- डा. कृपाशंकर चौबे
धीरेंद्र अस्थाना के उपन्यास ‘गुजर क्यों नहीं जाता’ को वाणी प्रकाशन ने बीस साल बाद नई सज-धज के साथ छापा है। इस पर डा. कृपाशंकर चौबे ने टिप्पणी लिखी है। इस औपन्यासिक कृति का दायरा दिल्ली से मुम्बई तक और सम्पर्क पत्रकारिता तथा साहित्य जगत् से जुड़ा है। धीरेंद्र के पास शिल्प की वह अद्भुत ताकत है, जिसमें उपन्यास बनता है। इस उपन्यास में एक रचनाकार (जो पेशे से पत्रकार है) के जीवन संघर्ष की यथार्थ, गंभीर और मार्मिक गाथा है। उपन्यासकार ने नौ महीने की असहनीय बेरोजगारी के दौरान जो भोगा, उसे ही अभिव्यक्त किया है। इसी क्रम में फरेब और तिकड़म के आवरण में छिपी बौद्धिक जगत् की एक दुनिया बेपर्दा हो जाती है। ‘गुजर क्यों नहीं जाता’ उपन्यास में लेखक के पास प्रामाणिकता और ईमानदारी की बड़ी पूँजी है। लेखक अपनी खामियों के बारे में भी बिलकुल पारदर्शी है। चाहे उपन्यास के पन्ने-पन्ने पर ‘बूढ़े फकीर’ (जो एक पात्र की तरह उपस्थित है) की बात हो या किसी ‘बारबाला’ से सम्बन्ध का सम्पूर्ण संदर्भ हो या मुम्बई में दिल्ली के एक सज्जन की पिटाई कर बदला लेने का प्रसंग हो, उपन्यास में यह सब कुछ स्वाभाविक तरीके से आता है। लेखक कुछ भी छिपाता नहीं।
उपन्यास के नायक सोमेन्द्र का संवेदनशील व्यक्तित्व उसकी तड़प, वेदना, खुशी, सुख और शिकायत के साथ उपस्थित है। एक अखबार के संघर्ष के दिनों के साथ ही उपन्यास के नायक सोमेन्द्र का संघर्ष शुरू होता है। अखबार में हड़ताल हो जाती है। पेशेवर पत्रकार होने के नाते सोमेन्द्र अपने ऊपर न तो आन्दोलनकारी होने का ठप्पा लगाना चाहता है और न ही अपने आन्दोलनकारी साथियों के खिलाफ जाना चाहता है। इसलिए वह अखबार के मुख्य उप-सम्पादक की सेवा से इस्तीफा दे देता है। फिर वह खुद सड़क पर आ जाता है। दो भाई, एक बहन, दो बेटे, पत्नी और माँ समेत सोमेन्द्र का परिवार केवल एक घर के भरोसे माँ की पाँच सौ रुपये की पेंशन पर कब तक और कैसे टिकता? कुछ रुपयों के लिए किताबें बेचनी पड़ती हैं। पत्नी का मंगलसूत्र भी बिक जाता है। यही क्या, पत्नी को प्रतिमाह चार सौ रुपये के लिए एक कामकाजी दम्पत्ति के बच्चों की देखभाल का काम भी करना पड़ता है। ऐसे में ‘न्यू इण्डिया टाइम्स’ में सोमेन्द्र को मिलती हुई नौकरी, उसके सम्पादक निगम साहब को फोन कर ‘कथा’ के सम्पादक योगेन्द्र जी रुकवा देते हैं। ऐसा भी दिन आ जाता है कि सोमेन्द्र को भूख लगी है, पर जेब में पौने सात रुपये हैं। वह दिल्ली गेट के एक ढाबे में आधा प्लेट चावल (उसके पास जितने पैसे हैं, उनमें अधिकतम इतना ही चावल मिल सकता है) मँगाता है और उसमें थोड़ा-सा नमक और पानी मिलाकर तेजी से सटकने लगता है।
इसी बीच पत्रकार-कवि और समीक्षक पलाश जी आते दिखते हैं तो उनकी नजरों से उन चावलों को बचाने के लिए सोमेन्द्र उन्हें अपनी रुमाल में समेट लेता है। संघर्ष के इन कठिन दिनों में मेल के सम्पादक चंदन जी भी सोमेन्द्र को नौकरी नहीं देते, जिनके दुलरुवा रहे हैं सोमेन्द्र। चंदन जी सोमेन्द्र से इसलिए नाराज हैं, क्योंकि उनके खिलाफ एक खबर (सोमेन्द्र की जानकारी में नहीं) ‘चौथी सत्ता’ में छपी रहती है। ‘संडे मिरर’ के सम्पादक उज्ज्वल शर्मा, जो ‘इतवार’ के सम्पादक रहते सोमेन्द्र से कॉलम लिखवा चुके थे, पर सोमेन्द्र को नौकरी देने से वे मना कर देते हैं। इस तरह बौद्धिक जगत् का बड़ा हिस्सा ‘चौथी सत्ता’ से सोमेन्द्र के हटने के बाद यही चाहता है कि वह टूट जाए। पत्रकारिता और साहित्य की दुनिया में ऐसे असहिष्णु और स्वार्थी लोगों की भरमार होती ही है, जो चाहते हैं कि यदि व्यक्ति की उपयोगिता नहीं है तो उसे टूट जाने दो। पर कठिन संघर्ष सोमेन्द्र को तोड़ नहीं पाता। रेडियो वार्ताओं, रेडियो के लिए नाटक लिखकर, टीवी के ले कुछ एसाइनमेंट लेकर सोमेन्द्र संघर्ष से जूझ रहा होता है। बौद्धिक जगत् में उसे ईश्वर दत्त, अक्षत जैसे मददगार भी मिलते हैं जो वाकई सोमेन्द्र की प्रतिभा, ऊर्जा की कद्र करते हैं। अक्षत के जरिए सोमेन्द्र की प्रभात जी से मुलाकात होती है और अन्तत: सोमेन्द्र को ‘जनशक्ति’ के मुम्बई संस्करण में फीचर सम्पादक की नौकरी मिल जाती है। मुम्बई के लिए जब सोमेन्द्र रवाना होता है, तो दिल्ली पर उसे छोड़ने कोई मित्र नहीं आता, जिनके साथ उसने बारह साल गुजारे। विदा करने आती है सिर्फ पत्नी। मुम्बई में सोमेन्द्र कड़की के दिन गुजारता है। वहाँ उसे बारबाला जया मिलती है। उससे जुड़ने और अलग होने की कहानी अत्यंत मार्मिक है। सोमेन्द्र मुम्बई में साप्ताहिक का फीचर सम्पादक बनता है, तो उसका डंका संम्पूर्ण साहित्य जगत् में बजने लगता है। ऐसे में, छह साल बाद छह दिन के लिए सोमेन्द्र दिल्ली आता है तो यह क्या? जो लोग बेकारी के दिनों में व्यंग्य करते थे, टाँग खिंचाई में लगे रहते थे, वे सभी ‘आत्मीयता’ से मिल रहे थे। यही नहीं, जब सोमेन्द्र छह दिन की छुट्टी बिताने के बाद मुम्बई के लिए राजधानी एक्सप्रेस से रवाना होता है तो नयी दिल्ली स्टेशन पर विदाई देने वालों का मेला लग जाता है। यह भीड़ उन बौद्धिक लोगों की है जो ‘सुदिन’ में सोमेन्द्र को छोड़ने आए हैं। सोमेंद्र को यदि धीरेंद्र मान लें तो लेखक के जीवन के एक कालखंड को हम भलीभांति समझ सकते हैं।
राहुल देव ने 1990 में ‘जनसत्ता’, मुंबई के रविवारीय संस्करण के रूप में देश में हिन्दी की पहली नगर पत्रिका सबरंग आरंभ की। राहुल जी याद करते हैं, “सबरंग ने अपार लोकप्रियता हासिल की। सहायक संपादक प्रसिद्ध हिन्दी कथाकार-उपन्यासकार धीरेन्द्र अस्थाना के नेतृत्व में जनसत्ता सबरंग ने दर्जनों नए लेखक, पत्रकार तैयार किए। सबरंग ने हिन्दी समाज के प्रमुख व्यक्तियों, प्रतिभाओं, संस्थाओं, स्थानों, परिघटनाओं, इतिहास को शब्दांकित किया। धीरेंद्र अस्थाना के संपादन में सबरंग के राष्ट्रीय वार्षिक साहित्य विशेषांकों ने देश भर में अपनी गुणवत्ता से खूब सम्मानजनक जगह बनाई।” धीरेंद्र जब मुंबई सबरंग के संपादक थे, उस समय रविवारी जनसत्ता, दिल्ली के संपादक मंगलेश डबराल और सबरंग, कलकत्ता के संपादक कवि अरविंद चतुर्वेद थे। धीरेंद्र ने अपनी आत्मकथा ‘जिंदगी का क्या किया’ में इसका वृतांत दिया है कि कैसे उन्होंने राहुलजी से सबरंग का साहित्य विशेषांक निकालने के लिए सौ पेज मांगा, वे झट तैयार हो गए और सबरंग को राष्ट्रीय पहचान मिली। सबरंग में धीरेंद्र के पहले संजय निरुपम और बाद में राकेश श्रीमाल सहयोगी थे। उनके किस्से भी ‘जिंदगी का क्या किया’ में दर्ज हैं। वह किस्सा भी कि ट्रेन से धीरेंद्र के कट जाने की खुद फैलाई झूठी खबर पर धीरेंद्र व संजय को राहुल देव ने कितना डांटा था।
चार उपन्यासों-‘समय एक शब्द भर नहीं है’, ‘हलाहल’, ‘गुजर क्यों नहीं जाता’ और ‘देश निकाला’ तथा कहानियों के आठ संग्रहों- ‘लोग हाशिये पर’, ‘आदमीखोर’, ‘मुहिम’, ‘विचित्र देश की प्रेमकथा’, ‘जो मारे जाएँगे’, ‘उस रात की गंध’, ‘खुल जा सिमसिम,’ ‘नींद के बाहर’ के एकांत स्रष्टा के साथ मेरे कई संस्मरण हैं। उस पर फिर कभी लिखूंगा। फिलहाल तो कथाशिल्पी को जन्मदिन की बहुत-बहुत शुभकामनाएं !
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