भिखारी ठाकुर के काल्ह जयंती ह. उनका जयंती पर संजीव के उपन्यास ‘सूत्रधार’ के एगो अंश के भोजपुरी अनुवाद कइले बाड़े निराला बिदेसिया
बबुआइन बाबू साहब से पूछली, ‘ई भिखारी के का हो गइल बा जी! तनी देखले बानी. मेहरारू लेखा बोली-बानी,चाल-ढाल…तनी देखब ना धेयान दे के. आयें जी, कहीं नामरद त ना नु हो गइले भिखारी! एह बात के गंध उड़त-उड़त बहोर बहू तक ले पहुंचल. आ फेरू उहवां से मनतुरनी देबी तक ले. भिखारी के जनाना मनतुरनी देबी तक ले.
रामानंद सिंह के जनाना मनतुरनी से पूछली- ‘का रे नउनिया, राति खा आवेलन भिखारी!’ मनतुरनी लजा गइली. रामानंद बो कहली- ‘ना-ना, एह में लजाये से काम ना चली. जे बा से गड़बड़ा जाई. धीरे से कान में फुसफुसा के कहली.
मनतुरनी कहली- आवेलन त. रामानंद बो पूछली- तोहार-उनकर संग साथ ठीक बा नु! मनतुरनी कहली- सोरहो आना जी! मनतुरनी के मुंह से बकार नइखे निकलत. लाजे जुबान गुंगियात जात बा. एह उमिर में केहू अइसन सवाल पूछले रहे. बाकिर जब मनतुरनी के भिखारी के लक्षण, चाल-चलन बतावल गइल त डेरा भी गइली मने-मन. चिहुंक गइली. रामजी के इयाद कइली. ओही घरी से भिखारी पर नजर रखे शुरू कइली. उनकर बोलल, चलल, उठल, बइठल पर. अब एतना दिमाग में बइठा लेले रहली मनतुरनी कि कबो-कबो रामानंद बो के बतिया सांच लागे, कबो कबो झूठ. कहे के त कह देले रहली रामानंद बो बबुआइन से बाकि बिना परखले उनकर मन ना मानत रहे.
दिन बीत गइल. रात भइल. खा-पी के आपन कोठारी में जा के लेटली. केहू ना केहू कुछ बोलते रहे. केहू ना केहू आवाज दे देत रहे. मनतुरनी के एंड़ी के लहर कपारे चढ़त रहे ओह रात में केहू के आवाज सुन के, भनभनाहट सुन के भी. मने मन बुदबुदात रहली- काहे खातिर लोग एतना रतिया तक ले जगवारी करत रहेला. नीनो ना आवेला सभका. लागत बा कि सब बात लोग आजे बतिया लिही. आ ई बुढ़ऊ के त खंसवासिए लागल बा. इनकर खंसिये ना बंद होला कबो. जबरदस्ती सुते के कोसिस कई के सुत गइली मनतुरनी.
रात के एक पहर बीतल. नीन आवत कहां रहे ओह रात. जाग के देखली कि सभे सुतल कि ना. मन के मना लेली कि सभे के नीन आ गइल बा. उठ के धीरे-धीरे गोड़ दबा के आगे बढ़ली. दुआरी के केवाड़ी के सिकड़ी धीरे से खोलली कि आवाज ना होखे. बाकि सिकड़ी त सिकड़ी. आवाजे क गइल. तुरंते मन में सोच लेली मनतुरनी कि केहू पूछी त कह देब कि पेशाब लागल बा, एही से खोलनी ह केवाड़ी. दुअरा पर देखली. बरात लेखा लोग सुतल रहे. मनतुरनी फेरू चिंतित कि बाप रे बाप, एतना लोग सुतल बा इहवां. केहू देख ली तब. फेरू मन में सोचली कि जान जाये केहू त जान जाये. कवनो चोरी-छिनारी करे जात बानी का?
भिखारी के लगे पहुंचली. कान्हा हिलवली. फेरू कान में फुसफुसइली. पूरा नीन में बानी का जी! भिखारी मुंह से जवाब ना देले. पकड़ के अंकवारी में ले लिहले. पूरा शरीर में नस तड़तड़ा गइल. मनतुरनी के खुशी के ठेकाना ना रहल. कहली मने मन कि ना, सोरहो आना सही बाड़े. बबुआइन अनेरे मन में शंका जगा देली ह.
मनतुरनी कहली- छी..छी. लाज नइखे लागत! भिखारी कहले- ना, तनिको ना. मनतुरनी कहली- एह मे त बड़ा चोख बानी बाकि चाल काहे ओइसन चलीना! भिखारी पूछले- कइसे हो! मनतुरनी कहली- ओसहीं, जइसे कवनो मेहरारू! भिखारी कहले- आयें. भक्क. सांचो!
मनतुरनी कहली- खाली चलबे थोड़ी करी ना, हथवो मेहरारू लेखा ही हिलाईना आ देखिना भी मेहरे लेखा. कुल हाव-भाव जनाना लेखा हो गइल बा राउर. भिखारी कहले- का कहत बाडू. राम-राम. अपना आंखें देखलू ह हमरा में ई कुल लक्षण! मनतुरनी कहली- हमहीं खाली ना, राउर इयार रामानंद सिंह के घरे के, बहोर बहू आ ढेर दोसर लोग देखले बा. एगो बात कहीं. एतना कहत-कहत मुंह गड़ा देली मनतुरनी भिखारी के छाती में. भिखारी कहले- कहअ ना. मनतुरनी- रउआ ई नाच काहे नइखी छोड़ देत. नाच ना छोड़ेब त कम से कम मेहरारू के पाट कइल छोड़ दीं ना अब. भिखारी दुनो हाथ के हथेली से मनतुरनी के चेहरा उठवले आ होठ से होठ सी देले. ढेर देर तक दुनो परानी खटिया पर पड़ल रहल. फेरू कहले भिखारी- देखअ हम नाच के दल चलाइना. दोसरा के नचाइला. बखत जरूरत पर त हमरा भी…
मनतुरनी बीचे में बात कटली. कहली- ना, ना, शीलानाथ के… भिखारी डंटले. डांट के आगे किरिया-कसम ना देबे देले मनतुरनी के. मनतुरनी कहली- एगो रउआ ना नाचेम त का नाच दल के हरजा हो जाई? भिखारी कहले- के तोहरा से कहल हा कि हम नाचीला! मनतुरनी कहली- मेहरारू त बनिला नू नाच में! भिखारी- हां. मनतुरनी- त जनि बनीं. भिखारी- हमरो कुछ बात सुनबू? मनतुरनी- बोलीं. भिखारी- ढेर लोग मेहरारू बनेला नाच में. मनतुरनी- ठीक बा बाकि तू काहे बनेलअ?
भिखारी- पहिलका बात ई कि उ लोग हमरा मनजोग पाट ना करे. पहिलका बात ई सुनअ कि तुहूं त मेहरारू हउ. का खाली तोहार काम आंख मारल, लीलगाय लेखा कुंदक मारल, एतने भर बा! मनतुरनी- भक्क.रउओ नू! भिखारी- एतने त होला. पतुरिया बने तबो. सीता माई बने तबो. सब धन बाईस पसेरी बा. मेहरारू मरजाद होले. मरद के सखी होले. बहिन होले. बेटी होले. ममता के समुन्नर होले. फूल लेखा महके-गमके ले मेहरारू. नरम, प्रेम, छोह से छलकत रहेले मेहरारू.
मनतुरनी- रउआ त सांचो में पूरा डूब गइनी मेहरारू के गुण में. भिखारी- बिना डुबले मेहरारू के तन, मन आ आत्मा कहां से ला पाईब? मनतुरनी अपना अंचरा से मुंह ढांक के हंसली- तन भी जी! भिखारी कहले- बिसवास करअ. जब हम मेहरारू बनी ला नू त लागेला कि हमार छाती फूल गइल बा. चूतर भारी हो गइल बा. कमर पातर हो गइल बा. बोली नरम हो गइल बा. लागेला कि एगो रस बह रहल बा अंदर. करेजा से होखत जांघ के बीच से भिंजावत नीचे तक जाला.
मनतुरनी कहली- भक्क जी! भक्क-भक्क त कई बेर कह देली मनतुरनी, बाकि तबो मन के पूरा शंका गइल ना रहे अब ले. अबहियो सोरह आना संतुष्टि ना भइल रहे मन के. फेरू धीरे से कहली-ए जी सुनीं जी. का त नचनिया धीरे-धीरे मेहरारू हो जाला? भिखारी कहले- हम भइल बानी का?
मनतुरनी- अबही त ना. बाकि बाद में…! भिखारी चुप. का जवाब देते. रात बीत के भोरहरिया होखल चाहत बा. मनतुरनी धीरे से कहली- चाहे त मरद, चाहे त मेहरारू. दुनो में से एके गो रहब नू? भिखारी- हं.
भोर भइल. भिखारी चले लगले त लागे उनका कि केहू पाछे से डेगे-डेग टोक रहल बा- तनी ठीक से चलअ. अकड़ के. मरद लेखा. सीधे तन के चलअ. मरद लेखा. देखअ देखअ पाछे देखत बाड़अ. मेहरारू लेखा पाछे जनि देखअ. आगे देखत रहअ. ढीला नइखे होखे के…
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