्यादेश के जरिये नहीं। नीतीश ने जान-बूझ कर बिहार में निर्णायक वोट माने जाने वाले मुसलमानों को अपने वश में करने के लिए यह कदम उठाया। उन मुसलमानों के लिए, जिनके मन में यह शंका थी कि नीतीश भाजपा के साथ हैं तो वे उसकी ही बात मानेंगे।

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तीन तलाक का जब मुद्दा आया तो नीतीश ने साफ कह दिया कि उनकी पार्टी जदयू इस मसले पर भाजपा के साथ नहीं है। बिल अंटक गया। नीतीश मुसलमानों के हितैषी बन कर उभरे, जिन्हें उनके पर्सनल ला में कोई छेड़छाड़ गवारा नहीं। यानी उन्होंने फिर मुसलमानों का दिल जीत लिया।

कश्मीर में धारा 370 हटाने और 35 ए के लिए जब पूरा देश इसके पक्ष में खड़ा था, खासकर पुलवामा कांड के बाद तो नीतीश ने साफ कर दिया कि उनकी पार्टी को यह पसंद नहीं। रह-रह कर यह मांग अब भी उठ रही है, लेकिन नीतीश के अड़ जाने के कारण भाजपा ने फिलहाल चुप्पी साध ली है।

नागरिकता कानून के सवाल पर भाजपा पूर्वोत्तर में अपनी जमीन मजबूत करने की फिराक में थी। नीतीश ने इसके खिलाफ आवाज बुलंद कर अपनी छवि राज्य के बाहर भी चमकाने की कोशिश की। उनसे मिलने असम से असम गण परिषद का प्रतिनिधिमंडल प्रफुल्ल कुमार महंत के नेतृत्व में पटना आया था। नीतीश ने न सिर्फ उनकी आपत्ति का समर्थन किया, बल्कि जदयू के प्रतिनिधि उनके गुवाहाटी में होने वाले कार्भेयक्जरम में भेज कर असम में अपनी जड़ रोप दी। आने वाले समय में इसका फायदा उन्हें किसी न किसी रूप में जरूर मिलेगा।

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जदयू ने अपनी शर्तें थोपते हुए आरंभ में ही भाजपा से बराबरी की सीटें हथिया ली थीं। भाजपा को अपनी जीती पांच सीटें गंवानी पड़ी और नीतीश पिछले लोकसभा चुनाव में महज दो सीटें लाने के बावजूद भाजपा के बराबर 17 सीटें लेने में कामयाब हो गये।

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अब यह तय माना जा रहा है दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यक वोटों के दावेदार नीतीश कुमार ही होंगे। इसलिए कि अब सबको पता हो गया है कि भाजपा के अश्वमेध का घोणा रोकने में कोई सक्षम है तो वह हैं नीतीश कुमार। अपनी ताकत का अंदाज कर ही उन्होंने भाजपा के सामने एक शर्त और थोप दी है कि उनका चुनावी गठबंधन सिर्फ बिहार तक ही सीमित है। जदयू दूसरे राज्यों में अपने उम्मीदवार उतारने को लिए स्वतंत्र है।

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लब्बोलुआब यह कि नीतीश ने भाजपा के साथ रहते हुए भी अपनी जमीन पुख्ता कर ली है। यह अलग बात है कि नीतीश का वोट भाजपा को स्थानांतरित हो पायेगा कि नहीं, लेकिन भाजपा का वोट यकीनन नीतीश के खाते में जायेगा। इसलिए कि भाजपा समर्थक मोदी को प्रधानमंत्री के रूप में दोबारा देखना चाहते हैं। मौजूदा हालात में सहयोगियों के बिना मोदी की नैया पार नहीं होगी। इसलिए उनका वोट पक्का नीतीश कुमार के पाले में जायेगा। लेकिन नीतीश खेमे के वोट भाजपा को ट्रांसफर होंगे कि नहीं, इसमें संदेह की पूरी गुंजाइश है।

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