मदर इंडिया ने राजेंद्र कुमार को एक्सिडेंटल से मशहूर हीरो बनाया 

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राजेंद्र कुमार
राजेंद्र कुमार
  • वीर विनोद छाबड़ा 

मदर इंडिया ने राजेंद्र कुमार को मशहूर एक्सिडेंटल से हीरो बनाया। मदर इंडिया महबूब खान की क्लासिक फिल्म थी। इसमें वे नरगिस के बेटे के किरदार में थे। जब-जब जेंटलमैन की बात होती है तो राजेंद्र कुमार तुली का जिक्र जरूर होता है। स्यालकोट में 20 जुलाई 1929 को जन्मे राजेंद्र कुमार धनी घराने के थे, मगर पार्टीशन में सब उजड़ गया। वो काम की तलाश में बम्बई आये। फिल्मी शौक ने राजेंद्र कुमार को डायरेक्टर हरनाम सिंह रवैल के दरवाज़े पर ले आया। असिस्टेंट बन गए उनके, आधी सदी तक। उनकी इच्छा आगे चल कर अच्छा डायरेक्टर बनने की ही थी। हीरो तो वो एक्सीडेंटल बने, जब देवेंद्र गोयल की नज़र उन पर पड़ी। हैंडसम हो, स्क्रीन के पीछे क्यों हो, सामने आओ, ‘वचन'(1955) बना रहा हूँ, गीताबाली को लेकर। और राजेंद्र कुमार मान गए। और फिर गीताबाली तो उनकी प्रिय हीरोइन भी थीं। इससे पहले वो अपने प्रिय दिलीप कुमार के सामने ‘जोगन’ (1950) में भी जुगाड़ से एक छोटा-सा रोल कर चुके थे।

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‘वचन’ चल निकली, दो-तीन फ़िल्में और भी कीं। लेकिन स्थापित हुए, महबूब खान की क्लासिक ‘मदर इंडिया’ (1957) से, जिसमें वो नरगिस के बेटे रामू के किरदार में थे। इसके बाद उन्हें ‘गूँज उठी शहनाई’ (1958) और ‘धूल का फूल’ (1959) जैसी बड़ी फ़िल्में मिलने लगीं। बिना गानों वाली ‘कानून’ (1960) में उनकी अदाकारी इतनी जोरदार थी कि उन्हें सचमुच का वकील ही समझा जाने लगा। जैमिनी की ‘घराना’ और एलवी प्रसाद की ‘ससुराल’ के बाद तो वो पारिवारिक पसंद बन गए। ‘ससुराल’ में उन पर फिल्माया ये गाना जन-जन की ज़ुबान पर चढ़ गया – तेरी प्यारी प्यारी सूरत को किसी की नज़र न लगे…’ और ‘इक सवाल तुम करो इक सवाल मैं करूँ…’ में उनका हाथों के ईशारों से एक्टिंग करना लोगों को बहुत भाया। अब तक उनके प्रशंसकों की बड़ी फ़ौज भी तैयार हो चुकी थी। दिलीप कुमार की तरह ट्रेजिक रोल करने की उनकी दिली इच्छा ‘दिल एक मदिर’ (1963) में पूरी हुई। उन्हें दूसरे दिलीप कुमार का तमगा हासिल हो गया। इससे दिलीप को ध्यान में रख कर फिल्म बनाने की इच्छा रखने वालों की तो चांदी हो गयी। दिलीप न सही राजेंद्र तो है। ‘दिल एक मंदिर’ की नायिका बड़े कद वाली मीना कुमारी थीं, जिनके सामने परफॉर्म करना बहुत मुश्किल काम माना जाता था। इससे पहले हालाँकि वो ‘चिराग कहाँ रोशनी कहाँ’ में मीना जी के साथ काम कर चुके थे, मगर ‘दिल…’ में उनका किरदार एक ऐसे डॉक्टर का था जिसे अपनी पूर्व प्रेमिका के पति की ख़तरनाक बीमारी को ठीक करते हुए खुद कुर्बान हो जाना था। इस मुश्किल किरदार को राजेंद्र कुमार ने बड़ी शिद्दत से जीया। उनका कद भी बढ़ा। इसके बाद तो उनकी जैसे लाटरी निकल पड़ी। जिस फिल्म पर हाथ रख दिया, हिट हो गयी। प्यार का सागर, हमराही, गहरा दाग, मेरे महबूब, आई मिलन की बेला, ज़िंदगी, आरज़ू, सूरज आदि। उनको नया नाम दिया गया, जुबली कुमार।

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1966 के बाद उनके कैरीयर में ठहराव सा आने लगा। फ़िल्में कम आने लगीं। झुक गया आसमान, अमन, आप आये बहार आयी, गाँव हमारा शहर तुम्हारा आदि अच्छी नहीं चलीं। लेकिन गीत, ललकार, तलाश, साथी, गंवार, धरती, शतरंज, गोरा और काला, दो जासूस आदि ठीक-ठाक चलीं। 1970 आते-आते राजेंद्र कुमार चालीस के हो गए, पहले जैसी ताज़गी नहीं रही। उन्होंने बाय बाय कर ली। और फिर राजेश खन्ना जैसे नए सितारे के उभरने के कारण उनकी मार्किट ख़त्म हो गयी। यहाँ ये बताना भी ज़रूरी है कि राजेंद्र कुमार ने अपना बंगला ‘डिंपल’ राजेश खन्ना को बेच दिया जिसे उन्होंने ‘आशीर्वाद’ नाम दिया। कालांतर में राजेश खन्ना की मौत के बाद उनके वारिसान ने ये बंगला बेच दिया। 1978 में राजेंद्र कुमार मित्र सवान कुमार की ‘साजन बिना सुहागन’ और स्वयं की ‘लव स्टोरी’ (1981) में करैक्टर रोल में दिखे। दोनों ही फ़िल्में चलीं।

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स्क्रीन से बाहर भी राजेंद्र कुमार काफी चर्चा में रहते थे। हमेशा दूसरों की मदद को उनके हाथ आगे बढ़े रहे। धर्मेंद्र को ‘हीमैन’ बनाने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा। ‘आई मिलन की बेला’ में दो राय नहीं कि राजेंद्र कुमार से ज़्यादा धर्मेंद्र की पर्सनालिटी जम रही थी। लेकिन इसमें उनका किरदार निगेटिव था। नतीजा ये हुआ कि उन्हें ऐसे ही किरदार के ऑफर आने लगे। तब राजेंद्र कुमार ने उनकी मुश्किल आसान की, बहनोई ओपी रल्हन की ‘फूल और पत्थर’ में टफ हीरो का किरदार दिलवाया। जबकि रल्हन चाहते थे कि ये किरदार राजेंद्र कुमार खुद करें। लेकिन उन्होंने ये कह कर मना कर दिया कि मेरी बॉडी किरदार के माफ़िक नहीं है। उन्होंने रिश्तेदारों की भी मदद की। ओपी रल्हन के अलावा भाई नरेश कुमार को खड़ा किया जिन्होंने एक सपेरा एक लुटेरा, आग, गंवार, तांगेवाला, गोरा और काला, मामा भांजा, दो जासूस जैसी हिट फ़िल्में बनायीं। रमेश बहल भी उनके रिश्तेदार थे जिनकी दि ट्रेन, जवानी दीवानी, कस्मे वादे और पुकार में उन्होंने पैसा लगाया।

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राजेंद्र कुमार के गहरे मित्रों में सबसे ऊपर राजकपूर रहे। इसी मित्रता की खातिर उन्होंने ‘संगम’ (1964) में सेकंड लीड का किरदार किया। इसके पीछे एक कारण ये भी कि इस रोल को करने से उनके आदर्श दिलीप कुमार ने मना कर दिया था। और सबसे ज़्यादा सराहना भी उन्हें ही मिली। राजकपूर के ड्रीम ‘मेरा नाम जोकर’ के एक पार्ट में भी वो नज़र आये। राजकपूर ने चाहा कि उनकी दोस्ती रिश्तेदारी में बदल जाए, छोटी बेटी रीमा राजेंद्र कुमार की बहु बन जाए। राजेंद्र कुमार भी यही इच्छा थी। पुत्र गौरव की धूमधाम से सगाई भी रीमा से हुई। लेकिन नियति को ये मंज़ूर नहीं था। गौरव का दिल कहीं और था। ये सगाई टूट गयी। गौरव ने सुनील दत्त की बेटी नम्रता से शादी कर ली। लेकिन इस ट्रेजडी के बावजूद उनकी राजकपूर से दोस्ती बनी रही।

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राजेंद्र कुमार को फिल्मों में एंट्री देने एचएस रवैल ने उन्हें गोल्डन जुबली हिट ‘मेरे महबूब’ में हीरो लिया था। इसके कई गाने जन जन की ज़ुबान पर चढ़े। खासतौर पर, मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की क़सम…तब राजेंद्र कुमार ने रवैल से वादा किया था कि कभी फिल्म प्रोड्यूस की तो उसे आप डायरेक्ट करेंगे। राजेंद्र ने पहली फिल्म प्रोड्यूस की, लव स्टोरी (1981), बेटे कुमार गौरव को लांच करने के लिए। वादा तो याद रहा लेकिन रवैल की बजाये उनके बेटे राहुल को डायरेक्शन का चार्ज दिया। लेकिन जब फिल्म पूरी होने को थी कि कुछ विवाद हुआ, राहुल को हटा दिया गया। टाइटल्स में क्रेडिट भी नहीं दिया। इसके अलावा उनका कोई विवाद या लफड़ा कभी सुना नहीं गया, न किसी हीरोइन से या न किसी प्रोड्यूसर से।

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12 जुलाई 1999 को बेटे के 39वें जन्मदिन से एक दिन पहले और अपने 70वें जन्मदिन से आठ दिन पहले राजेंद्र कुमार ने इस फ़ानी दुनिया को अलविदा कही। उन्हें जानलेवा कैंसर था। मगर उन्होंने ईलाज करने को मना कर दिया। विधि के विधान में जो लिखा था, उसमें कतई दखल नहीं दिया।

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