कोलकाता में संपादकी करते ओमप्रकाश अश्क ने एक समाजसेवी की भूमिका कैसे निभायी, इसके बारे में आप ने पिछली कड़ी में पढ़ा कि एक रिक्शा चालक के बेटे के दिल की बीमारी के इलाज के लिए उन्होंने कैसे धन संग्रह की कोशिश की। जरूरत से ज्यादा की पेशकश आने पर उन्होंने क्या किया, आज की कड़ी में पढ़ें। आप लगातार पढ़ रहे हैं अश्क जी की संस्मरणों पर आधारित प्रस्तावित पुस्तक- मुन्ना मास्टर बने एडिटर- की धारावाहिक कड़ियां
अगले दिन पहले पन्ने पर उसी जगह फिर प्रभात खबर में एक खबर छापी- माफ कीजिए, अब और नहीं। इसमें बताया कि कैसे और किन-किन लोगों ने कितनी रकम की पेशकश की है। सारी रकम उतनी हो जाती है, जितने में ऐसे दस बच्चों की इसी तरह की बीमारी का इलाज कराया जा सकता है। खबर छापने के बाद भी खड़गपुर के किसी रिक्शावाले ने जबरन ढाई-तीन सौ रुपये का मनीआर्डर भेजा था। भेजने के लिए जब वह पता मांग रहा था तो बार-बार एक ही बात दोहराता- रिक्शावाले का बेटा है। मैं भी रिक्शा चलाता हूं। उसके बेटे के इलाज के लिए मेरा पैसा उस तक पहुंचा दें। उसकी जिद के आगे हार कर मैंने अपना पता दिया था। इलाज के बाद रिक्शा वाले का बच्चा घर लौट गया, तब खड़गपुर के रिक्शा वाले का पैसा पहुंचा था। मैंने वही रकम बीमार बच्चे के बाप को दे दी थी।
फरिश्ता बन कर जो एम जैन साहब ने बच्चे के हार्ट का आपरेशन कराया, अफसोस कि उनसे मैं आज तक नहीं मिल पाया। उन्होंने भी अपने इस अहसान की कहीं कोई चर्चा की या नहीं, मुझे नहीं पता। मुझे तो खुशी दो बातों से थी कि उन्होंने मेरे अखबार की खबर पढ़ कर मदद की और जिस मदद के लिए मैं बेचैन था, वह पलक झपकते ही किसी ने पूरी कर दी।
मैं दमदम कैंटोनमेंट में रहता था। वहां हिन्दीभाषियों की खासा तादाद है। हिन्दी स्कूल के नाम पर तीन-चार विद्यालय हैं, लेकिन दो में ही बच्चों की भरमार थी। सभी स्कूलों में को-एजुकेशन सिस्टम है। हिन्दी पट्टी की मानसिकता के कारण बच्चियां अपने को बच्चों के साथ पढ़ने में असहज महसूस करती थीं। वहीं के एक शिक्षक ने बालिका विद्यालय का प्रस्ताव रखा। म्यूनिसिपैलिटी ने जमीन तो दी, लेकिन एक शर्त के साथ कि ग्राउंड फ्लोर उसका होगा और ऊपर के तल्ले स्कूल के होंगे। यानी स्कूल के एक फ्लोर के लिए दो फ्लोर का खर्च। मैंने इस यज्ञ में योगदान का वचन दिया और बीके बिरला जी के सामने मदद का प्रस्ताव रखा। दो बार में उन्होंने तीन-चार लाख रुपये दिये। भाजपा के तत्कालीन सांसद तपन सिकदर ने भी अपनी सांसद निधि से कुछ मदद की थी। वामपंथी दलों की सरकार थी। लोकल कमेटी के मार्फत यह बात माकपा के आला नेताओं तक पहुंची तो उन्हें अपना आधार खिसकने का भय हुआ। फिर उनके एक मंत्री ने भी इस यज्ञ में अपनी आहुति दी।
दमदम एयरपोर्ट में भी एक हिन्दी स्कूल था। वहां के हेडमास्टर मेरे परिचित थे। उन्होंने प्रस्ताव रखा कि बच्चों के लिए कंप्यूटर का इंतजाम करा दें। बिरला जी के सहयोग से वहां शायद दर्जन भर कंप्यूटर लग गये। दमदम के ही एक अन्य हिन्दी स्कूल के हेडमास्टर ने कहा कि बरामदा नहीं होने से बारिश के वक्त पानी क्लासरूम में चला जाता है। कहीं से कोई मदद दिला दें तो समस्या से छुटकारा मिले। बिरला जी ने 50 या 75 हजार रुपये की मदद मेरे मार्फत कर दी।
समाजसेवा का एक और उल्लेखनीय मामला याद आ रहा है। 31 दिसंबर 2001 या 2002 की घटना होगी। कोलकाता पुलिस का एक सार्जेंट बापी एक लड़की को छेड़खानी करने वालों से बचाने के क्रम में मारा गया। उसके महीने-दो महीने के अंदर बिहार के चंपारन जिले का एक युवा ऐसे ही एक मामले में अपराधियों का शिकार हो गया। क्राइम रिपोर्टर ने यही खबर दी कि बिहार का लड़का दरवान का काम करता था। उसके पिता भूंजा बेचते थे। शाम को वे लोग एक झोपड़पट्टी में रहते थे। लड़के के पिता गांव गये हुए थे। बाहर किसी लड़की के चीखने-चिल्लाने की आवाज सुन कर बिहारी लड़का बाहर आया। उसने देखा झोपड़पट्टी की ही एक बंगाली लड़की को कुछ मनचले खींच कर ले जा रहे हैं। जाहिर है कि उनकी मंशा दुष्कर्म की रही होगी।
बिहारी लड़के ने उनका विरोध किया। मनचलों ने चाकू गोद कर उसकी हत्या कर दी। अपराध की सामान्य घटना में यह शुमार हो गयी। मेरे अंदर कसक उठी कि बिहार का एक लड़का किसी लड़की की आबरू बचाने में मारा गया तो उसकी मातमपुर्सी के लिए भी कोई नहीं गया, लेकिन पिलस का बंगाली जवान इसी तरह के काम में मारा गया तो उसके नाम पर सड़क बनाने की मांग होने लगी। बीमा वाले उसके घर पैसे पहुंचाने लगे। अफसर-नेता उसके घर मातमपुर्सी के लिए जमावड़ा लगाने लगे। यानी एक ही काम और उसके फल दो तरह से। मैंने उस दिन भी एक मार्मिक, लेकिन हिन्दीभाषी समाज को झकझोर देने वाली एक खबर लिखी। उसमें यही बताया कि दरबान बिहारी था। वह बंगाल की किसी पार्टी के लिए वोटर नहीं था। इसलिए उसकी उपेक्षा सरकार और-प्रशासन के स्तर पर हुई। ऐसे में हिन्दीभाषी समाज को आगे आना चाहिए। तकरीबन एक लाख रुपये जमा हुए और श्राद्ध संपन्न होने के बाद उसके पिता को गांव से बुलवा कर पैसे उसके नाम से बैंक में फिक्स्ड डिपाजिट करवाये। प्रभात खबर के मेरे प्रयास को टाइम्स आफ इंडिया ने भी अपने अखबार में जगह दी।
किसी की मदद करना, गरीबों में कंबल-साड़ी बांटना, किसी की फीस जमा करना और गरीब, किंतु मेधावी छात्रों को पढ़ाई के लिए खर्च जुटा कर देने जैसे कामों से मेरी पहचान एक सोशल वर्कर के रूप में भी बन गयी थी। एक दिन मैं दफ्तर में बैठा हुआ था। एक लड़का आया। उसने सीधे कहा कि मेरा फार्म भरा जाना है। फीस के 6000 रुपये देने हैं। पैसा नहीं है, मदद कीजिए। मैंने पूछताछ में जाना कि वह उसी स्कूल का छात्र है, जहां मेरा बेटा भी पढ़ता है। मैंने उसके नाम और क्लास जान कर उस विद्यालय के एक शिक्षक से तहकीकात की। पता चला कि सच में उसकी फीस बाकी है। लड़के से मैंने बार-बार पिता का नाम पूछा। वह चुप रहता। बाद में पता चला कि वह वेश्या बस्ती सोनागाछी की किसी वेश्या का पुत्र है। खैर, मैंने उसकी फीस किसी से मांग कर जमा करा दी।
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