इमरजेंसी 25 जून 1975 को लागू हुई। 21 माह (1975-1977) तक रही। इमरजेंसी के इस दौर को कवियों ने भी अपने नजरिये से देखा और खूब रचनाएं कीं। इनमें न सिर्फ हिन्दी के कवि थे, बल्कि दूसरी भारतीय भाषाओं के रचनाकार भी शामिल थे। बता रहे हैं, जेपी आंदोलन में शरीक रहे राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश
- हरिवंश
लोकतांत्रिक और आजाद भारत की राजनीति का ऐतिहासिक दिन है 25 जून। 46 वर्षों पहले 1975 में देश में 25 जून को ही इमरजेंसी लगी। इमरजेंसी के भुक्तभोगियों और देखनेवालों को पता है कि क्यों इतिहास का वह 21 माह (1975-1977) भारतीय इतिहास के एक दागदार इतिहास के रूप में लोकमानस में हमेशा दर्ज रहेगा।
निजी स्मृति है। तब हम बीएचयू के छात्र थे। उम्र लगभग 19 वर्ष। विश्वविद्यालय परिसर की छात्र राजनीति में सक्रियता थी। इमरजेंसी के दौर में साथियों ने परचा-पोस्टर चिपकाने, गुप्त तरीके से साहित्य बांटने का काम किया। गोपनीय बैठकों में हिस्सा लिया। 24 जून का दिन था। पहली बार बनारस से दिल्ली के लिए निकला। दिल्ली में अनुपम मिश्रजी, जेएनयू के प्रो. परिमल कुमार दासजी (उन्होंने कुछ दिन जेपी के साथ काम किया था) और एक मशहूर संपादक से मिलना था। प्रो. परिमल कुमारजी के नाम पत्र जेपी के निजी सचिव जगदीश बाबू ने दिया था। अनुपमजी और उस वक्त के एक मशहूर संपादक के नाम प्रो. कृष्णनाथजी ने पत्र दिया था। हम युवा आंदोलन से जुड़े थे। पहली बार दिल्ली आना हो रहा था। जेपी के गांव का था। उनके परिवार से पीढ़ियों का निजी संबंध रहा था।
जगदीश बाबू अभिभावक की तरह स्नेह करते थे। प्रो. कृष्णनाथजी से तब कुछ ही दिनों पहले जेपी के गांव में उनके घर पर ही परिचय हुआ था। आंदोलन में सक्रिय छात्र के रूप में दिल्ली में इन लोगों से मिलने का सुझाव मिला था। 25 जून की सुबह दिल्ली पहुंचा। यमुना पार बहुत दूर गांव के एक कारीगर (बढ़ई) एक छोटी निजी कंपनी में काम करते थे, बस से उन्हीं के घर पहुंचा। वहीं रुका। 26 जून की सुबह बस से जेएनयू पहुंचा। जगदीश बाबू का पत्र प्रो. परिमल कुमार दासजी के पास भिजवाया।
फिर लौटा अनुपमजी के घर। शाम हो गयी थी। वह घर पर नहीं थे। उनके पिता और हिंदी के यशस्वी कवि भवानी प्रसाद मिश्रजी बैठे थे। बड़े स्नेह से उन्होंने पूछा, ‘कहां से आये हैं, किससे मिलना है?’ बताया, ‘जेपी के गांव से हूं। अनुपमजी के लिए प्रो. कृष्णनाथजी का पत्र है।’ उन्होंने बहुत स्नेह दिया। चाय पिलाई। एक अपरिचित युवा के लिए उनका वह अदभुत स्नेह अब भी स्मृतियों में जीवंत है। आपातकाल में भवानी प्रसाद मिश्रजी (भवानी भाई के नाम से मशहूर) रोजाना तीनों पहर कविताएं लिखते थे। इमरजेंसी के हाल-हालात और यातनामयी दौर पर लिखी गयीं वे कविताएं ‘त्रिकाल संध्या’ नाम से काव्य संग्रह के रूप में प्रकाशित हुईं। यह अद्भुत काव्य संग्रह है।
एक कविता का अंश है-
बहुत नहीं सिर्फ चार कौए थे काले,
उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़ने वाले
उनके ढंग से उड़े, रुकें, खायें और गायें
वे जिसको त्यौहार कहें सब उसे मनाएं
उस दौर पर कुछ और कवियों ने रचनाएं कीं। वे कविताएं भी दस्तावेज की तरह हैं। फणीश्वर नाथ ‘रेणु’जी की कविता ‘इमरजेंसी’ लोकप्रिय हुई। उस कविता की आरंभिक पंक्तियां हैं-
इमरजेंसी- वार्ड की ट्रालियां
हड़हड़-भड़भड़ करती
आपरेशन थियेटर से निकलती हैं- इमरजेंसी!
उस वक्त के जानेमाने कवियों और लेखकों की लेखनी में कैसे इमरजेंसी की पीड़ा व्यक्त हुई, उसका कुछ अंश यहां दिया जा रहा है। लंबी कविताओं के छोटे-छोटे अंश यहां दिये जा रहे हैं।
नागार्जुनजी की कविता ‘इंदु जी क्या हुआ आपको’ इमरजेंसी के दौर पर तल्ख टिप्पणी के रूप में दर्ज है। उस कविता का अंश है- इंदु जी, क्या हुआ आपको, छात्रों के लहू का चस्का लगा आपको
दुष्यंत कुमारजी की मशहूर गजल ‘हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए’ इमरजेंसी के दौर पर ही लिखी गयी कालजयी रचना है।
धर्मयुग के यशस्वी संपादक, साहित्यकार धर्मवीर भारतीजी की लंबी कविता ‘मुनादी’ एक हथियार-औजार की तरह साबित हुई। इस कविता को भारतीजी ने इमरजेंसी के कुछ दिनों पहले ही जेपी को केंद्रित कर लिखा था। इमरजेंसी के दिनों में यह खूब लोकप्रिय हुई। कविता है-
ख़लक ख़ुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का…
हर खासो-आम को आगह किया जाता है
कि खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अंदर से
कुंडी चढा़कर बंद कर लें
गिरा लें खिड़कियों के परदे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि
एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी कांपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है!
शहर का हर बशर वाक़िफ़ है
कि पच्चीस साल से मुजिर है यह
कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए
कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए
कि मार खाते भले आदमी को
और असमत लुटती औरत को
और भूख से पेट दबाये ढांचे को
और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को
बचाने की बेअदबी की जाय!
जीप अगर बाश्शा की है तो
उसे बच्चे के पेट पर से गुजरने का हक क्यों नहीं?
आखिर सड़क भी तो बाश्शा ने बनवायी है!
बुड्ढे के पीछे दौड़ पड़ने वाले
अहसान फरामोशों! क्या तुम भूल गये कि बाश्शा ने
एक खूबसूरत माहौल दिया है जहां
भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नजर आते हैं
और फुटपाथों पर फरिश्तों के पंख रात भर
तुम पर छांह किये रहते हैं
और हूरें हर लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी
मोटर वालों की ओर लपकती हैं
कि जन्नत तारी हो गयी है जमीं पर;
तुम्हें इस बुड्ढे के पीछे दौड़कर
भला और क्या हासिल होने वाला है?
आखिर क्या दुश्मनी है तुम्हारी उन लोगों से
जो भलेमानुसों की तरह अपनी कुरसी पर चुपचाप
बैठे-बैठे मुल्क की भलाई के लिए
रात-रात जागते हैं;
और गांव की नाली की मरम्मत के लिए
मास्को, न्यूयार्क, टोकियो, लंदन की खाक
छानते फकीरों की तरह भटकते रहते हैं…
तोड़ दिये जाएंगे पैर
और फोड़ दी जाएंगी आंखें
अगर तुमने अपने पांव चल कर
महल-सरा की चहारदीवारी फलांग कर
अंदर झांकने की कोशिश की!
क्या तुमने नहीं देखी वह लाठी
जिससे हमारे एक कद्दावर जवान ने इस निहत्थे
कांपते बुड्ढे को ढेर कर दिया?
वह लाठी हमने समय मंजूषा के साथ
गहराइयों में गाड़ दी है
कि आने वाली नस्लें उसे देखें और
हमारी जवांमर्दी की दाद दें
अब पूछो कहां है वह सच जो
इस बुड्ढे ने सड़कों पर बकना शुरू किया था?
हमने अपने रेडियो के स्वर ऊंचे करा दिये हैं
और कहा है कि जोर-जोर से फिल्मी गीत बजायें
ताकि थिरकती धुनों की दिलकश बलंदी में
इस बुड्ढे की बकवास दब जाए!
नासमझ बच्चों ने पटक दिये पोथियां और बस्ते
फेंक दी है खड़िया और स्लेट
इस नामाकूल जादूगर के पीछे चूहों की तरह
फदर-फदर भागते चले आ रहे हैं
और जिसका बच्चा परसों मारा गया
वह औरत आंचल परचम की तरह लहराती हुई
सड़क पर निकल आयी है.
ख़बरदार यह सारा मुल्क तुम्हारा है
पर जहां हो वहीं रहो
यह बगावत नहीं बर्दाश्त की जाएगी कि
तुम फासले तय करो और
मंजिल तक पहुंचो
इस बार रेलों के चक्के हम खुद जाम कर देंगे
नावें मंझधार में रोक दी जाएंगी
बैलगाड़ियां सड़क-किनारे नीमतले खड़ी कर दी जाएंगी
ट्रकों को नुक्कड़ से लौटा दिया जाएगा
सब अपनी-अपनी जगह ठप्प!
क्योंकि याद रखो कि मुल्क को आगे बढ़ना है
और उसके लिए जरूरी है कि जो जहां है
वहीं ठप कर दिया जाए!
बेताब मत हो
तुम्हें जलसा-जुलूस, हल्ला-गूल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है
बाश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से
तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए
बाश्शा के खास हुक्म से
उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा
दर्शन करो!
वही रेलगाड़ियां तुम्हें मुफ्त लाद कर लाएंगी
बैलगाड़ी वालों को दोहरी बख्शीश मिलेगी
ट्रकों को झंडियों से सजाया जाएगा
नुक्कड़ नुक्कड़ पर प्याऊ बैठाया जाएगा
और जो पानी मांगेगा उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जाएगा
लाखों की तादाद में शामिल हो उस जुलूस में
और सड़क पर पैर घिसते हुए चलो
ताकि वह खून जो इस बुड्ढे की वजह से
बहा, वह पुंछ जाए!
बाश्शा सलामत को खूनखराबा पसंद नहीं!
सिर्फ हिंदी नहीं, बल्कि दक्षिण के कवियों ने भी इमरजेंसी के दौरान कविताएं लिखकर हालात का वर्णन किया और अपना विरोध भी दर्ज किया। मशहूर कन्नड़ कवि चिन्नावीरा कानवीजी ने इमरजेंसी के दौरान कई कविताएं लिखीं। उनकी कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद साहित्य अकादमी की ओर से प्रकाशित हुआ। 2003 में। ‘Inviting Life-Chennaveera Kanavi’s Poetry’ नाम से। इमरजेंसी पर लिखी गई उनकी एक कन्नड़ कविता के अंग्रेजी अनुवाद का अंश इस प्रकार है, इसका अनुवाद राघवेंद्र राव ने किया है-
‘LISTEN TO ME, I AM TELLING YOU’
For God’s sake, why do you spread false news?
Honestly, nobody threw chappals at me in the recent meeting.
I am speaking absolute truth!
Even if they did, I never saw it.
This is the really real truth.
No. they didn’t hit me at all.
Please don’t believe what they say.
simply because it appears in the papers.
Read the stuff and then consign it to flames.
Are these paper-fellows, are they lily-white?
They announce the happening of what could have happened!
Never mind if it happened or not, it is news all the same.
Yes, it is true that I saw someone wave a black flag,
because black stands out amidst white caps!
But what’s wrong with it?
wasn’t there a huge audience that day?
After all, my speech is not dirt-cheap, is it?
In such a commotion,
don’t you think it is but natural
if someone were to transfer what is on feet to the hand,
and then transfer it from hand to the head?
If I am right, why all this hullabaloo
about the chappals being aimed at me?
All right, granting that they threw chappals:
why not assume that they were playing a game
of throwing and catching chappals? Tell me.
You may insist
I was the target.
may I then ask you a question?
Did they get the chappals specially made for them?
They were bought in some shop,
and worn out after so many days’ walking,
now apparently torn, and flung with force. All right.
please, what is the point of taking out anger here
whereas its cause lay elsewhere?
If they opened fire in Gujarat, why should they hiss angrily here?
The price-rise, the decline of self-respect and dignity
and double-talk
they belong everywhere and still occur.
Are they our exclusive property?
Look at Bihar, how they, sealing their lips with cloth bands,
joining hands behind their back, took processions.
Well, even the papers reported all this.
Following them, we should shut our mouths and keep mum,
and there lies smartness.
Just one more word, please listen: the chappal-throwing is over
wouldn’t it be fair if they were presented with new chappals ?
What do you say?
आपातकाल के दौरान देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयीजी भी जेल में बंद थे। उन्होंने ‘कैदी कविराय’ के नाम से कुंडलियां लिखीं। ‘इंदिरा इज इंडिया’ पर तंज कसते हुए उन्होंने जो लिखा, उसकी आरंभिक पंक्तियां हैं-
‘इंदिरा इंडिया एक है, इति बरुआ महाराज
अकल घास चरने गई, चमचों के सरताज’
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